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आप्त-मीमांसा।
अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् । मुख्यार्थःसंवृतिर्न स्याद्विना मुख्यान संवृतिः॥४४॥ अर्थ-यहां क्षणिकवादी बौद्ध कहै है जो अन्यविर्षे अनन्य ऐसा शब्द है सो संवृति कहिये व्यवहारमात्र उपचार करि ये हैं । भागर्थ-संतानी जे क्षण हैं तिन" संतान जो क्षणानिके प्रवाहकी परिपाटी, ताकू ऐसैं कहिये है जो यह क्षणनिका संतान है सो ऐसे क्षण ही हैं तिनतै अन्य संतान किछू परमार्थभूत नाहीं है । परमार्थ देखिये तब तो क्षण अन्य ही हैं अर संतानतें अनन्य कहिये हैं सो यह व्यवहार-उपचार है। ऐसे क्षणिकवादी कहैं ताकू आचार्य कहै हैं-जो अन्यविर्षे अनन्य कहना सर्वथा ही संवृति है-उपचार है तो मृषा कहिये असत्य कैसें न होय यह तो झूठ ही है। बहुरि कहै जो संतान है सो मुख्यार्थ ही है-सत्यार्थही है तौ जो मुख्यार्थ होय सो — संवृतिर्न ' कहिये उपचार न होय है। बहुरि कहै जो संतान तो संवृति ही है । तो संवृतिनै मुख्य प्रयोजन सत्यार्थ जे प्रत्यभिज्ञान आदिक ते परमार्थभूत संतानविना कैसे सधैं । जैसें माणवकविर्षे अग्निका अध्यारोप करि उपचार करिये तब माणवकतें अग्निका कार्य तो सधै नाहीं तैसें उपचरित संतान है सो संताननिक नियमका कारण न होय । बहुत संवृति उपचार है सो भी मुख्य सत्यार्थविना तो होय नाहीं । जैसें सांचा स्पंध होय तो ताका चित्राम भी होय अर सांचा स्पंध ही न होय तब ताक चित्राम भी कैसे होय । बहुरि संतान परमार्थभूत न ठहरै तब क्षण जे संतानी तिनकै सङ्कापणा आवै है जातें ये संतानी जे क्षण तिनकैं कार्य प्रति नियमका कारणपना न बनैं है न्यारे होय प्रयकार्यसूपरेशाब सकर दोष आवै ॥ ४४ ॥