Book Title: Tulsi Prajna 2001 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA वर्ष 29 • अंक 111-112 0 जनवरी-जून, 2001 Barch Quarterly अनुसंधान त्रैमासिकी जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (मान्य विश्वविद्यालय) JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN Jain Edlication (DEEMED UNIVERSITY)Private & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ qarit URIT TULSI PRAJNA Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL.-111-112 JANUARY-JUNE, 2001 Patron Prof. B.C. Lodha Vice-Chancellor Executive-Editor & Editor in Hindi Section Dr. Mumukshu Shanta Jain English Section Dr. Jagat Ram Bhattacharyya Editorial-Board Dr. Mahavir Raj Gelra, Jaipur Prof. Satyaranjan Banerjee, Calcutta Dr. R.P. Poddar, Pune Dr. Gopal Bhardwaj,Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun Dr. Bachh Raj Dugar, Ladnun Dr. Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr. J.P.N. Mishra, Ladnun Publisher: Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306 Remote Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL. 111-112 JANUARY-JUNE, 2001 Editor in Hindi Dr. Mumukshu Shanta Jain Editor in English Dr. Jagat Ram Bhattacharyya Editorial Office Tulsi Prajna, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun-341 306 (Rajasthan) Publisher : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun-341 306 (Rajasthan) Type Setting: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University) Ladnun-341 306 (Rajasthan) Printed at : Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302015 (Rajasthan) Subscription (Individuals) Annual Rs. 100/-, Three Year 250/-, Life Membership Rs. 1500/- Subscription (Institutions/Libraries) Annual Rs. 2001 The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका/Contents विषय लेखक पृष्ठसंख्या 1. समाज व्यवस्था और धर्म के प्रयोग आचार्य महाप्रज्ञ 1-4 2. जैन दर्शन में क्रियावाद का दार्शनिक स्वरूप साध्वी गवेषणा 5-17 3. जैन दर्शन में सूक्ष्म जीवों की स्थिति डॉ. अनिल कुमार जैन 18-30 4. श्वेताम्बर जैनग्रन्थद्रव्यानुयोग तर्कणा में डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी 31-36 पर्याय का स्वरूप 5. प्राकृत भाषा : स्वरूप, विमर्श एवं विकास डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव 37-48 6. हास्यार्णव प्रहसनम् हास्य रस की पृष्ठभूमि में डॉ.गोपाल शर्मा 49-56 7. शिक्षा में मूल्यों की प्रतिष्ठा सुरेश पंडित 57-60 8. जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मूल्य चिन्तन समणी सत्यप्रज्ञा 61-66 9. ऋषभायणः भारतीय संस्कृति के आदि जतनलाल रामपुरिया 67-90 सर्ग की दिव्य परिक्रमा 10. पराशर स्मृति में अहिंसा डॉ. बच्छराज दूगड़ 91-95 11. पर्यावरणीय चिन्तन आचार्य महाप्रज्ञ प्रो. नलिन शास्त्री 96-101 के साहित्य में 12. अखण्ड मानवता का आन्दोलन-अणुव्रत प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र 102-107 13. पुनर्जन्म और जाति स्मृति साध्वी जतनकुमारी 108-117 14. राष्ट्रीय परिसंवाद 118-122 15. Economic of Mahaveer Prof. H.C. Singi 123-126 16. Moral and Personal values in 3 Rashmi Dhar 127-130 Human Behaviour 17. Education and Religion Prof. Musafir Singh 131-139 Asutosh Pradhan Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि जैन विश्वभारती मान्य विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया का स्वर्गवास जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के कुलाधिपति श्रीमान् श्रीचन्दजी रामपुरिया का दिनांक 27 जुलाई, 2001 को कोलकाता में देहावसान हो गया। वे 94 वर्ष के थे। सुजानगढ़ (राजस्थान) में जन्मे रामपुरियाजी ने बी.ए., एल.एल.बी. करने के पश्चात् कोलकाता में वकालात प्रारम्भ की। किन्तु वंशपरम्परा से मिले आध्यात्मिक संस्कारों और आचार्यश्री तुलसी की प्रेरणा और निकट सन्निधि से उनकी जीवनधारा धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधियों की ओर उन्मुख हो गई। उन्होंने जैन-दर्शन एवं तेरापंथ-धर्म के सिद्धान्तों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। भगवान महावीर, गीता, गांधी और भिक्षु पर कलम चलाई, उनके सिद्धान्तों, उपदेशों और विचारों का अनुसन्धान, अनुशीलन एवं सम्पादन किया। अहिंसा, अनेकान्त आदि विषयों पर देश एवं विदेश के उद्भट विद्वानों द्वारा लिखित सामग्री का आपने अद्भुत संकलन किया। जैन विश्वभारती के वर्द्धमान ग्रन्थागार में संग्रहीत दुर्लभ हजारों अमूल्य