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आप्त-मीमांसा |
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आगमाश्रित ही है । इहां कहै – जो प्रमाणसंप्लव के माननेवाले अनेक प्रमाण सिद्ध मानैं हैं । इहाँ आगम प्रमाण सिद्ध भया सोई आगमाश्रित हेतुजनित अनुमानतैं सिद्ध भया यामैं दोष कहा ? ताकूं कहिएऐसें प्रमाणसंप्लव इष्ट नाहीं है, प्रयोजन विशेष होय तहाँ प्रमाणसंप्लव इष्ट है । पहलें प्रमाण सिद्ध प्रामाण्य आगमतें सिद्ध भया तौऊ ताका हेतुकूं प्रत्यक्ष देखि अनुमानतैं सिद्ध करे पीछें ताकूं प्रत्यक्ष जाणै तहाँ प्रयोजन विशेष होय है ऐसैं प्रमाणसंप्लव होय है । केवल आगमहीतैं तथा आगमाश्रित हेतुजनित अनुमानतैं प्रमाण कहि काहेकूं प्रमाणसंप्लव कहनां ऐसें इस विग्रहादिक महोदयतैं भी भगवान परमात्मा नाहीं मानैं हैं ॥ २ ॥
आगै फेरि मानूंं भगवान् पूछै है जो हमारा तीर्थकृत संप्रदाय हैमोक्ष मार्गरूप धर्मतीर्थ हम चलायें हैं इस हेतुतैं हम महान् स्तुति करनें योग्य हैं । ऐसें पूछें फेरि आचार्य साक्षात् ही कहै है ।— तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः ।
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सर्वेषामप्तता नास्ति कश्विदेव भवेद्गुरुः ॥ ३॥
अर्थ - हे भगवन् ! तीर्थ कहिये जाकीर तरिये ऐसा धर्ममार्ग ताकूं करै ते तीर्थकृत् तिनके समय कहिये मत तथा आगम तिनकै परस्पर विरोध है तातैं सर्वहीकै आप्तपणां होइ नांही । तिनमैं कोई एक गुरु महान् स्तुति करनें योग्य होइ ।
भावार्थ - हे भगवन् आप्त ! तुमारे तीर्थंकरपणां हेतुतैं महानूपणां साधिये तौ यह तीर्थकरपणां प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणतैं तौ सिद्ध होइ नांही । प्रत्यक्ष दीखै नांही तथा ताका लिंग दीखै नांही । अर आग• मतैं साधिये तौ पूर्ववत् आगम- आश्रय ठहरै । बहुरि यहु हेतु व्यभिचारी है तातैं इन्द्रादिकविषै असंभवी है तौऊ बौद्धादि अन्यमती