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अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम्वास्तवमैं संभवै नाहीं । जातें कर्ता क्रिया आदिमैं तौ उपजना विनशना है सौ यह मानिये तो ब्रह्म अनित्य ठहरै अर द्वैतका प्रसंग आवै तथा उपजना, विनशना एकहीकै आपहीतै अन्य कारण विना होय नाहीं । यदि ये भेद अविद्यानै मानें तो अविद्याकू तौ अवस्तु मानें है अर अवस्तुकै कार्यकारणविधान संभवै नांहीं । बहुरि अविद्याकू यदि वस्तु मानें तौ द्वैतपणां आवै इत्यादि प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणतै विरोध आवै है ताकी चर्चा अष्टसहस्रीतें जाननी ॥ २४ ॥
आगैं इस अद्वैतपक्षविर्षे ही अन्य दूषण दिखावते सते आचार्य कहैं हैं
कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्याविद्याद्वयं न स्याहन्धमोक्षद्वयं तथा ॥२५॥ अर्थ-पूर्वोक्त अद्वैतएकान्तपक्ष” लौकिक अर वैदिक कर्म अथवा शुभ-अशुभकर्मका आचरण अथवा पुय-पाप कर्म ऐसा कर्मद्वैत न ठहरै । बहुरि कर्मद्वैतका फल भला-बुरा, सुखदुखका द्वैत न ठहरै । बहुरि फल भोगनेका आश्रय यह लोक न ठहरै । यदि यहां ऐसा कहै जो कर्म आदिका द्वैत अविद्याके उदयतें है तो तहां उत्तरमैं कहिये है कि धर्म-अधर्मका द्वैतका अभाव होते विद्याअविद्याका द्वैत संभवै नाहीं । बहुरि विद्या-अविद्या नाही तब बंधमोक्षके द्वैतका अभाव होय । बहुरि यदि विद्या-अविद्या भी कल्पित मानें तौ शून्यवादीकी कल्पना भी मानना ठहरै सो यह युक्त नाहीं । परीक्षाप्रधानी तौ परमार्थरूप किछू फल विचारि प्रवर्ते हैं । पुण्य-पाप, सुख-दुख, यहलोक-परलोक, विद्या-अविद्या, बंध-मोक्ष ऐसैं विशेषरहित तत्व तौ परीक्षावान आदरै नांहीं । शून्यवादकू कौन आदरै ? ॥ २५॥