________________
अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
जैसें बौद्धमतीनिक परमाणूनिका अन्यस्वरूप न मानना अयुक्त है। तैसैं वैशोषिकनिका भी मत सिद्ध न होय है ॥ ६८ ॥
आगें सांख्यमती कार्यकारण• एकस्वरूप ही मानै कथांचित् अन्यस्वरूप न मानैं तामैं दूषण दिखाबें हैं
एकत्वेन्यतराभावः शेषाभावोऽविनाभुवः । द्वित्वसंख्याविरोधश्च संवृतिश्चेन्मृषैव सा ॥ ६९ ॥ अर्थ-कार्य जो महान् आदि अर कारण जो प्रधान, ताके परस्पर एकस्वरूप तादात्म्य मानते जब तादात्म्य एकस्वरूप भया तब एकका अभाव भया, एक रह्या । बहुरि एक रह्या सो दूसरे तैं अविनाभावि है तातें दूसरेका अभाव होतें शेष एक रह्या था ताका भी अभाव भया ऐसैं दोऊ ही न ठहरें हैं । बहुरि दोयपनकी संख्या मानिये है तोका विरोध आवे है यह संख्या भी न ठहरै । बहुरि यदि कहै कि द्वित्वकी संख्या तो संवृति है, कल्पना है, उपचार है । तो कल्पना उपचार है सो मृषाही है असत्य ही है ताकी कहा ( क्या ) चर्चा ? । ऐसैं प्रधान, महान, आदि सांख्यकाल्पितकै अनन्यता का एकान्त मानने” दूषण आवै है । तथा पुरुष अर चैतन्य, इनकैं भी अनन्यताका एकान्त मानने” दोऊका अभाव अर द्वित्व संख्यका विरोध आवै है। ऐसे कार्यकारणादिकके अनन्यताका एकान्त नाहीं संभव है ॥ ६९॥ __आगैं, अन्यता अर अनन्यता इन दोऊ पक्षका एकान्त मानने तें: तथा अवक्तव्य एकान्त मानने तैं दूषण दिखावें हैं -
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यामिति युज्यतें ॥ ७० ॥