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आंत-मीमांसा |
संतानः समुदायश्च साधर्म्यं च निरंकुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्त्वनिन्हवे ॥ २९ ॥
अर्थ — जीव आदिक द्रव्यनिकै एकपणेका लोप मानिये तथा अपने पर्यायनितैं भी एकतारूप अन्वय न मानिये तौ संतान न ठहरै । जातैं क्रमरूप पर्यायनिमैं जीवादि द्रव्य अन्वय रूप होय सो I संतान है, अर सो संतान क्षणिक पक्षकार पर्याय निकै सर्वथा भेद ही मानने मैं संतान परमार्थभूत न बनैं । अन्य संतानकी तरह ठहरै | बहुरि समुदाय भी न ठहरै जातैं एकस्कन्धमैं अपने अवयवनितैं एकता होय सो समुदाय है; यह समुदाय भी सर्वथा पृथक्त्व पक्ष मैं न नैं । बहुरि साधर्म्य भी न ठहरै । समानधर्म जिनके हैं तिनकेँ समानपरिणामनिकी एकताकूं साधर्म्य कहिये हैं सो पृथक्त्व एकान्तपक्षमै एकताका लोप होतैं यह भी न बनैं । बहुरि प्रेत्यभाव कहिये परलोक सो भी न ठहरै । मर मर कर फेर फेर उपजना ताकूं परलोक कहिए हैं सो दोऊ भवमैं एक आत्माका लोप मानें यह भी न बनैं । तथा वर्तमानमैं इसभवमैं भी बाल्य, यौवन, वृद्धपणां आदि अनेक अवस्था होय हैं ति मैं एकपणांका प्रत्यक्ष अनुभव है सो यह अनुभव भी पृथक्त्व एकान्तपक्षमैं विरोध्या जाय तब देने - लेनेका व्यवहार भी नष्ट होजाय है । बहुरि संतान, समुदाय, साधर्म्य अर परलोक ये निरंकुश हैं - अवश्य हैं तथा प्रमाणसिद्ध हैं तिनका अभाव कैसैं मानिये अर एकपणांका लोप होतैं पृथक्त्व - एकान्तपक्ष श्रेष्ठ नांहीं ॥ २९ ॥ आगैं पृथक्त्वएकान्तपक्षहीविषै अन्य दूषण दिखावते संते अचार्य कहैं हैं—
सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाप्यसत् । ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥ ३० ॥
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