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आप्त-मीमांसा |
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५ ॥
१३.
अर्थ – सूक्ष्म कहिये स्वभावकरि क्षीण परमाणु आदिक बहुरि अंतरित कहिये कालकरि जिनका अंतर पड़या ऐसे रामरावणादिक बहुरि दूरस्थ कहिये क्षेत्रकरि दूरवर्ती मेरू हिमवत् आदिक ये पदार्थ हैं ते कोईकै प्रत्यक्ष दृष्ट हैं जातैं यह अनुमेय हैं, अनुमान प्रमाणके विषै यह जैसे अग्नि आदिक पदार्थ अनुमानका विषय है सो कोई काकूं. प्रत्यक्ष भी देखे है तैसैं यह सूक्ष्म आदिक भी हैं । ऐसें सर्वज्ञका भले प्रकार निश्चय होय है । इहां कोई कहे – जे पदार्थ अनुमानके विषय हैं ते तो कोईकै प्रत्यक्ष हैं अर जे अनुमान गोचर ही नाहीं ते कैसे प्रत्यक्ष होय ! ताकूं कहिये – जो धर्मादिक पदार्थनिकूं अनुमानका विषय न मानिये तो सर्व ही अनुमानका उच्छेद होइ है । अर इहां धर्म अ पदार्थ विवाद मैं आये हैं तिनहीकूं साधिये हैं । अन्य पदार्थ विवादमैं न आये तिनकी चरचा नाहीं अर धर्मादिक पदार्थ हैं ते अनुमानके विषय हैं ही । जातैं ते अनित्यस्वभावरूप हैं । काहूकै. सुख होय जहां जानिये याकै पुण्यका उदय है । काहूकै दुःख होइ तहां जानिये याकै पापका उदय है । ऐसें अनुमानके विषय धर्मादिक पदार्थ हैं । तातैं कोईकै प्रत्यक्ष हैं ऐसें सर्वज्ञका अनुमानकीर फेर स्थापन किया ॥ ५॥
आगैं फेर मानूं भगवान पूछया — जो ऐसैं सामान्यपर्णै तौ सर्वज्ञ सिद्ध भया परन्तु ऐसा परमात्मा अरहन्त ही है ऐसा निश्चय कैसें : किया जातैं तुमारे हम ही महान् वदनांक ठहरें, ऐसे पूछें मानूं फेर आचार्य जैसे अरहंत ही सर्वज्ञ ठहरें ऐसा साधन कहैं हैं