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आप्त-मीमांसा।
ऐसे अंतरंगार्थ एकान्त पक्ष मैं बुद्धि वाक्य तथा सम्यक् प्रकार उपाय तत्व नाहीं संभव है । तातें श्रेष्ट नाहीं ॥ ८० ॥
आरौं बुहिरंगार्थ पक्ष मैं दूषण दिखाएँ हैं । बहिरंगार्थतैकांते, प्रमाणाभासनिन्हवात् ॥ सर्वेषां कार्यसिद्धिः, स्याद्विरुद्धार्थाभिधायिनाम् ॥८१॥
अर्थ-बहिरंगार्थ. कहिये बाह्य घट पट आदि पदार्थ तिनका एकान्त कहिये वाह्य पदार्थ ही परमार्थ भूत है । अंतरंगार्थ ज्ञान है सो परमार्थ नाहीं । ऐसा पक्ष होतें प्रमाणाभास का लोप होय है । ताके लोप ते सर्व ही परस्पर विरुद्ध पदार्थ का स्वरूप कहने वालेनिकै कार्यसिद्धि ठहरै है प्रमाण अप्रमाण का विभाग नाहीं ठहरै जाते प्रमाण अप्रमाण स्वरूप तौ ज्ञान है सो ज्ञान परमार्थ भूत नाहीं । तब अप्रमाण काहे का विरुद्ध स्वरूप कहने वाले भी साँचे ठहरें हैं ऐसैं दोष आवै है ॥ ८१ ॥ __ आगैं अंतरंग बहिरंग दोऊ पक्ष मानि एकान्त मानै तथा अवक्तव्य एकान्त मानै तामैं दूषण दिखाऐं हैं ।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं, स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकांतेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ८२ ॥ अर्थ-स्वाद्वाद न्याय के विद्वेषीनिकैं उभय कहिये अंतरंग तत्व ज्ञान अर बाह्य तत्व ज्ञेय ये दोऊ एक स्वरूप न होय हैं जातें इनमें परस्पर विरोधहै । बहुरि विरोधके भयस अवाच्यता कहिये अवक्तव्य पक्ष का एकान्त ग्रहण करे तो अवाच्य है । ऐसा उक्ति कहिये कहना न वर्णै ऐसैं दोष है ॥ ८२ ॥ ___ आगैं कहें है । जो दोऊ पक्ष , स्याद्वादका आश्रय लेय कहै तौ दोष नाहीं है। ___ आ०-६