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. आप्त-मीमांसा। ..
रूप जो बाह्य अर्थ तिस सहित ही है । जैसे प्रमा कहिये प्रमाण की उक्ति कहिये संज्ञा है । तिन प्रमाणनिका बाह्यार्थ प्रत्यक्ष परोक्षआदि है । तैसें ही मायादिक भ्रान्ति भी संशयादिक ज्ञानके भेद रूपहै। इनका बाह्यार्थ कैसे नाहीं । बहुरि इहां चारवाकमती कहै ? जो शरीर इन्द्रीयादिका समूह है सो ही जीव शब्दका अर्थ है । इन” भिन्न स्वरूप तो जीव वस्तु किछु है नांही ताकू कहिये है । जो जीव असा अर्थ लोक प्रसिद्ध जीवका ग्रहण है जीव चालै है जीव गया जीव तिष्ठै है ऐसा लोक प्रसिद्ध व्यवहार है सो ऐसा व्यवहार शरीर विर्षे नाहीं है । इंद्रियनि विडं नाहीं है । बहुरि बोलनाआदि शब्दआदि वि नाहीं है । जो इनका भोगने वाला आत्मा है ताहीविर्षे यह व्यवहार है बहुरि कोऊ चारवाक मती कहै । ऐसा जीव गर्भ तैं लेय मरणपर्यंत है अनादि अनंत नाहीं । ताकू कहिये जो जन्मरौं पहिलैं अर मरणके पीछे भी जीवका अस्तित्व है। ऐसा जीव पृथ्वी आदिकतै उपजै नाहीं। इन” जीव विलक्षण है । पृथ्वी आदि जड़ है जीव चतन्य है जे चारवाक ऐसे तैं मानें ताके भी तत्व की संख्या लक्षणके भेद तैं है सो न बगैं । ऐसैं काय सहित जीवके विर्षे जीवका व्यवहार है । बहुरि बौद्धमती क्षणिक चित् संतान विर्षे जीवका व्यवहार करै । तो यहू भी न बणें । यातें उपयोग स्वरूप कर्ता भोक्ता स्वरूप ही जीव शब्दका बाह्यार्थ है । बहुरि कोई कहै । संज्ञा हेतु तैं जीव अर्थ साध्या सो संज्ञा तौ वक्ताका अभिप्राय सारूहै । ताकू कहिये ऎसैं नाहीं जामें अर्थ क्रिया होय सो संज्ञा का बाह्यार्थ है । कोई कहै खर बिषाण संज्ञाका कहा अर्थ है । ताकूँ कहिये अभावके विशेष की प्राप्ति याका अर्थ है सो यही भी संज्ञा बाह्य अर्थ बिना नाहीं हैं । इत्यादि जानना ॥८४॥