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अथ पंचम परिच्छेद ।
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दोहा । एक वस्तुमें धर्म दो, साधे श्री गणधार ।
सुअपेक्षा अनपेक्ष तैं, नमों तास पद सार ॥ १ ॥ अब यहां प्रथम ही अपेक्षा अनपेक्षा के एकान्त पक्षविर्षे क्षण दिखावें हैं
यद्यापेक्षिकसिद्धिःस्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते ।
अनापेक्षिकसिद्धौ च न सामान्यविशेषता ।। ७३॥ अर्थ-जो धर्म धर्मी आदि कै एकांत करि आपक्षिक सिद्धि मानिए, तो धर्म धर्मी दोऊ हीन ठहरै । बहुरि अपेक्षा बिना एकांत करि सिद्धि मानिए तो सामान्य विशेषपणां न ठहरै। तहां बौद्धमती ऐसैं मानैं हैं । प्रत्यक्ष बुद्धि में धर्म अथवा धर्मी न प्रति भासै है। प्रत्यक्ष देखें पीछे विकल्प बुद्धि होय। तिस तैं धर्म धर्मी कल्पिये है । ऐसें कल्पना मात्र है जाकों धर्म कल्पिये सो ही धर्भी हो जाय धर्मी धर्म हो जाय । ऐसैं कहूँ ठहरै नाहीं, जैसैं शब्द अपेक्षा सत्त्व आदि कू धर्म कल्पिये सो ही ज्ञेयपणां की अपेक्षा धर्मी हो जाय । ऐसैं विशेष्य विशेषण पणा गुण गुणी पणां क्रिया क्रियावान पणां कार्य कारण पणां साध्य साधन पणां ग्राह्य ग्राहक पणां इत्यादि परस्पर अपेक्षा मात्र ही तैं सिद्ध है । ऐसें बौद्धमती की ज्यौं एकान्त करि मानिए तो दोऊ न ठहरें, तातैं अपेक्षा मात्र सिद्धि का एकान्त सिद्ध नाहीं, श्रेष्ट नाहीं ॥ बहुरि धर्म धर्मी की सर्वथा अपेक्षा बिना ही सिद्धि नैयायिक मानै है । कहै है-धर्म धर्मी भिन्न ज्ञान के विषय हैं । इनके परस्पर अपेक्षा नाहीं ऐसैं एकान्त करि