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आप्त-मीमांसा ।
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अविद्याकै अध्यात्मपणेका प्रसंग आवै है । बहुरि ब्रह्मकुं जाने विना अविद्याकू कैसैं जानैं ? बहुरि ब्रह्मकू जाणे अविद्याका अनुभव विना बाधना न होय है जातै वस्तुभूत होय तब बाधा संभव है। बहुरि अविद्यावान पुरुष अविद्याकू निरूपण करनेकू समर्थ न होय ता” वस्तुके वर्तनकी अपेक्षा तौ अविद्या थपैं नाहीं जाते वस्तु विना अन्यविर्षे प्रमाणका व्यापार होय नाहीं । अर अविद्या वस्तु है नांहीं तातै अविद्याकै अविद्यापणांविर्षे असाधारण लक्षण ऐसा है जो 'प्रमाणकी बाधाकू सहवेकू समर्थ नाहीं, ऐसा जाका स्वभाव है सो अविद्या है' सो संसारीकै स्वानुभवकै आश्रय है तातैं अद्वैतवादीकै कछू दोष नाहीं आवै है । बहुरि द्वैतवादी संसारी है सो माया प्रपंच प्रमाण बाधित हैं ताकू अनेकप्रकार कल्पै है यातॆ द्वैतवादीकै अनेक दोष आचैं हैं ? ताकू कहिये-जो सकलप्रमाणसूं अतीत अविद्याळू अंगीकार करै सो काहेका परीक्षावान है । अविद्याकै भी कथंचित् वस्तुपणां मानि प्रमाणका विषयपणां मानें । प्रमाणतें सत् असत् का निश्चय करै सो ही परीक्षावान है । बहुरि शब्दाद्वैतवादका तथा संवेदनाद्वैतवाद एकान्तपक्षका भी ब्रह्माद्वैतपक्षके समान निराकरण जानना ॥ २७ ॥
आज कोई कहै-जो अद्वैत एकान्तका निराकरण किया है तो हम प्रथक्त्व-एकान्त अंगीकार करेंगे ताकू आचार्य कहैं हैं-जो ऐसे अवधारण मत करो जातै प्रथक्त्व-एकान्त भी बाधासहित है सो ही दिखावे हैं
पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक्तु तौ।
पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥ २८॥ अर्थ-पृथक्त्व कहिये पदार्थ सर्व भिन्न ही हैं ऐसा एकान्त पक्ष होते पृथक्त्वनामा गुणते गुण अर गुणी इन दोऊ पदार्थनिकै