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आप्त-मीमांसा। पदार्थ सर्वविकल्पनि रहित अवस्तु ही ठहरै है । जातै सर्वधर्मनितें रहित भया । तब विशेषण, विशेष्यभाव भी रहित भया तातै अवस्तु ही भया ॥ ४६॥ । बहुरि सर्वथा विशेष विशेषण रहित होय ताका प्रतिषेधकरना भी बने नाहीं तातै वस्तु ही विर्षे प्रतिषेध करना बनै है सो ही कहैं हैं - । द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधःसंज्ञिनःसतः। ...
असद्भदो न भावस्तु स्थानं विधिनिषेधयोः ॥४७॥
अर्थ-जो सत्तासहित संज्ञी कहिये संज्ञावान पदार्थ है ताहीका द्रव्यान्तर, क्षेत्रान्तर, कालान्तर भावान्तर इनकरि अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भावनिकी अपेक्षा निषेध कीजिये हैं। बहुरि असत्तारूपका तौ निषेध संभवै नाहीं सर्वथा अवस्तु तौ प्रतिषेधका विषय नाहीं । जातें असत् भेदरूपहै सो तो अवस्तु है, सो तो विधि, निषेधका स्थानही नाहीं है । कथंचित् सत् विशेष पदार्थ ही विधि अर निषेधका आधार है। तातें ऐसा आया कि अन्य वादीने मान्या जो सर्व धर्मनिकरि रहित तत्त्व सो अवस्तु है ॥ १७ ॥
सो पदार्थ अवक्तव्य है ऐसा कहैं हैंअवस्त्वनभिलाप्यं स्यात् सर्वान्तः परिवर्जितम् । . वस्त्वेवा वस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ॥४८॥
अर्थ- जो 'सर्वान्तैः परिवर्जितं, कहिये सर्व धर्मनिकरि रहित है सो धर्मी नाही, अवस्तु है । जातें ऐसा पदार्थ काहू प्रमाणका विषय नाहीं सो ही अनभिलाप्य कहिये अवक्तव्य है यहां क्षणिकवादी कहै जो सर्व धर्मनिकरि रहित अवस्तु अवक्तव्य है तो अवस्तु अवक्तव्य है ऐसा भी तुम कैसे कहौ हौ । ताकू कहिये कि हम जाकू अवस्तु कहैं