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अनन्तकीर्ति प्रन्थमालायाम्
त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न वाध्यते ॥ ६॥ अर्थ - हे भगवन् ! स कहिए सो पूर्वोक्त निर्दोष कहिए आवरण अर अज्ञानरागादिक तिनतैं रहित ऐसा सर्वज्ञ वीतराग तुम ही हो,
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कैसे हो तुम ? युक्ति अर शास्त्र इन दोऊन विरोध रहित अविरोधि हैं वचन जिनके ऐसे हो । जैसैं कोई श्रेष्ठ वैद्य होइ तैसैं । इहां भगवान मानूं फेर पूछया — जो हे समन्तभद्र ! हमारे वचन युक्ति - शास्त्रतैं अविरोधी कैसैं निश्चय किये ? तहां आचार्य फेरि कहैं हैं — हे भगवन् ! जो तुमारा का इष्ट तत्व मोक्ष अर मोक्षका कारण, संसार अर संसारका कारण यह है सो प्रसिद्ध जो प्रमाण ताकरि नांही बाधिये हैं । जो प्रमाणकरि नाहीं बाध्या जाय सोई युक्तिशास्त्राविरोधी । इहां वैद्यका दृष्टान्त श्लोक मैं नांही है तौऊ आचार्य स्वयंभू स्तोत्रमैं आप कह्या है तातैं अष्टसहस्त्री टीका मैं का है । वैद्यभी रोग अर रोगकी निवृत्ती अर तिनके कारणविषै निर्बाध प्रवर्त्ते है, ऐसैं वैद्यका दृष्टान्त हैं। तहाँ मोक्षादितत्व निर्बाध कैसे हैं सो दिखावैं हैं — प्रथम तौ भगवान अरहंतका भास्या मोक्षतत्व है सो प्रमाणकरि बाध्या न जाय है । इन्द्रियजनित प्रत्यक्ष प्रमाणका तौ मोक्ष विषय ही नाहीं बाधक कैसे होय, बाधक साधक होय, सो अपने विषयहीका होय । बहुरि अनुमान अर आगमकरि मोक्षका अस्तित्वका स्थापन है ही, कहूं दोष आवरणका अत्यन्त अभाव भये अनन्त ज्ञानादिकका लाभ सो मोक्ष अनुमान आगमतैं प्रसिद्ध है । तैंमैं ही मोक्षका कारणतत्व सम्य 1 दर्शन - ज्ञान- चरित्र हैं ते भी प्रमाणकीर सिद्ध हैं । जातैं कारण विना कार्यका न होनां प्रसिद्ध है । बहुरि संसारतत्व है सो भी प्रमाणकरि बाध्या न जाय है । अपने उपजाये कर्मकै वशतैं आत्माकै एक भवतैं
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