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आस-मीमांसा। धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनंतधर्मणः ।
अंगित्त्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ॥ २२ ॥ अर्थ-अनंत धर्म जामैं पाइये ऐसा जो जीव आदिक एक धर्मी ताकै एक एक अस्तित्त्व आदि धर्मविषै अन्य ही अर्थ हैं भिन्न मिन्न कार्य हैं प्रयोजन हैं । सो वे प्रयोजन कहा है ? तहां कहियेतिसकी प्रवृत्ति आदिक होना अथवा तिसका ज्ञान होना है बहुरि एक ही प्रयोजन सर्व धर्मनिकै नाहीं है जाकर भेदाभेद पक्षकार दूषण आवै । परन्तु कथंचित् भेदाभेदात्मक हैं, अर्मतधर्मात्मक वस्तु जात्यंतर है, धर्मनिके स्वरूप सिंबाय एक न्यारा जास्यंतर है तहां विरोधका अधकाश नाहीं । बहुरि तिन अस्तित्व आदि धर्मनिविर्षे एक धर्मकै अंगीपणां कहिये प्रधानपणां होतें संतें शेष अनंत धर्मनिकैं तिसका अंगपणां कहिये गौणपणां होय है । तातें अन्य अन्यका प्रयोग युक्त है। धर्म, धर्म प्रति धर्मीकै कथंचित् स्वभावभेद बण है तातै वस्तुवि. परमार्थतै अस्तित्व आदि धर्मनिकी व्यवस्था अंगीकार करणी याहीत अस्तित्व आदि सप्तभंगनिकी प्रवृत्ति है सो सुनयके अर्पणते हैं। ऐसे 'स्यात् अस्येव जीवादिः, इत्यादि सप्तभंगनिका प्रयोग युक्त हैं ॥२२॥
आगैं अब एकपणां, अनेकपणां आदि सप्तभंगीविषै भी ये ही प्रक्रिया प्रकट करते संते आचार्य कहैं हैं
एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् ।
प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयैर्नयविशारदः ॥ २३ ॥ अर्थ-नयनिविर्षे प्रवीण जे स्याद्वादी सो यहु सप्तभंगी प्रक्रिया है ताहि उसर प्रकरणविर्षे एकपणां अनेकपणां इत्यादि विकल्पविचारविर्षे भी नयनकरि युक्त करै । तहां स्यात् कहिये कथंचित् जीवादिक वस्तु एक ही हैं सत् द्रव्यनयको अपे