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तीसरा-परिच्छेद ।
400आज अब नित्य, अनित्य पक्षका तीसरा परिच्छेदका प्रारंभ है ।
दोहा। नित्य अनित्य जु पक्षकी, कथनी का प्रारंभ ।
करूं नमूं मंगल अरथ, जिन-श्रुत-गणी अदंभ ॥ १ ॥ तहां प्रथम ही अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, पृथक्त्व-एकान्तका प्रतिषेधकरि स्थापन किया। अब याके अनंतर नित्यत्व, अनित्यत्व एकान्तके निराकरणका प्रारंभ है । तहां प्रथम ही नित्यत्वएकान्तविर्षे दूषण दिखावें हैं--
नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते ।
प्रागेव कारकाभावः क प्रमाणं क तत्फलम् ॥ ३७॥ अर्थ-नित्यत्वैकान्त कहिये कूटस्थ सदा एकसा रहै ऐसे वस्तुका अभिप्राय ताका पक्ष होते तिस कुटस्थवि विक्रिया कहिये परिणमनअवस्था” अन्य अवस्था होना ऐसी क्रिया तथा परिस्पन्द कहिये चलना-क्षेत्रतै अन्य क्षत्र प्राप्त होना ऐसी विविध अनेक क्रिया न बनैं । बहुरि कारक कहिये कर्ता कर्म आदिक तिनका कूटस्थमैं पहले ही अभाव है । अवस्था जाकी पलटै नाहीं तामैं कारककी प्रवृत्ति कैसैं बनैं । बहुरि जब कारकका अभाव ठहरया तब प्रमाण कहां अर प्रमाणका फल प्रमिति कहां ? । जातें प्रमाता कर्ता होय तब प्रमाण अर प्रमिति भी संभवै । अकारक प्रमाता होय नाहीं । जो काहू ही