________________
आप्त- मीमासा |
६९
नित्यपना है तातैं सर्व अवस्थाविषै अन्यपनाका अभाव है तातैं अनन्यताका एकान्त है सो सदा एकस्वरूप रहै है अन्यस्वरूप कबहूं न होय । ताकूं आचार्य कहैं हैं—
अनन्यतैकांतेऽणूनां संघातेऽपि विभागवत् ।
असंहतत्वं स्याद् भूतचतुष्कं भ्रान्तिरेव सा ।। ६७ ॥ अर्थ — परमाणू निकैं अनन्यता कहिये अन्यस्वरूप न होनेका एकान्त, होनेतैं संघात कहिये परस्पर मिल एकान्त होतैं भी. विभाग कहिये पहलें न्यारे न्यारे विभागरूप थे ताकी तरह मिले नाहीं ठहरें, जातैं मिल स्कंध स्वरूप न भये जो मिलकर स्कंधरूप भये मानिये तो अनन्यताका एकान्त न ठहरै कथंचित् अन्यस्वरूप भये ठहरै | बहुरि स्कंधरूप न भये ठहरै | बहुरि स्कवरूप न भये तब पृथ्वी, जल, तेज, वायु ऐसा भूतका चतुष्टय देखिये है सो भ्रान्तिरूप ठहरै । जातैं भूतचतुष्क परमाणूनिका कार्य मानिये है सो भ्रम ठहरे ॥ ६७ ॥
1
आगें, भूतचतुष्ककूं भ्रान्ति मानें दोष आवै है सो दिखावें हैं कार्य भ्रान्तेरणुभ्रान्तिः कार्यलिङ्गं हि कारणम् । उभयाभावतस्तत्स्थं गुणजातीतरच्च न ।। ६८ ॥
-
अर्थ - परमाणूनिके कार्य जो पृथ्वी आदि भूतचतुष्क तिनं नमस्वरूप मानें तैं परमाणु भी भ्रमस्वरूप ही ठहरें हैं । जातैं कारण है सो कार्यलिंगस्वरूप है अर कार्यलिङ्गतैं ही कारणका अनुमान करिये हैं । कार्य भ्रम ठहरै तब ताका कारण भी भ्रमही ठहरै | बहुरि कार्य कारणस्वरूप जो भूतचतुष्क अर परमाणु इन दाऊनके अभावर्तै तिनकैं विषै तिष्ठते गुण, जाति, सत्व, क्रिया, विशेष, समवाय ये भी न ठहरैं । ता परमाणु निकैं कथंचित् स्कंधरूप अन्यस्वरूपता मानना युक्त है।
T