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आप्त-मीमांसा ।
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सो ही आपकै वैरी पणांकूं साधै है । जातैं अनेकान्त न मान्या तब सर्वथा सतुरूप तथा सर्वथा असत्रूप तथा सर्वथा नित्यरूप तथा सर्वथा अनित्यरूप ऐसा तत्व माननां तब ऐसैं वस्तुमै अर्थक्रियाका अभाव सिद्ध होइ है अर अर्थक्रिया विना पुण्य-पाप कर्म आदिक नांहीं सिद्ध होय तब अनेकान्त मान्यां विना पुण्यपाप आदिकी सिद्धि न होइ तब परकै वैरीपणांतें आपणां वैरीपणां सिद्ध भया ऐसें सर्वथा एकान्तवादीनिकै प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणकरि विरुद्ध भाषीपणां है यातैं अज्ञानादि दोषनिकी सिद्धि है तातैं आप्तपणां बजैं नांही यातैं हे भगवन् ! तुम अरहन्त ही सर्वज्ञ वीतराग युक्तिशास्त्रतैं अविरोधी वचनपणांकरि निर्दोष हो, ऐसा निश्चयकरि तत्वार्थ शासनका आरम्भविषै मुनिननैं तुमकूं स्तवन गोचर किये हैं जातैं तुम ही तत्वार्थ शासनकी सिद्धिके कारण हो ॥ ८ ॥
आगैं भगवान् मानूं फेर पूछें हैं— जो हे समन्तभद्र ! पदार्थनिका भाव ही है, अभाव नांहीं, ऐसा निश्चय होतैं प्रत्यक्षानुमानतैं विरोधका अभाव है या भाव - एकान्तवादी निकै निर्दोषपणांकी सिद्धितैं आप्तपणां बर्णे है । तातैं तिनकै स्तुति योग्यपणां होहू ऐसें पूछें मानूं फेर आचार्य कहै है—
भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥ ९॥
अर्थ — हे भगवन् ! पदार्थनिकै भाव एकान्त होतैं अभावनिका लोप भया यातैं सर्वात्मक अनाद्यन्त ऐसा ठहन्या सो ऐसा वस्तुका निजरूप नांही सो तुमारा मत नांही । तहां सांख्यमत मैं तौ पदार्थ पेचीस
१ मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ १ ॥
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