एवं अप्राप्य ग्रन्थ उनके संग्रह कौशल के जीवन्त प्रमाण है। ____ आपकी विद्वत्ता का अंकन कर जैन समाज ने आपको जैन विद्या मनीषी', 'जैन रत्नम', जैसे अलंकरणों से अलंकृत किया । तेरापंथ समाज के उत्थान एवं विकास में आप द्वारा किये गये विशिष्ट प्रयास के लिए समाज ने अपने सर्वोच्च अलंकरण 'समाजभूषण' से आपको विभूषित किया । तेरापंथ दर्शन एवं आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में आपकी प्रखर क्षमता का अंकन कर आचार्यश्री तुलसी ने आपको तेरापंथ प्रवक्ता के सम्बोधन से सम्बोधित किया। छोटा कद, दुबली पतली काया किन्तु अदम्य आत्मबल, सतत् अध्यवसाय, बौद्धिक विनयशीलता एवं जागृत प्रज्ञा के धनी श्री रामपुरियाजी का ग्रन्थों से घिरा एक निर्ग्रन्थ व्यक्तित्व था। उनकी संवेदनशीलता, परोपकारिता, साधर्मिकता, व्यवहार कुशलता और सहयोगिता ने पास आने वाले हर व्यक्ति को स्नेह और सम्मान दिया बिना जाति, धर्म, पन्थ, वर्ग, लिंग का भेद किए। उन्होंने जीवनभर अनेकान्त का जीवन जीया । उनमें तर्क और श्रद्धा का समन्वय था । अनेक उपाधियों से जुड़कर भी अहं उन्हें छू नहीं सका था । ज्ञानवृद्ध एवं अनुभववृद्ध श्री रामपुरियाजी का सम्पूर्ण जीवन जैन समाज के लिए प्रेरणा और श्रद्धा का सेतुबन्ध बन गया। ___आपने जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष एवं मंत्री पद पर अनेक वर्षों तक आसीन रहकर गुरुत्वपूर्ण दायित्व निभाया। जैन विश्वभारती की स्थापना, विकास और उसकी गतिविधियों के संचालन में आपका आत्मीय योगदान रहा। आप जैन विश्वभारती संस्थान के कुलपति रहे । जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय की परिकल्पना, स्थापना और उसके अर्थतन्त्र की समृद्धता में आपका अद्वितीय योगदान रहा। आप इस विश्वविद्यालय की स्थापना से लेकर अन्तिम समय तक इसके कुलाधिपति पद को सुशोभित करते रहे। ____ आपके देहावसान से पूरा जैन शासन, तेरापंथ धर्मसंघ और संस्थान-परिवार एक अप्रतिम व्यक्तित्व के कुशल नेतृत्व एवं श्लाघनीय सेवाओं से वंचित हो गया। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) परिवार अपने कुलाधिपति की दिवंगत आत्मा के प्रति सादर श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है और उनके आध्यात्मिक ऊर्ध्वारोहण के लिए मंगल कामना करता है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन-दिशा समाज व्यवस्था और धर्म के प्रयोग -आचार्य महाप्रज्ञ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—ये धर्म के पांच प्रयोग हैं। धर्माराधना के क्षेत्र में इनका सर्वोपरि मूल्य है। सामाजिक क्षेत्र में भी इनका मूल्य कम नहीं है। अहिंसा का धार्मिक मूल्य है असत् प्रवृत्ति का संयम और सत् प्रवृत्ति का विकास । उसका सामाजिक मूल्य है-समाज व्यवस्था को भंग करने वाली घटना पर नियंत्रण | अहिंसात्मक प्रतिरोध के द्वारा अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। महात्मा गांधी ने अहिंसात्मक प्रतिरोध की पुरानी परम्परा को नया रूप दिया और वह राजनीति के क्षेत्र में भी प्रतिष्ठित हुई। मार्क्स ने साधनशुद्धि को अनिवार्य नहीं माना । उन्होंने साधन के चुनाव को सामाजिक या शक्ति की दृष्टि से देखा । उन्हें ऐच्छिकता में साध्य की प्राप्ति संभव नहीं लगी, इसीलिए हिंसात्मक नियंत्रण को बहुमूल्य दिया। हिंसा का परिणाम अहिंसा नहीं हुआ। व्यक्तियों की आपसी हिंसा ने सामुदायिक व्यवस्था को विखण्डित कर दिया। अपरिग्रह का आध्यात्मिक मूल्य है-इच्छाजनित क्लेश से मुक्ति । उसका सामाजिक मूल्य है सम्पत्ति के वैयक्तिक प्रभुत्व का समाजीकरण | उसे स्पष्ट करना आवश्यक है। अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्त से फलित नहीं होते। उनकी सिद्धि के लिए चेतना का रूपान्तरण आवश्यक है। अहिंसा की चेतना केवल वैचारिक परिवर्तन नहीं है। वह अभ्यास और प्रयोग से होने वाला परिवर्तन है। प्रयोग के सूत्र ये बन सकते हैं 1. हिंसा के परिणाम का दीर्घकालिक चिन्तन और ऐतिहासिक विश्लेषण | 2. प्राणी-मात्र की एकता की भावना से चित्त को भावित करना । 3. दूसरों पर अधिकार स्थापित करने की मनोवृत्ति ही मानवीय एकता का सबसे बड़ा विघ्न है : इस भावना से चित्त को भावित करना। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITINI VITITION 1 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह की चेतना को जगाना अहिंसा से भी ज्यादा कठिन है। हिंसा का सबसे बड़ा कारण परिग्रह अथवा संग्रह है। क्रोध, अहंकार और माया इन्हें छोड़ना कठिन है। लोभ को छोड़ना कठिनतर है। प्रयोग के बिना अलोभ की चेतना को जगाया नहीं जा सकता । प्रयोग के सूत्र ये बन सकते हैं 1. संग्रह से होने वाले कुपरिणामों का पुनः पुनः चिन्तन । 2. आसक्ति से होने वाले मनोकायिक रोगों का पुनः पुनः चिन्तन । 