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अनन्तकीर्ति - ग्रन्थमालायाम्
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अर्थ — ज्ञान है सो ज्ञेय वस्तुतैं सत्स्वरूपकरि भी जो भिन्न मानिये तौ दोऊ ही प्रकार असत्स्वरूप होय । ज्ञानतैं सत् भिन्न मानिये तब ज्ञान असत्रूप होय अर ज्ञेयतें सत् भिन्न मानिये तौ ज्ञेय असतूरूप होय है । बहुरि ज्ञानतैं ही सत् भिन्न मानिये तौ ज्ञानका अभावहोतैं ज्ञेयका भी अभाव ही होय जातैं ज्ञान ज्ञेयंका अविनाभाव तौ परस्पर अपेक्षातैं सिद्ध है सो एकका अभाव होतैं दूजेका भी अभाव होय । यातैं आचार्य कहैं हैं - हे भगवन् ! तुह्मारे द्वेषी जे सर्वथा एकान्तवादी तिनकै बाह्य अर अंतरंग जे ज्ञेय ते कैसैं ठहरें ? । बाह्य ज्ञेय तौ घट पट आदिक अर अंतरंग ज्ञेय जीवात्मा तथा ज्ञान आदिक इन सब - निका अभाव ठहरै । तातैं पृथक्त्व - एकान्त कहनेवाले बौद्ध तथा वैशेषिककूं यह लाहना ( प्रालम्भ - दूषण ) सत्यार्थ है ॥ ३० ॥ आगे बौद्धमती विशेषकरि दूषण दिखावैं हैं
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सामान्यार्थी गिरोsन्येषां विशेषो नाभिलप्यते । सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥ ३१ ॥
अर्थ — अन्येषां कहिये अन्य जे बौद्धमती तिनकै मत मैं गिरः कहिये वाणी- - वचन हैं सो सामान्यार्था: कहिए सामान्य है अर्थ जिनका ऐसे हैं ति वचननिकरि विशेष जो वस्तुका निजलक्षण सो नाहीं कहिए है । तिन बौद्धमतीनकै सामान्यके अभावतैं समस्त वचन हैं ते मिथ्या ठहर हैं । भावार्थ- बौद्ध ऐसैं मानैं है कि वचन तौ सामान्यमात्रकूं कहै है अर सामान्य वस्तुभूत नाहीं बुद्धिकार कल्पिये हैं अर वस्तुका स्वलक्षण है सो अनिर्देश्य है वचनगोचर नाहीं, ताकूं आचार्य कहें हैंजो सामान्य तौ वस्तुभूत नाहीं अर विशेष स्वलक्षण है सो वचनकै अगोचर है तो ऐसें वचन तौ तिनकै मतमैं सर्व ही मिथ्या ठहरै | अर वचन विना मत कैसै थापे है तातें तिनका मत भी झूठा ही है ॥३१॥