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आप्त-मीमांसा।
४७ प्रति साधन न होय सो तौ अवस्तु ठहरै तब आत्माकी भी सिद्धि न होय । ऐसें नित्य एकान्तमैं दूषण दिखाया ॥ ३७ ।। ___ अब आज सांख्यमतवादी कहैं हैं कि हम अव्यक्तपदार्थ कारणरूप है ताकू सर्वथा नित्य मानें हैं । अर कार्यरूप व्यक्तपदार्थ है ताकू अनित्य मानें हैं तातै विक्रिया बनैं है । तहां व्यक्त कहिये जो पदार्थ काहूक निमित्तौं छिप्या होय ताका प्रकट होना ऐसी तौ अभिव्यक्ति अर नवीन अवस्था होना सो उत्पत्ति है । ऐसें व्यक्त पदार्थकू अनित्य मानि विक्रिया होती कहैं हैं तामैं दूषण दिखा3 हैं
प्रमाणकारकैर्व्यक्तं व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत् ।
ते च नित्ये विकार्य किं साधोस्ते शासनाद्वहिः ॥३८॥ अर्थ-नित्यत्वपक्षका एकान्तवादी सांख्यमती कहै-जो व्यक्त कहिये अभिव्यक्ति अर उत्पत्तिरूप हैं ते प्रमाण अर कारकनिकरि व्यक्त-प्रगट होय हैं। यहां दृष्टान्त कहैं हैं-जैसैं इन्द्रिय अपने विषयरूप पदार्थकू व्यक्त-प्रगट करै है तैसैं प्रमाणकारक व्यक्तपदार्थकू प्रगट करै है ताके निषेधकू आचार्य कहैं हैं जो हे भगवन् ! तिन नित्यत्वएकान्तवादीनिकै तौ ते प्रमाण अर कारक भी नित्य ही हैं । तातै सर्वथा नित्य कारणनितें अनित्य कार्य होय नाहीं । तातै ते वादी तुम्हारे साधु आप्तकै शासन मत” बाह्य हैं । तिनकै विकार्य कहिये अवस्था पलटनेरूप विकारस्वरूपकार्य कहां सिद्ध होय ? किछू भी सिद्ध न होय । जो नित्य प्रमाण कारकनि” अभिव्यक्ति, उत्पत्तिरूप व्यक्त पदार्थनिकू प्रगट भये कहैं तो बनैं नाहीं तथा तिन व्यक्तनिकै भी नित्यपणां आया चाहिये सो है नाहीं ऐसैं तिनकै नित्य एकान्तपक्षमैं विक्रिया न बनैं ॥ ३८ ॥ . ___ आगैं फेर वादी कहै-जो हम कार्य-कारणभाव मानें हैं तातैं हमारे किछू विरुद्ध नाहीं है ताकू आचार्य कहैं हैं-यह तो विना विचारया