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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्क्षाकरि । बहुरि सत् पर्यायनयकी अपेक्षाकरि एक नाहीं है। यहां कोई कहै—द्रव्य तौ अनंत हैं एक द्रव्य कैसे कही ? ताको उचर ऐसो-जो परमसंग्रहनय एक सन्मात्रका ग्राहक है ताकी अपेक्षाकरि एक कहनेमैं दोष नाहीं । बहुरि कथंचित् जीवादिक वस्तु अनेक ही हैं जातें भेदरूप न्यारे न्यारे देखिये हैं। बहुरि क्रमकरि अर्पण किया जो एकपणां, अनेकपणां, ता” कथंचित् एकानेकस्वरूप है । बहुरि युगपत अर्पण किया जो एकपणां, अनेकपणां ताकरि कथंचित् अवक्तव्य है । तैसैं ही कथंचित् एकावक्तव्य, कथंचित् अनेकावक्तव्य अर कथंचित् एकानेकावक्तव्य है। ऐसैं सप्तभंगीप्रक्रिया योजनी । बहुरि जैसैं पूर्वं अस्तित्वकू नास्तित्त्वकरि अविनाभावी विशेषणपणां हेतुकरि साधारण कह्या था तैसैं यहां एकपणां, अनेकपणां आदि सप्तभंगीनिविर्षे भी अपणां प्रतिपक्षीनिकरि विशेषणपणां हेतु” अविनाभावी साधना । ऐसें एकत्त्व अनेकत्त्वनिकरि अनवस्थित जीवादिक वस्तु सप्तभंगीवाणीविर्षे प्राप्त किया कार्यकारी है। सर्वथा एकान्तविर्षे क्रमाक्रमकार अर्थक्रियाका विरोधहै तातै कार्यकारी नाहीं है ऐसे जानना ॥ २३॥
चौपाई। स्वामि समन्तभद्रकी वाणि, सप्तभंगकी विधिमय जाणि । सेवो रविकर सम भवि भरि, मिथ्यातमकू करि है दूरि ॥१॥
इति श्री आप्तमीमांसा नाम देवागम स्तोत्रकी संक्षेप अर्थरूप दश भाषामय वचनिका
विर्षे प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ।