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आप्त-मीमांसा ।
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धर्म अवक्तव्य हैं तौऊ परके जतावनकू उपचाररूप वचनकरि 'अवक्तव्य,, ऐसा वचन कहिये है । ता वादीकू कहिए कि अवक्तव्य कैसैं हैं ? स्वरूपकरि अवक्तव्य है ? कि पररूप करि है ?, कि दोऊरूप करि है। कि तत्वस्वरूप करि है ?, या मृषास्वरूपकरि है ? ऐसैं विचारिये तो कोई भी पक्ष न ठहरै है । जो स्वरूपकरि अवक्तव्य कहै तो अवक्तव्य कैसैं ? जो अपना रूप है सो कहनेमैं आवै है। बहुरि पररूपकार अवक्तव्य है तो स्वरूपकरि वक्तव्य ही ठहरै । बहुरि दोऊ पक्ष माननेमैं दोऊ दूषण आवे हैं। बहुरि तत्त्वकरि अवक्तव्य कहै तो व्यवहारकरि वक्तव्य कहना ठहरै । अर मृषापनाकरि अवक्तव्य कहना न कहना तुल्य ही है । ऐसें बहुत कहने तें कहा ? सर्वथा अवक्तव्य कहनेमैं तो अवक्तव्य है ऐसा कहना भी न बने है तब अन्यकू प्रतीति . उपजावनेका अयोग है ॥ ५० ॥
आणें सर्वथा अवक्तव्य कहनेवाले वादीकू कहैं हैं कि अवक्तव्य कैसे कहै है ? एसैं पूछकर दोष दिखावें हैं
अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । . आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतांस्फुटम् ॥५०॥
अर्थ-अवक्तव्यवादीकं कहैं हैं जो तू अवक्तव्य कहै है । सो अशक्यत्वात् कहिये तेरे कहनेकी सामर्थ्य नाहीं है तिसपनाकरि कहै है । कि अभाव है तातें अवक्तव्य कहै है। कि अबोघतः कहिये तेरे तत्वका ज्ञान नाहीं है तातें अवक्तव्य कहै है । ऐसें तीन पक्ष पूछे । इन सिवाय अन्य पक्ष कहै तो इनहीमैं अन्तर्भूत होय हैं। तहां आदिका पक्षतो अशक्यपना अर अंतका अबोध, ये दोऊपक्ष तो बनै नाहीं हैं। तातें क्षणिक मतका आप्त बुद्ध-सुगतकै सर्वज्ञपना कहैं हैं तथा क्षमा, मैत्री, ध्यान, दान, वीर्य, शील, प्रज्ञा, करुणा, उपाय प्रमोद, स्वरूप दश बल