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___ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
एकाग्र होना, समाधि कहिये लय होना ऐसें अष्टांगहेतुक मोक्ष कहना न बनैं । ऐसें नाशकू हेतु विना कहनेमें दूषण है ॥ ५२ ॥ ____ आगें बौद्ध कहै कि विरूपकार्य, विसदृशकार्यके अर्थ हेतु मानिये है ताकं दूषण दिखावें हैं
विरूपकार्यारंभाय यदि हेतु समागमः ।
आश्रयिभ्यामनन्योऽसावविशेषादयुक्तवत् ॥ ५३॥ अर्थ-विरूप कार्य कहिये हिंसा अर बंध, मोक्ष; ताके प्रारंभके अर्थ हिंसक अर सभ्यक्त्व आदिक अष्टाङ्गहेतुका समागम कहिये व्यापार मानिये हैं ऐसें बौद्ध कहैं ताकू आचार्य कहैं हैं । कि यह हेतु मान्या सो अपने आश्रयी जे नाश अर उत्पाद तिन” अन्य नाहीं है । अनन्य कहिये अभेदरूप है। जो नाशका कारण सो ही उत्पादका कारण है । यामें विशेष नाहीं । ऐसें अयुक्त कहिये भाव, भावी अभेदरूप होंय तिन तैं तिनका कारण भी भिन्न न होय तैसें पहले आकारका विनाश अर उत्तर आकारके उत्पादका कारण एक ही है । तातें जो उत्पादकू तौ हेतु" मानें अर नाशकू अहेतुक मानें सो कैसे बनैं । जैसे मुद्गर घटके नाशका कारण है सो ही कपालके उत्पादका कारण है । उत्पाद, नाश दोऊ ही हेतु विना नाहीं ॥ ५३ ॥ .. आरौं बौद्ध मतीकू कहैं हैं कि तिहारे क्षणतें परमाणु उपजै है कि तुम स्कंधसंतति मानू हो तो उपजै है । जो कहोगे कि परमाणु उपजै है तो यामें तो हेतु, फलभावका विरोध आवैगा जैसें विनाश हेतु विना मानू हौ तैसैं उत्पाद भी हेतु विना मानो । बहुरि जो स्कन्धसंततिकू उपज्या मानू हो तो तामें दूषण है सो दिखावें हैं
स्कन्धाः संततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः । स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां न स्युः खरविषाणवत् ॥५४॥