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आस-मीमांसा।
मानें है । ताकै भी अन्वय व्यतिरेक न ठहरै जातें भेद अभेद है । ते परस्पर अपेक्षा बिना सिद्धि न होय । अन्वय तो सामान्य है अर व्यतिरेक विशेष है, ते परस्पर अपेक्षा स्वरूप हैं। तिन दोऊ के परस्पर अपेक्षा न मानिये तो सामान्य विशेष भाव न ठहरै तातें अपेक्षा अनपेक्षा ये दोऊ ही एकान्त तैं बनै नाहीं एकान्त तैं वस्तु की व्यवस्था नहीं हैं ॥ ७३ ॥
आगे दोऊ मांनि एकान्त मान तथा अवक्तव्य एकान्त माने, तामें दूषण दिखाएँ हैं
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां ।
अवाच्यतैकांतेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥ ७४ ॥ अर्थ--अपेक्षा अनपेक्षा दोऊका एकान्त मानै तौ दोऊ एक स्वरूप होय नाहीं जातै स्याद्वाद न्यायके विद्वेषीनकै विरोध नामा दूषण आवै है । जैसे सत् असत् एकान्त में आवै तैसैं तातें ये भी एकान्त श्रेष्ठ नाहीं है । बहुरि अवाच्यताका एकान्त करै तो अवाच्य हैं । ऐसैं कहना ही न बर्षे तातें अवक्तव्य एकान्त भी श्रेष्ठ नाहीं ॥ ७४ ॥
आगैं अपेक्षा अनपेक्षाका एकान्तके निराकरणकी सामर्थ्यतै अनेकांत सिद्ध भया तौऊ कुवादी की आशंका दूर करणेकू अनेकांत• आचार्य, कहै हैं ॥
धर्माधर्म्यविनाभावसिध्यत्यन्योन्यवीक्षया, ___ न स्वरूपं स्वतो हयेतत् कारकज्ञापकांगवत् ॥ ७५ ॥
अर्थ-धर्म अर धर्मी के अविना भाव है, सो तौ परस्पर अपेक्षा करि सिद्ध है । धर्म बिना धर्मी नाहीं । बहुरि धर्म, धर्मी का स्वरूप है । सो परस्पर अपेक्षा करि सिद्ध नही है । स्वरूप है सो स्वतः सिद्ध है । आपही पहले ही स्वयमेव सिद्ध है जैसे कारक के