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आप्त-मीमांसा |
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है। क्योंकि अन्योन्याभाव न मानैं तब जब केवल भाव मानें काहूका निषेध न होइ तब एकरूप तत्व ठहरै, सो है नाहीं । वेदान्तवादी तौ सत्तामात्र एक ब्रह्मकं तत्त्र मानें हैं, अर विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धमती वि ज्ञानमात्र एक तत्व मानैं हैं, अर भेदभावकूं अविद्यारूप भ्रमरूप अवस्तु म है सो ऐसा तत्व काहू प्रकार सिद्ध होइ नाहीं तातैं सो तुम्हारा अरहम्तका मत नांहीं जातें तुम्हारा मतमैं कथंचित् अभावका लोप नाहीं ॥ ९ ॥ आगें घटादिककै बहुरि शब्दादिककै प्राग्भाव अर प्रध्वंसाभावका लोप कहनेवाला वादीकै दूषण दिखावते संते कहै हैं—
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्राग्भावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥ १० ॥
अर्थ - प्राग्भाव कहिए कार्यके पहले न होना ताका निन्हव कहिये लोप ताकै होतैं कार्यद्रव्य कहिये घट आदिक तथा शब्दादिक वस्तु सो अनादिके ठहरै सो ऐसे हैं नाहीं यह दोष आवै । बहुरि प्रध्वंस कहिए कार्यका विघटनांनामा धर्म ताका प्रच्यव कहिये लोप होतैं कार्यद्रव्य है सो अनन्तताकूं प्राप्त होइ अविनाशी ठहरै सो है नांहीं यहु दोष आवै है । तहां घटादि कार्यद्रव्यकै अनादिता तथा अनन्तताका प्रसंगका उदाहरण तौ सांख्यमतकी अपेक्षा है बहुरि शब्दादिक कार्यद्रव्यकै अनादिता तथा अनन्तताका प्रसंगका उदाहरण मीमांसकमतकी अपेक्षा है इनकी चर्चा अष्टसहस्री टीकातैं जाननी ॥ १० ॥ आर्गे इतरेतराभाव अर अत्यंताभावके न माननेवाले वादीनिकै दूषण दिखावनेकी इच्छाकरि आचार्य कहें हैं-
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सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥। ११ ॥