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आप्त-मीमांसा। आगै विज्ञाद्वैतवादी बौद्ध कहै जो संज्ञापणा तैं शब्द • बाह्यार्थ सहित साध्या सो हमतौ वाह्यार्थ सिद्धि नैं करें हैं । संज्ञा है सो भी विज्ञानही है तिस तैं भिन्न बाह्य पदार्थ तौ नाहीं है बहुरि हेतु शब्दका दृष्टान्त है सो भी साधन बिकल दृष्टांताभासहै हेतु भी विज्ञानमैं आय गया, ताकू आचार्य उत्तर रूप कांरिका में हैं।
वक्तृश्रोतृप्रमातृणां बोधवाक्यप्रमाः पृथक
भ्रांतावेव प्रभाभ्रांतों बाह्यार्थौ तादृशेतरौ ॥ ८६ ॥ अर्थ-वक्ता श्रोता और प्रमाता ये इन तीनका बोध वाक्य प्रमाण ये तीनूं ही भिन्न भिन्न हैं । यहां कहैं ये तीनूं ही भ्रान्ति हैं भ्रम रूप हैं तौ भ्रान्ति स्वरूप होते प्रमाण होना भी भ्रांति ही ठहरै। फेर कहै प्रमाण भी भ्रान्ति ही होहु तो प्रमाण भ्रान्ति स्वरूप होते प्रमाण अप्रमाण स्वरूप बाह्य पदार्थ प्रमेय हैं ते भी भ्रान्ति स्वरूप ठहरें हैं । ऐसे होते अंगरंग ज्ञानका अर बाह्य पदार्थका सर्व ही का लोप होय । तब संबेदनाद्वैतवादी की भी सिद्धि नाहीं होय है । इहां ऐसा जानना जो वक्ताकै अर्थका ज्ञान बिना तौ वाक्य कैसे प्रवर्ते बहुरि वक्ताका वाक्य नैं (न) प्रवर्तं तब श्रोता कै अर्थका ज्ञान कैसे होय । बहुरि प्रमाता, यथा अयथा, पदार्थका निर्णय करने वाला ताके पदार्थकी प्रमाणता नैं होय तौ शब्द अर अर्थ जे प्रमेय तिनका यथार्थपणा कैसे होय । तातें वक्ता श्रोता प्रमाताका ज्ञान वाक्य प्रमाणता न्यारे न्यारे माननैं जो संवेदनाद्वैतवादी न मानें तौ ताका संवेदना द्वैत भी सिद्ध न होय है ॥ ८६ ॥ . आण संवेदना द्वैतवादी कहै जो भ्रान्ति रहित प्रमाण निधि मानिये है तौ आचार्य कहैं हैं बाह्य पदार्थ भी मानना । बाह्य पदार्थ माने बिना प्रमाण अर प्रमाणा भासकी व्यवस्था नाहीं ठहरै है।