3. अधिक संग्रह से होने वाली सामाजिक प्रतिक्रियाओं और हिंसात्मक उत्तेजनाओं का पुनः पुनः चिन्तन। 4. आसक्ति अथवा मूर्छा को कम करने के लिए संकल्प और सुझाव का प्रयोग। 5. त्याग की चेतना को जागृत करने वाले प्रयोग। असत्य, अस्तेय और अब्रह्मचर्य-ये आत्म-साधना के ही विघ्न नहीं हैं, ये समाज व्यवस्था के भी कण्टक हैं। समाज की सुव्यवस्था के लिये पांच अणुव्रत अनिवार्य है अहिंसा - अनावश्यक हिंसा का वर्जन। सत्य - समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले असत्य का वर्जन । अस्तेय- व्यावसायिक और आपराधिक चोरी का वर्जन। अपरिग्रह- इच्छा का परिमाण, व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा। ब्रह्मचर्य-काम वासना का संयम। ये व्रत आध्यात्मिक विकास के लिए जितने उपयोगी हैं, समाज व्यवस्था के लिए भी उतने ही उपयोगी हैं। इनकी उपयोगिता को अस्वीकार करने वाले समाज में व्यक्ति सुखशांति से नहीं जी सकता। हर मनुष्य में हिंसा और अहिंसा, सत्य और मिथ्यावाद, चौर्य और अचौर्य, अब्रह्मचर्य और ब्रह्मचर्य, परिग्रह और अपरिग्रह - दोनों प्रकार के बीज विद्यमान हैं। इनका अंकुरण कारण सामग्री सापेक्ष है। कारणों की मीमांसा प्राचीनकाल में भी की गई है । वर्तमान के वैज्ञानिकों ने कुछ नई खोजें भी की हैं। उनके अनुसार नाड़ीतंत्र, ग्रंथितंत्र और जैवरसायन हिंसा और अहिंसा के बीजों को अंकुरित करने में निमित्त बनते हैं। सामान्य धारणा यह है साम्प्रदायिक कटुरता के कारण साम्प्रदायिक हिंसा होती है। वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार, साम्प्रदायिक कट्टरता मस्तिष्कीय विकार अथवा मस्तिष्कीय रोग है। मस्तिष्क विद्या के अनुसार मस्तिष्क की तीन परतें हैं ___ 1. लिम्बिक सिस्टम, 2. रेप्टेलियन मस्तिष्क, 3. निओ-कार्टेक्स 2 STILI TI TITIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेप्टेलियन मस्तिष्क का प्रभाव अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ मानने और दूसरे सम्प्रदाय को हीन मानने की भावना को जन्म देता है। घृणा और द्वेष के बीज भी उससे अंकुरित होते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति पाने का मार्ग है मस्तिष्कीय शक्ति का सम्यक् विकास, विस्तार और उपयोग। हिंसा की जड़ें कहाँ हैं? इस प्रश्न का दार्शनिक उत्तर होगा-हिंसा की जड़ वृत्ति में है, कर्म-संस्कार में है। जीव वैज्ञानिक मानते है-हिंसा की जड़ जीन में है। जीन को हर अच्छेबुरे गुण के लिए जिम्मेदार माना जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हिंसा का जन्म न मनोवैज्ञानिक कारण से होता है और न जीन के कारण। इसका कारण रासायनिक परिवर्तन है। अमेरिका वैज्ञानिकों ने इस पर काफी खोज की है। इससे कई रोचक नतीजे सामने आए हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि हिंसा का कारण पुरुष यौन हार्मोन टेस्टोस्टेरोन हैं। जिन पुरुषों में इनकी मात्रा सामान्य से अधिक होती है, उनकी प्रवृत्ति हिंसात्मक होती है। इसी प्रकार सीरोटोनिन वह रसायन है, जो मस्तिष्क में शांति का संदेश फैलाता है। इसका एक उपउत्पाद 5 एच.आई.ए.ए. नामक रसायन, जो रीढ़ की हड्डी में द्रव रूप में पाया जाता है। इसे मापकर यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति में हिंसात्मक प्रवृत्ति किस हद तक पनप चुकी है लेकिन इस रसायन को निकालना बड़ा कठिन है, क्योंकि रीढ़ की हड्डी से द्रव निकालने में असहनीय दर्द होता है। इसी वजह से यह खोज आगे नहीं बढ़ पा रही है। अगर निकट भविष्य में कोई बात बन गई तो शायद हिंसा का रसायनिक उपचार सामने हो। हिंसा का उपचार आवश्यक है। आज कोई भी अकेला व्यक्ति, अकेली विद्याशाखा और अकेली समाज-प्रणाली हिंसा की बीमारी का उपचार नहीं कर सकती । धर्मगुरु के पास हिंसा को कम करने का प्रयोग है तो उसका स्वागत है। किसी रसायन-वेत्ता वैज्ञानिक के पास उसका उपचार है तो उसका भी स्वागत है। समाजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने वाले समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री के पास उनका उपचार है तो उनका स्वागत है। किसी मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक के पास उसका उपचार है तो उनका भी स्वागत है। यह अनुभव-प्रसूत विश्वास के साथ कहा जा सकता है यदि अध्यात्म और विज्ञान, अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का परिवर्तन इन सबका सामूहिक प्रयत्न हो तो हिंसा की बढ़ती हुई प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाया जा सकता है। हिंसा और आतंक की छाया में जीने वाला समाज कभी स्वस्थ नहीं रह सकता । भय का तनाव बराबर बना रहता है। अभय और स्वास्थ्य में निकट का संबंध है। हिंसा धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है। अनावश्यक हिंसा सामाजिक दृष्टि से भी वांछनीय नहीं है। वर्तमान परिस्थिति में अहिंसा के संस्कार का