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आप्त-मीमांसा ।
इष्ट अनिष्टकी व्यवस्था विनां कहूं ठहरना नांहीं । तातैं यहू भलै प्रकार कला हुआ बणै है जो सत्व असत्व एक वस्तु मैं न मानिये तौ स्वपरतत्वकी व्यवस्था न ठहरै तब सर्वथा एकान्ती कहूं ठहरै नाहीं || १५ || आगैं ऐसें प्रथम द्वितीय भंगका स्थापनकरि अब तृतीयादिक भंगनिकूं आचार्य निर्देश करे है
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क्रमार्पितद्वयाद्वैतं सहावाच्यमशक्तितः ।
अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥
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अर्थ - क्रमार्पित कहिये पहलै न्यारे न्यारे कहे जे सत् असत् ते दोऊ अनुक्रमतें कहतैं वस्तु द्वैत है । बहुरि सत् असत् ये दोऊ सह कहिये युगपत् एककाल अवाच्य कहिये कहने मैं न आवै तातैं युगपत् कहनेकी वचनकै सामर्थ्य नांहीं तातैं अवक्तव्य हैं । बहुरि शेषाः कहिये अवशेष जे तीनभंग अवक्तव्य है उत्तर पद जिनकैं ऐसें ते अपनें अपनें हेतुतैं लेणें। तहां अनुक्रमकरि अर्पण किया जो स्वरूपादि अर पररूपादिकका चतुष्टय द्रव्य क्षेत्र काल भावका द्विक तातैं तौ कोई प्रकार सत्-असत् ऐसा दोऊका एक भंग है। याकूं द्वैत ऐसा नाम कह्या सो द्वित शब्दपर स्वार्थविषै ' अण् ' प्रत्ययकार द्वैत शब्द निपजाया है । बहुरि अपना अर परका स्वरूपादिक चतुष्टय अपेक्षा एक काल कहनेंकी अशक्तितैं अवक्तव्य है । जातैं जिस प्रकार कहनेवाला पद तथा वाक्यका अभाव है । बहुरि वाका तीन भंग पांचमां छटमां सातमां सत् असत् उभय इनकै अवक्तव्य उत्तरपद लगाय अपने हेतुकै वशर्तें कहनें, ते कैसैं ? कोई प्रकार सत् अवक्तव्य ही है, जातैं स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा तौ सत् ऐसा वक्तव्य है परंतु सत् असत् ऐसे दोऊ एक कालवस्तुमैं हैं तातैं एक काल कहे नांहीं जाय हैं तातैं अवक्तव्य भी है, ऐसैं यहु पांचमां भंग है । बहुरि ऐसैं ही कोई प्रकार असत् अवक्तव्य भी है,