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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं, बाह्यार्थे सति नासति ।
सत्यानृतव्यवस्थैवं, युज्यतेाप्त्यनाप्तिषु ॥ ८७॥ अर्थ-बाह्य पदार्थके होतें तौ बुद्धिके अर शब्दके प्रमाणपणा है । अर बाह्य पदार्थके न होतें बुद्धिके अर शब्दकै प्रमाणपणा नाहीं है । जातें अर्थ की प्राप्ति अर अप्राप्ति वि ऐसे ही सत्य की अर असत्य की व्यवस्था युक्ति होय है । बाह्य पदार्थ विना बुद्धिकै अर शब्दक प्रमाणता नैं होय है । इहां ऐसा जानना-जो बुद्धि तौ ज्ञान है सो तौ अपने ही वस्तुके प्राप्तिके अर्थ है बहुरि शब्द है सो परके प्रतिपादनके अर्थ है । वचन बिना परका ज्ञान परके प्रत्यक्ष ग्रहण मैं नाही आवै है । बहुरि स्वपक्षका साधना पर का पक्ष का दूषणां ऐसे ही होय है तातें जो प्रमाणकू निर्वाध मान अपनी पक्ष साध्या चाहै ताकू बाह्य पदार्थ भी मानना वा बाह्य पदार्थ बिना प्रमाण प्रमाणाभास न ठहरै है। ऐसै बाह्य पदार्थ सिद्धि होतें वक्ता श्रोता प्रमाता ये तीनं सिद्ध होय हैं । बहुरि तिनके ज्ञान बचन प्रमाण ये तिनूं सिद्ध होय हैं ऐसे जीव शब्द के संज्ञापणा हेतु तैं बाह्यार्थ सहितपणां सिद्धि होय है । बहुरि याही ते जीव की सिद्धि होय है याही तैं जीव पदार्थ कू जाणि अर प्रवर्त्तनेके निर्वाध सवाध की सिद्धि है । ऐसे भाव प्रमेयकी अपेक्षा तौ कथंचित् सर्व ज्ञान अभ्रान्त सिद्ध होय । बहुरि बाह्य प्रमेय की अपेक्षा कथंचित् बाह्य पदार्थ विर्षे विसंवाद तैं भ्रांति सिद्धि होय है अविसंवादतै अभ्रान्ति सिद्ध होय है। ऐसे भी कथंचित् उभय, कथंचित्अवक्तव्य, कथंचित् अभ्रांति वक्तव्य, कथंचित् भ्रान्ति अवक्तव्य, कथंचित् उभया वक्तव्य, ऐसैं पूर्ववत् सप्तभंगी प्रक्रिया जोड़नी । ऐसें अंतरंग बाह्य तत्वका निर्णय किया कू ज्ञायक उपाय तत्व कहिये ॥ ८७॥