निर्माण करने का दायित्व सबसे ज्यादा शिक्षा पर है। वर्तमान की शिक्षा प्रणाली में बौद्धिक, व्यावसायिक और यांत्रिक विकास के लिए बहुत कुछ तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NT 001y 3 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है किन्तु संस्कार निर्माण के लिए कुछ भी नहीं है अथवा कुछ है तो वह नगण्य है। इस समस्या पर समाज, राजनीति और शिक्षा क्षेत्र के चिन्तकों और कार्यकर्ताओं का समन्वित ध्यान आकृष्ट होना चाहिए। इस विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए जीवन-विज्ञान का विकल्प प्रस्तुत किया गया है। जहां जहां उसके प्रयोग हुए हैं, वहां वहां लक्ष्य की पूर्ति में सफलता मिली है। छात्र-छात्राओं में अहिंसा, मानसिकशांति, तनावमुक्ति, नशामुक्ति, पारस्परिक सामंजस्य और स्वास्थ्य का विकास देखने को मिला है। यह अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का प्रयोग है। कोरा अध्यात्म और कोरा विज्ञान दोनों एकांगी है। वे अलग-अलग रहकर जीवन की समग्रता को सिंचन नहीं दे सकते। जीवन के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से इन दोनों का समन्वय बहुत उपयोगी हो सकता है। INITITI V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में क्रियावाद का दार्शनिक स्वरूप --- साध्वी गवेषणा जिज्ञासा मानव मन की सहज प्रवृत्ति है। जिज्ञासु मन जानना चाहता है कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? किस दिशा-विदिशा से आया हूं? कहां जाऊंगा? मृत्यु के बाद क्या होगा? यही दर्शन का उद्गम है। कोऽहं और सोऽहं, ये दो सूत्र आत्मवादी दर्शन के नेत्र रूप हैं। कोऽहं अस्तित्वमूलक जिज्ञासा का सूचक है, सोऽहं अस्तित्व या स्व स्वरूप की सत्ता का प्रत्यक्ष बोध है। जिसके द्वारा वस्तु के वास्तविक स्वरूप का निर्णय किया जाता है वह दर्शनशास्त्र है। 'दृश्यते निर्णीयते वस्तु तत्त्वमनेनेति दर्शनम्' तत्त्वों के निर्णय में दर्शन प्रयोजक है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मानव-जिज्ञासावृत्ति यौवन की देहलीज पर पहंच चुकी थी। विश्व की मूल सत्ता, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता और शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल आदि प्रश्नों पर विचारक अपने-अपने मन्तव्यों की पुनर्स्थापना कर रहे थे। अनेक स्वतंत्र दार्शनिक अवधारणाएं अस्तित्व में आ रही थी। दार्शनिक विवाद भी बढ़ रहा था। प्राचीन भारतीय विचारक चिन्तन के लिये किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुसरण करने को बाध्य नहीं थे। यही कारण है कि उनके मन्तव्यों में एकरूपता नहीं आ सकी। विभिन्न वादों की धाराएं प्रवाहित होती रही। चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त शेष समस्त भारतीय अध्यात्मवादियों का केन्द्र आत्मा रही है। आत्मा के अस्तित्व का जहां तक प्रश्न है, भारतीय दार्शनिक एवं पाश्चात्य दार्शनिक जैसे प्लेटो, अरस्तु, सुकरात, देकार्त, लॉक, वर्कले, मेक्समूलर, शोपेनहावर आदि सभी एक मत हैं। मत वैभिन्य है आत्मा के स्वरूप और नित्यत्व-अनित्यत्व के सम्बन्ध में। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITI 5 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्रों में विभिन्न वादों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया है— (1) क्रियावाद, (2) अक्रियावाद, (3) विनयवाद, (4) अज्ञानवाद । आचारागं,' सूत्रकृतांग में भी इन चार वादों का उल्लेख है। नियुक्तिकार ने अस्ति (आस्तिकता) के आधार पर क्रियावाद, नास्ति (नास्तिकता) के आधार पर अक्रियावाद का निरूपण किया है। इसी प्रकार अज्ञानवाद का आधार अज्ञान और विनयवाद का आधार विनय है। हमें किसी युग को समझना है तो उस युग का दर्शन समझना नितांत आवश्यक है। दर्शन के लिये तत्कालीन दार्शनिकों की विचारधारा का अध्ययन अपेक्षित है। मनुष्य की परिस्थितियों एवं दार्शनिक विचारों में एक प्रकार का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है। भ. महावीर के समय में इस देश में विचार-परम्पराओं का किस रूप में अस्तित्व था? जैन साहित्य एवं आगम इसका परिचय देते हैं। सूत्रकृतांग', स्थानांग, भगवती में चार समवसरण की चर्चा है। समवसरण का अर्थ है-वादों का संगम | सूत्रकृतांग चूर्णि में समवसरण की व्याख्या इस प्रकार है-''समवसरन्ति जेसु दरिसणाणि दिट्टीओ वा ताणि समोसरणाणि'' अर्थात् जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का संगम है उसे समवसरण कहा जाता है। सवमसरण में इन्हीं चार वादों का निरूपण है। 