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आप्त-मीमांसा |
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प्रयोजन है । बहुरि कोई प्रकार कहनेंतें सर्वथाका निषेध भया सोहू फेर सर्वथा नांही ऐसा नियमके अर्थि वचन है । ऐसें प्रश्नके वशर्तें एक वस्तुविषै अविरोधकरि विधिप्रतिषेधकी कल्पनातें सप्तभंगकी प्रवृत्ति होइ है । ऐसें नयवाक्यमात्र ही है । विधिनिषेधके भंग सात ही हैं । इन अन्य नहीं होइ हैं । जो संयोग भंग कीजिये तौ इमही मैं अंतर्भूत होइ हैं तथा कोई पुनरुक्त होइ हैं । बहुरि यह सातप्रकार बस्तु धर्म है -असत् कल्पनां नांहीं है | इनहीतैं वस्तुका यथार्थ ज्ञान अर वस्तुकै अर्थक्रियारूप प्रवृत्तिका निश्चय होइ है । इनमें सत् असत् अवक्तव्य ये तीन भंग तौ एक एक ही हैं बहुरि सत्-असत् क्रमकरि कहना, अर सदवक्तव्य, असदवक्तव्य ये तीन द्विसंयोगी हैं, बहुरि सत्-असत्-अवक्तव्य यह एक त्रिसंयोगी है । सत्, असत्, सत् असत् — क्रमकरि कह्नां ये तीन तो वक्तव्य भये अर एक अवक्तव्य का ऐसें चार तो ये अर वक्तव्य अवक्तव्य का संयोग भंग करनेंतैं तीन फेर भये ऐसैं सात भंग भये हैं । इहां सत् आदि शब्द हैं ते तौ अनेकान्तके वाचक हैं अर कथंचित् शब्द है सो अनेकान्तका द्योतक है. बहुरि याकै आगें एवकार शब्द है सो अवधारण कहिये नियमकै अर्थि हो है । बहुरि यह कथंचित् शब्द है सो याका पर्य्यायशब्द स्यात् ऐसा है । सो सर्व वचननि परि लगाइये हैं ऐसो जहां याका प्रयोग नांहीं होइ तहां भी जे स्याद्वाद न्याय में प्रवीण हैं ते सामर्थ्यं जाणि ले
| स्यात् शब्द विनां सर्वथा रूप ही वस्तु है इत्यादि कहने मैं अनेक दोष आवै है तिनकी चरचा टीकातैं जाननीं ॥ १४ ॥
आगैं पहली कारिकामैं नययोग कला सो अब पहले दूसरे भंगविष नययोग दिखावै हैं