Book Title: Aapt Mimansa
Author(s): Jaychand Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 41
________________ १६ __ अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालायाम् अभिमानकरि दग्ध हैं तिनका मान्यां स्वेष्टतत्व है सो सर्वथा सत्, सर्वथा असत, सर्वथा एक, सर्वथा अनेक इत्यादिक है सो दृष्ट कहिए प्रत्यक्ष प्रमाणकरि बाध्या जाय है । जाते सकल बाह्य अंतरंग वस्तु है सो अनेकान्त स्वरूप है। समस्त जगतके जीविनके अनुभवमैं ऐसा ही आवै है तातें हम भी सर्वथा एकान्त रूप नाही देखे हैं। ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाणकरि बाधित है ॥७॥ आज आशंका उपजै है-जो सर्वथा एकान्त वादीनिकै भी शुभाशुभरूप कुशलाकुशल कर्मकी बहुरि परलोककी प्रसिद्धि है। यातें आप्तपणां है तातै महान्पणां स्तुति योग्य क्यों नाहीं, ऐसी आशंका होतें आचार्य कहैं हैं कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु नाथः स्वपरवैरिषु ॥ ८॥ अर्थ-हे नाथ ! जो सर्वथा एक न्तके कहनैमैं आसक्त हैं अथवा सर्वथा एकान्तरूप पिशाचकै वशीभूत जिनका अभिप्राय है तिनविर्षे कुशल कहिए कल्याणरूप शुभकर्म अर अकुशल कहिए अकल्याणस्वरूप अशुभकर्म बहुरि परलोक तथा परलोकका कारण धर्माधर्म, बहुरि मोक्ष आदिक एकान्तहू नाही संभव है, जाते कैसे हैं ते स्त्र कहिये आपके अर परके वैरी हैं, जैसे शून्यवादी सर्वथा वस्तुकू शून्य मांनि आपका अर परका नाश करै है तैसैं हैं । तहां स्व तौ कहा अर पर कहा सो कहैं हैं -पुण्यरूप तथा पापरूप तो कर्म अर ताका फल सुखदुःखरूप कुशलाकुशल, अर तिसका संबंधरूप परलोक ये तौ स्व हैं जातें इनकू सर्वथा एकान्तवादी मानै है बहुरि पर तिनकै अनेकान्त है जाते तिन. अनेकान्त मान्या नांहीं। बहुरि अनेकान्तका ते निषेध करै हैं। तात ते अनेकान्तके वेरी हैं । सो यह परका वैरीपणां हे

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