1. क्रियावाद क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुत स्कंध में मिलती है। जो आत्मा, लोक, गति, आगति, जन्म, मरण, शाश्वत-अशाश्वत, आश्रव-संवर आदि पर सघन आस्था रखता है, वह क्रियावादी है। भगवान महावीर से पूछा गया-भगवन् ! क्रियावादी कौन है? उत्तर में भगवान ने कहा - जो आस्तिकवादी, आस्तिकप्रज्ञ, आस्तिकदृष्टि है वह क्रियावादी है। नियुक्तिकार ने आस्तिकता के आधार पर क्रियावाद की प्ररूपणा की। क्रियावाद में उन सभी धर्म-वादों को सम्मिलित किया गया जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे। आत्मा के कर्तृत्व को मानते थे। क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं1. अस्तित्ववाद-आत्मा और लोक के अस्तित्व की स्वीकृति। 2. सम्यग्वाद् - नित्य-अनित्य दोनों धर्मों की स्वीकृति-स्याद्वाद । 3. पुनर्जन्मवाद। 4. आत्मकर्तृत्ववाद। नियुक्तिकार एवं चूर्णिकार दोनों ने क्रियावाद के 180 प्रवादों का उल्लेख किया है किन्तु वह विकल्प की व्याख्या जैसा लगता है। उससे धर्म-प्रवादों की विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। विवरण इस प्रकार है6 AII V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव आदि नौ तत्त्व हैं । स्वतः और परत: की अपेक्षा इन नौ तत्वों के अठारह भेद हुए। इन अठारह भेदों के नित्य- अनित्य की अपेक्षा से छत्तीस भेद हुए । इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि कारणों की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने पर 180 भेद होते हैं । यह धारणा इस प्रकार है-जीव स्वरूप से काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा की अपेक्षा नित्य है । नित्यपद के 5 भेद हुए । अनित्य पद के भी पांच । ये दस भेद जीव के स्वरूप से नित्य - अनित्य की अपेक्षा किये गये हैं। इसी प्रकार दस भेद जीव के पर रूप से नित्य - अनित्य की अपेक्षा से होते हैं। शेष तत्त्वों के भी इसी प्रकार भेद होते हैं। कुल मिलाकर 180 प्रकार हैं, जैसे 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आश्रव, 6. संवर, 7. निर्जरा, 8. बंध, 9. मोक्ष स्वतः नित्य अनित्य नित्य अनित्य क्रियावाद के अनुसार पुण्य-पापादि क्रियाएं बिना कर्ता के नहीं होती, क्योंकि आत्मा के साथ उनका समवाय सम्बन्ध है । क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं किन्तु स्वरूप के विषय में एकमत नहीं है। अलग-अलग अवधारणाएं हैं। कुछ मूर्त मानते हैं तो कुछ अमूर्त मानते हैं। कुछ उसे अंगुष्ठप्रमाण मानते हैं तो कुछ श्यामाक तंदुल जितना । कुछ सर्वव्यापी स्वीकार करते हैं तो कुछ असर्वव्यापी । कुछ हृदय में प्रतिष्ठित प्रदीप की शिखा जैसे मानते हैं । क्रियावादी को कर्म फल भी स्वीकृत है। आचार्य अकलंक ने क्रियावाद के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख किया है- मरीचिकुमार, उलुक, कपिल, व्याघ्रभूवि, गार्ग्य, वावलि, माठर, मौदगल्यायन आदि । अक्रियावाद परतः नियुक्तिकार ने नास्तिकता के आधार पर अक्रियावाद की व्याख्या की। जिस दर्शन जीवादि पदार्थों का निषेध है। जिसका क्रिया, आत्मा, कर्मबंध, कर्मफल आदि में विश्वास नहीं, वह अक्रियावाद है ।' अक्रियावादी के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी है । क्षणिक धर्मा वस्तु में क्रिया संभव नहीं । यह सिद्धान्त बौद्धों के क्षणिकवाद के अतिनिकट है। भूत-भविष्य के साथ वर्तमान का कोई सम्बन्ध नहीं, इसीलिये क्रिया और तज्जनित कर्म बंध नहीं होता । शून्यवादी बौद्ध आत्मा आदि के अस्तित्व एवं नास्तित्व के प्रश्न पर मौन हैं। वे किसी कर्म को द्विपाक्षिक और किसी को एकपाक्षिक तथा छः आयतनों से होने वाला मानते हैं। ऐसी स्थिति आत्मा को अक्रिय मानना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है। अक्रियावाद के चार फलित हैं 1. आत्मा का अस्वीकार 3. कर्म का अस्वीकार तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 2. आत्मा के कर्तृत्व का स्वीकार । 4. पुनर्जन्म का अस्वीकार । ' 10 7 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी के आठ प्रकार बतलाये हैं1. एकवादी 2. अनेकवादी 3. मितवादी 4. निमित्तवादी 5. सातवादी 6. समुच्छेदवादी 7. नित्यवादी 8. नास्ति परलोकवादी एकवादी के अभिमत का निरूपण सूत्रकृतांग के 1/1/9 में, निमित्तवादी का 1/1/ 64-67 तथा 2/9/32 में प्राप्त है। सतवादी का 1/3/66 और नास्ति परलोकवादी का 1/1/ 11-12 तथा 2/1/13 में मिलता है। जैन मुनि के लिये एक संकल्प का विधान है जो प्रतिदिन किया जाता है-अकिरियं परियाणामि, किरियं उवसंपज्जामि- मैं अक्रिया का परित्याग करता हूं और क्रिया की उपसंपदा स्वीकार करता हूं। नियुक्तिकार ने अक्रियावादियों के 84 प्रवादों का उल्लेख किया है। 