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अनन्तकीर्ति-प्रन्ध्रमालायाम
ताः पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा तौ असत् ऐसा कह्या जाय है अर सत् असत् ये दोऊ एक काल है परन्तु एककाल कहे जाते नाही, तालें असत् अवक्तव्य है, ऐसे छट्टा भंग है। बहुरि कोई प्रकार सदसदवक्तव्य ही है । जातें सत् असत् ये दोऊ क्रमकरि कहे जाय हैं अर दोऊ एककाल कहे न जाय हैं तातें सदसदवक्तव्य ऐसा सातमां भंग है । ऐसें यह बक्तव्यावक्तव्यस्वरूप तीन भंग पूर्वोक्त च्यार भंगनितें न्यारे ही हैं । बहुरि तिनमैं सदसद् उभय इन तीनमैसूं एक न होय तो अवक्तव्य धर्म बणे नाही जाते तिन तीनकू होतें भी तिनकी विवक्षा न करते केवल एक न्यारा ही अवक्तव्य भंग कहनेमैं विरोध नाही है। ऐसैं इन भंगनिकी स्वमत परमत अपेक्षा संभव.की चरचा अष्टसहस्रीमैं है तहांतें जाननी ॥ १६ ॥
आगें कहैं हैं-जो वस्तुका स्वरूप अस्तित्व ही है, नास्तित्व वस्तुका स्वरूप नाही है सो परवस्तुके स्वरूपके आश्रय है, एक ही वस्तुकै आश्रय होनेमैं अतिप्रसंग दूषण आवै है, ऐसी तर्क होते आचार्य कहैं हैं
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि ।
विशेषणत्वात् साधर्म्य यथा भेदविवक्षया ॥ १७॥ अर्थ-अस्तित्व धर्म है सो एक धर्म जो जीव आदिक ताविर्षे प्रतिषेध्य जो [अस्तित्वकै] नास्तित्व ताकरि अविनभावी है। नास्तित्व विना अस्तित्व नहीं होइ, दोऊका भिन्न आधार नाहीं । जातें या अस्तित्व नास्तित्वकै विशेषणपणां है। जो विशेषण होइ सो एक धर्मिविर्षे अपना प्रतिषेध धर्मसूं अविनाभावी होइ । जैसैं हेतुका प्रयोगविर्षे साधर्म्य है सो भेदविवक्षा कहिये वैधर्म्य ताकरि अविनाभावी है। यह सर्व हेतुवादीनिकै प्रसिद्ध है। जहां अन्वय होइ तहां व्यतिरेक भी होय