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आप्त-मीमांसा ।
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अर्थ-जो अपना वांछित कार्य सर्व एकांत करि हेतु तैं ही सिद्ध होना मानिये तो प्रत्यक्षादिक तैं होय है सो न ठहरै । बहुरि एकान्त करि आगम ही तैं सिद्ध होना मानिये, तो प्रत्यक्षादि तैं विरुद्ध तथा परस्पर विरुद्ध है पदार्थ जिनकैं ऐसैं आगमोक्त मत ते भी सिद्ध ठहरें । ऐसे दोष आवै है यहां ऐसा जानना जो समस्त ही लौकिक जन तथा परीक्षक जन अपने आदरने योग्य उपेय तत्त्व कूँ निश्वय करि अर तिसका उपाय तत्त्व का निश्चय करें हैं सो यहां मोक्ष के अर्थीन कू भी मोक्षका स्वरूप का निश्चय करि अर तिसका उपाय का निश्चय करावना, वहां केई अन्यमती अनुमान ही तैं उपेय तत्त्व की सिद्धि मानैं हैं । तिनकै प्रत्यक्षादिक तैं गति कहिये वस्तु की प्राप्ति तथा ज्ञान न होय, जातें अनुमान होय है । जो आदि में लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन होय तथा दृष्टान्त प्रत्यक्ष होय तब होय है। यातै प्रत्यक्ष बिना अनुमान की भी सिद्धि नाहीं होय है-तातें हेतु तैं एकान्त करि सिद्धि मानना श्रेष्ठ नाहीं बहुरि केई मीमांसक आदि आगम ही” एकान्त करि सिद्ध होना मानें हैं । तिनकै परस्पर विरुद्ध अर्थ जिनमैं पाइए एसैं सर्व ही मत सिद्ध ठहरै । जातें आगम की प्रमाणता-युक्ति हेतु आदि करि किये बिना प्रमाण ठहरै तब सम्यक् मिथ्या का विभाग कैसैं ठहरै तातें आगम तैं भी सिद्ध होना एकान्त करि मानना श्रेष्ठ नाहीं । औसैं दोंऊ ही एकान्त बाधा करि सहित हैं। आगें दोऊ तें सिद्ध मानने का एकान्त विषै दोष दिखावैं हैं ॥ ७६ ॥
विरोधानोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकांतेऽप्युक्तिर्नावाच्यमितियुज्यते ॥ ७७॥ अर्थ—स्वाद्वाद न्याय के विद्वेषी एकान्त वादीन के हेतु अर आगम दोऊ एक स्वरुप मानना मति होहु जातें दोऊ मैं एकान्त करि