13 अक्रियावाद के अनुसार कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है। उत्पत्ति के बाद पदार्थ का विनाश हो जाता है। तब पुण्य-पाप की क्रिया किसी तरह संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने पुण्य-पाप के अतिरिक्त सात पदार्थ ही स्वीकार किये हैं। सात तत्त्व के स्वतः-परतः दो-दो भेद हैं। इस प्रकार 7x2-14 भेद हए । काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा इन छह तत्त्वों के साथ गुणन करने से 14x6=84 भेद हुए। चूर्णिकार ने सांख्य एवं ईश्वर को कारण मानने वाले वैशेषिक दर्शन को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया है। क्रियावाद और अक्रियावाद का चिन्तन आत्मा को केन्द्र में रखकर किया गया है। आत्मा है, वह कर्म का कर्ता है, भोक्ता है, पुनर्भवगामी है और उसका निर्वाण होता है। यह क्रियावाद का आधार है। इन्हें स्वीकार नहीं करने वाला अक्रियावादी है। सांख्यदर्शन में आत्मा को कर्म का कर्ता नहीं माना है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा कर्म फल भोगने में स्वतंत्र नहीं है। इस दृष्टि से इन्हें अक्रियावादी माना है, ऐसी संभावना लगती है। . आचार्य अकलंक ने प्रमुख अक्रियावादी आचार्यों के नाम प्रस्तुत किये हैं-कोकल, कांठेविद्धि, कौशिक, हरिश्यश्रुमान्, कपिल, रोमश, हारित, अश्वमुंड, अश्वलायन प्रभृति। 15 अज्ञानवाद अज्ञानवाद का आधार अज्ञान है। अज्ञानवादियों के अभिमत से ज्ञान ही सब समस्याओं का मूल है। कलह का निमित्त है। पूर्णज्ञान किसी में संभव नहीं। अधूरा ज्ञान नाना मतों का जनक है। SI TIVITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 N Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग में दो प्रकार के अज्ञानवादियों का निरूपण है - एक वे जो अल्पज्ञान पाकर गर्वोन्नत हो जाते हैं। परन्तु उनका ज्ञान पल्लवग्राही होता है। आत्मानुभूतिजन्य नहीं है। 20 दूसरे वे जो अज्ञान को ही मूल्यवत्ता देते हैं। इससे अधिक जानने की अपेक्षा नहीं। फिर संसार में अनेक मत हैं। अनेक पंथ हैं। भिन्न भिन्न शास्त्र हैं और धर्म प्रवर्तक भी एक नहीं है। किसका ज्ञान सत्य है? किसका असत्य? निर्णय कर पाना टेढ़ी खीर है। इन उलझनों से मुक्त रहने के लिये अज्ञान का सहारा हितावह है। सूत्रकृतांग के टीकाकार श्री शीलांकसूरि ने अज्ञानवाद को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है-सम्यक्ज्ञान से रहित श्रमण ब्राह्मण अज्ञानी है।” 2. बौद्धों को भी उन्होंने अज्ञानी कहा है। 3. जो अज्ञान को श्रेयस्कर मानता है वह अज्ञानी है।" अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं हैं-कुछ अज्ञानी आत्मा के अस्तित्व में संदेह रखते हैं। उनका मत है कि आत्मा है तो भी जानने से क्या लाभ? दूसरी विचार धारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है। इसलिये अज्ञान ही श्रेष्ठ है। अज्ञानवाद के छः फलित हैं1. ज्ञान, मिथ्याज्ञान से उन्माद, वाद-विवाद, संघर्ष, कलह, अहंकार आदि पैदा होते हैं। 2. अज्ञान अपराध से बचने का सरल उपाय है। 3. अज्ञान से मन में रागादि भावों का उद्भव नहीं होता। 4. संसार में अनेक दर्शन हैं । वे परस्पर विरोधी होने से सत्य का निर्णय नहीं कर पाते। 5. असर्वज्ञ व्यक्ति सर्वज्ञ की पहचान नहीं कर सकता। 6. युक्ति प्राप्ति में अज्ञान ही उत्तम है। शास्त्रकार अज्ञानवाद की समीक्षा में कहते हैं कि अज्ञानवादियों ने ज्ञान के अस्तित्व को नकार कर समस्त पदार्थों का अपलाप किया है। यह अत्यंत भाषा का विरोधाभास है। अज्ञानवाद की ओर झुकाव होने के कुछ कारण हैं, जैसे 1. कुछ लोग सोचते हैं, सत्य वही है जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। अतीन्द्रिय सत्य का साक्षात् करने वाला कोई नहीं है। यदि कोई है तो हमें क्या पता कि वह है या नहीं? उसने अतीन्द्रिय विषय का साक्षात् किया या नहीं? इसलिये अतीन्द्रिय सत्य की चर्चा करना व्यर्थ है। अज्ञानवाद का अर्थ है अतीन्द्रिय विषयों को जानने का अप्रयत्न । इसमें अतीन्द्रिय विषय को जानने का प्रयास करना भी सार्थक नहीं समझा जाता है। 2. कुछ लोग वर्तमान में उपलब्ध विषयों से विमुख होकर अदृष्ट विषयों जैसे पुनर्जन्म इत्यादि की खोज करने को यथार्थ नहीं मानते थे। प्राप्त को छोड़कर अप्राप्त के प्रति आकांक्षा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIIIIII Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिमत्ता का उपहास है। ऐसे लोग भूत-भावी दोनों पक्षों की उपेक्षा कर केवल वर्तमान को महत्त्व देते थे। ___ 3. मनुष्य अच्छे को अच्छा जानता है, बुरे को बुरा । फिर अच्छाई को स्वीकार, बुराई का बहिष्कार नहीं कर पाता तो उस ज्ञान की क्या सार्थकता? जान लेने पर भी यदि बुराई न छूटे तो जानना व्यर्थ है। इस प्रकार की मनोवृत्ति ने अज्ञानवाद को जन्म दिया। शास्त्रकार ने अज्ञानवादियों की मनोवृत्ति की समीक्षा करते हए अज्ञानवाद के दुष्परिणाम पर प्रकाश डाला है। पिंजरे में कैद पक्षी उसे खोलकर बाहर आने में समर्थ नहीं होते वैसे अज्ञानवादी भी अपने मतवाद के घेरे से बाहर नहीं निकल सकते । प्रत्युत् मिथ्यात्वरूप अज्ञान के कारण संसार के बंधन में दृढ़ता से बंध जाते