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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्
हैं सो सर्व धर्मनिकरि रहित• नाही कहैं हैं । सत् , असत् इत्यादि अनेकान्तात्मककू वस्तु कहैं हैं। सो ऐसें होतें द्रव्य, क्षेत्र, काल, अपेक्षा प्रक्रियाके विपर्ययके वश” वस्तुकों ही अवस्तु कहैं हौं । बहुरि सर्वथा एकान्तकरि सर्व धर्मनिकरि रहित ताकू अवस्तु माना है सो परवादीकी कल्पनाकी अपेक्षा लेकर कहनाहै । परमार्थतें जो सर्व धर्मनिकरि रहित है तातै अवस्तु है ऐसा कहनाभी हमारें नाहीं हैं । हमारे यहां ऐसे है- जैसें घटकू अन्य घटकी अपेक्षा अघट कहिये तैसें अन्य वस्तुकों ही अवस्तु कहिये या विरुद्ध नाहीं है । जैसे काहूने कह्याकि ' अब्राह्मणकू ल्याओ, तही जानना कि ब्राह्मणतैं अन्य, क्षत्रियादिककू बुलावै है । तहां ब्राह्मणका सर्वथा अभाव न कहै है । भावही• अपेक्षा” अभाव कहिये । तैसें ही वस्तुकू अवस्तु कहना अपेक्षातें है । जो सर्वथा सर्व धर्मनि” रहित है सो वस्तु तो अवक्तव्य ही है ऐसें जानना ।। ४८॥ आरौं क्षणिकवादीनिकू किछू विशेषकरि दूषण दिखावें हैंसर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः ।
संवृतिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ॥ ४९ ॥ अर्थ-अन्यवादीनिकैं जो 'सर्वान्ता, कहिये सर्व धर्म हैं ते अवक्तव्य हैं । तिनकै धर्मके उपदेशरूप तथा अपने तत्वका साधनरूप परके दूषणरूप वचन कहा ( क्या ) हैं ? अपितु किछूभी नाही तब मौन ही सिद्ध भया । बहुरि कहै जो संवृति कहिये व्यवहारके प्रवर्तनेकू उपचाररूप वचन हैं । ताकू ऐसैं कहिये । कि परमार्थसे विपर्यय हैं उपचार है सो तो मिथ्या है, असत्य है । बहुरि फेर वादि कहै जो कोई मौनी ऐसैं कहै कि ' मेरे सदा मौन है, वाका ऐसा कहना मौन तें विरोधी है तो भी अन्यकू जनावनेकू कहिये सो उपचार है । तैसैं सर्व