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आप्त-मीमांसा।
होय । बहुरि बंध अर मोक्ष ये दोऊ भी न होय । तातें नित्यत्वएकान्तका मत है सो परीक्षावाननिकै आदरने योग्य नाहीं है । जातें जा मतमैं पुण्य, पाप, परलोक, बंध, मोक्ष न संभवै तिस मतकू परीक्षावान कौन प्रयोजन आश्रय करै अर्थात् नाहीं करै ॥ ४०॥ - आगैं क्षणिकमती बौद्ध कहै है-जो यह सत्य है नित्यत्वएकान्तमैं दूषण है तातें क्षणिकका एकान्त है सो प्रतीति सिद्ध है तातें कल्याणकारी है ऐसा कहते वादीकू आचार्य कहैं हैं
क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः।।
प्रत्यभिज्ञाद्यभावान कायोरम्भः कुतः फलम् ॥४१॥ अर्थ-क्षणिकएकान्तका पक्ष होतें भी प्रेत्यभावादि कहिये परलोक, बंध, मोक्ष आदि, तिनका असंभव होय है । जातै प्रत्यभिज्ञा कहिये पहले तथा पिछले समयविर्षे अवस्था होय ताका जोड़रूप ज्ञान तथा स्मरणज्ञान आदिके अभावतें कार्यका प्रारंभ संभवै नाहीं। बहुरि कार्यके आरंभ विना पुण्य-पाप, सुख-दुख आदिक फल काहेरौं होय अपि तु नाहीं होय । अर क्षणिकनिका संतानकू कार्यका आरंभ करनेवाला कहै तो संतान परमार्थभूत क्षणिकएकान्तमैं संभवै नाहीं । एक अन्वयी ज्ञाता द्रव्य आत्मद्रव्य ठहरै तब संतान सत्य ठहरै सो क्षणिक पक्षमैं ऐसा है नाहीं । तातै क्षणिकएकान्तमत हितकारी नाहीं । जानै परलोक, बंध, मोक्ष न संभवै सो काहेका हितकारी है। जैसा नित्यत्व आदि एकान्त है तैसा ही यह है तातैं ऐसे मतकू परीक्षावान आदरै नाहीं ॥ ४१ ॥
आगैं इस क्षणिकएकान्तपक्षविर्षे सत्रूप कार्यका उपजना बनैं नाहीं । जो कहै तौ मतमैं विरोध आवै अर असत्रूप ही कार्य कहै तौ तामैं दोष दिखाबें हैं
आ०-४