हैं। अज्ञान श्रेयोवादी की तुलना भगवान महावीर के समकालीन मत प्रवर्तक संजय वेलट्टिपुत्त नामक संशयवादी आचार्य से की जा सकती है जिनकी बौद्ध वाङ्मय में विवेचना है। प्रत्येक पदार्थ के प्रश्न के सम्बन्ध में उनका उत्तर होता था-''यदि आप पूछे कि क्या परलोक है? परलोक है, मैं ऐसा भी नहीं कहता। परलोक नहीं है, ऐसा भी नहीं कहता परलोक है भी और नहीं भी, ऐसा भी नहीं कहता और परलोक न नहीं है और न है, ऐसा भी नहीं कहता। संजय वेलट्टिपुत्त ने कोई निश्चित बात नहीं कही। निष्कर्ष यह है, संजयवेट्टिपुत्त के मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञेयता अथवा अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है।" शास्त्रकार कहते हैं-अण्णाणिया वा कुसला वि सता। इसका आशय है, अज्ञानवादी स्वयं को कुशल समझते है किन्तु अज्ञान के कारण कोई कुशल-मंगल नहीं होता। कल्याण का साधन ज्ञान है, अज्ञान नहीं। । प्रायः सभी दर्शनों ने ज्ञान को महत्त्व दिया है। वेदान्त ज्ञानवादी है ही। बौद्ध दर्शन में प्रज्ञा-पारमिता ज्ञान के वैशिष्ट्य की सूचक है। जैन दर्शन में 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान एवं आचार दोनों का समान महत्त्व आंका गया है। प्राचीन काल में अनेक धर्म और दर्शन प्रकाश में आये और विलुप्त हो गये। विलय का कारण उनकी तात्त्विक पृष्ठभूमि का शैथिल्य था । वर्तमान में अज्ञानवाद के नाम पर न कोई सम्प्रदाय है, न कोई सुव्यवस्थित चिन्तन धारा । प्राचीन काल में अज्ञानवाद के समर्थक कुछ आचार्यों का उल्लेख आचार्य अकलंक ने किया है-साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, नारायण, सात्यमुनि, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पैप्पलाद, वादनारायण आदि। नियुक्तिकार ने अज्ञानवाद की 67 शाखाओं का उल्लेख किया है। उसकी गाणितिक पद्धति इस प्रकार है-जीव,अजीव आदि नौ पदार्थों को सत्, असत्, सदसत्, सद् अवक्तव्य, असद् अवक्तव्य तथा सद्-असद्-अवक्तव्य-इन सात भंगों से गुणन करने पर 9x7 = 63 ANTIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 10 AM Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं तथा सत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है? उसको जानने से क्या लाभ? असत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है? उसको जानने से क्या लाभ? ये चार भंग साथ मिलाने से कुल 67 भेद होते हैं। विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है।25 चूर्णिकार के अभिमत से विनयवादियों का सिद्धान्त है- सम्प्रदाय या गृहस्थ सबके प्रति विनम्र रहना। विनय करना उनका परम लक्ष्य है। विनय किसके प्रति हो, इसकी भेदरेखा नहीं। गधे से लेकर गाय तक, चण्डाल से ब्राह्मण तक, जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प आदि किसी भी जाति का प्राणी हो, उनके लिये वन्दनीय है। चूर्णिकार ने नियुक्ति गाथा 112 की व्याख्या में 'दाणामा' 'पाणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी कहा है। भगवती में इनका स्वरूप निम्नानुसार निर्दिष्ट है __ ताम्रलिप्ती नामक नगर में तामली गाथापति रहता था। उसने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसकी विधि है जहां कहीं इन्द्र, स्कंध, रुद्र, शिव, दुर्गा, वैश्रवण, चमुण्डा आदि देवी-देव, राजा, ईश्वर, कौटुम्बिक, सेनापति, श्रेष्ठी, कौआ, कुत्ता या चण्डाल जो भी मिले, सबको प्रणाम किया जाता था। तामली तापस ने यह प्रव्रज्या स्वीकार की थी।28 पूरण गाथापति ने 'दाणामा' प्रव्रज्या अंगीकार की। प्रव्रज्या के बाद वह चार फुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेमेल सन्निवेश' में भिक्षा लाने गया। भोजनपात्र के पहले पुट में जो गिरता उसे पथिकों को लुटा देता। दूसरे पुट का कौओ-कुत्तों को, तीसरे का मच्छकच्छों को और चौथे पुट का वह स्वयं खाता था। यह 'दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार था।29 वृत्तिकारशीलांकाचार्य ने विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है किन्तु यह अर्थ विमर्शनीय है। यहां विनय का अर्थ आचार अधिक संगत लगता है। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान को सिद्धि का हेतु मानते हैं वैसे आचारवादी आचार को | ज्ञानवादी और आचारवादी दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं। प्राचीन मतवादियों में एकांगी दृष्टिकोण अधिक परिलक्षित होता है। वे तात्त्विक चिन्तन की समग्रता से लगभग दूर रहते थे। किसी एक तत्त्व में ही अपने दर्शन की यथार्थता मान लेते थे। चिन्तनीय प्रश्न यह है कि जीवन एकमुखी नहीं होता। वह अनेकवृत्तियों, विचारों, चिन्तनों एवं क्रियाओं का समवाय होता है। उसे समग्र भाव से समझा जाये, यही अभिप्रेत है । एकांगी दृष्टिकोण से सत्य उपलब्ध नहीं होता। विनयवादी जो विनय को ही सर्वोपरि स्थान देते हैं उनका मिथ्याग्रह और व्यामोह है। विनय चारित्र का अंग है। किन्तु सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप विनय की आराधना ही लक्ष्य तक पहुंचाती है। विनय की अपनी उपादेयता है पर उसके साथ वे तत्त्व भी जुड़े हों, जो विनय को सत्योन्मुखी बना सके। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITITIO TN LY 11 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन विनयवादियों का कोई वेष या शास्त्र नहीं। केवल मोक्ष को ही मान्यता देते हैं। इस परम्परा के कुछ प्रमुख आचार्य इस प्रकार हैं-वशिष्ठ, पाराशर, वाल्मिकी, व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि। विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं 1. सुर 2. राजा 3. यति 4. ज्ञाति 5. स्थविर 6. अधम 7. माता 8. पिता मन वचन वचन काया देशकालोचितदान इस प्रकार 8x4=32 भेद होते हैं। भाष्य, चूर्णि, निशीथ में और भी अनेक दर्शन एवं दार्शनिकों का उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग के अनुसार ‘क्रियावाद' आदि चारों प्रवाद श्रमण एवं वैदिक दोनों परम्पराओं में थे। सूत्र की रचना शैली में प्रयुक्त 'एगे' शब्द द्वारा विभिन्न मतवादों का निरूपण किया गया है। कहीं-कहीं दर्शन शब्द भी मिलता है। क्षणिकवादी बौद्धों के लिये 'क्षणयोगी' शब्द का प्रयोग है। द्वितीय श्रुतस्कंध में बौद्ध शब्द भी है। सूत्रकार के सामने बौद्ध साहित्य रहा है। ऐसा प्रयुक्त शब्दों से प्रतीत होता है। __उपनिषद्, सांख्य तथा गोशालक, संजय वेलट्टिपुत्त, पकुध कात्यायन आदि श्रमण परम्परा के आचार्यों को भी उन्होंने उपेक्षित नहीं किया। बारहवें अध्ययन में 'बंझ' शब्द है। इसका आशय है पकुध कात्यायन के अकृतवाद के अनुसार सात काय वन्ध्य कूटस्थ होते हैं। दीघनिकाय के सामञ्जस्य सुत्त में भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। भगवान महावीर का युग एक ऐसा युग था जब लोक मानस में तत्त्वज्ञान के प्रति सम्मान बढ़ा था। वे हर तत्त्व की गहराई का स्पर्श करना चाहते थे। वह दर्शन वाङ्मय के विकास का आदिकाल था। जिज्ञासा प्रेरणा जगाती है। विशेष बात यह थी कि तत्कालीन दार्शनिकों के लिये स्वतंत्र चिन्तन का उन्मुक्त वातावरण था । वे विभिन्न परम्पराओं से जुड़े हुए अवश्य थे किन्तु प्रतिबद्धता निरपेक्ष चिन्तन के लिये बाधक नहीं थी। ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा के रूप में दो धाराएं प्रवाहित थीं। ब्राह्मण परम्परा का प्रतिनिधित्व ब्राह्मणों के हाथ में था। सिद्धान्तों का मुख्य आधार वेद थे। श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध मुख्य थे। किन्तु पूर्णकाश्यप, संजय वेलट्टिपुत्त, मंखली गोशालक, पकुध कात्यायन इत्यादि आचार्य भी इसी परम्परा में माने गये हैं। ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा का मुख्य भेद था पहली परम्परा में ज्ञान प्रधान था, दूसरी में ज्ञान के साथ-साथ क्रिया का भी महत्त्व था। जैन दर्शन में क्रियावाद-आस्तिक्यवाद के अर्थ में और अक्रियावाद नास्तिकवाद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह सारी चर्चा प्रवृत्ति निवृत्ति के लिए है। प्रवृत्ति से प्रत्यावर्तन और निवृत्ति 12 ATTITIVITITITITIONALI TITITII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 .. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निवर्तन होता है । यह तथ्य न्यूनाधिक रूप में सभी मोक्षवादी दर्शनों में मान्य है । परन्तु जैन दर्शन में इनका जितना विस्तार है उतना अन्यत्र प्राप्य नहीं है। क्रियावादी के दो प्रकार हैंसम्यग्दृष्टि क्रियावादी, मिथ्यादृष्टि क्रियावादी सम्यग्दृष्टि क्रियावादी— जो आत्मवादी है - आत्मा के अस्तित्व में जिसका विश्वास है । लोकवादी है - षड् द्रव्यात्मक लोक को स्वीकार करता है। जो कर्मवादी है - जीव का कर्म पुद्गलों से बंधन होता है । बन्ध पुण्य-पाप आदि तत्वों माता है। जो क्रियावादी है-क्रिया करने से आत्म प्रदेशों का कर्म से बंधन होता है अथवा उत्थान कर्म- बल- - वीर्य - - पुरुषाकार- र-पराक्रम रूप सद् क्रियाओं से कर्मों का नाश होता है - इस तत्त्व को जानता है। 32 उपर्युक्त क्रियावादी सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है। जो दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तप- विनय -सत्य- -समिति गुप्ति आदि क्रियाओं में रुचि रखता है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है। दशाश्रुत स्कंध दशा6 सू.17 में जिस क्रियावादी का वर्णन है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है। सूत्रकृतांग श्रु 1 अ. 12. गा. 20-21 में जिस क्रियावाद विज्ञाता का उल्लेख है वह सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है। - क्रियावादी है वह नियम से भव्य है, शुक्ल पाक्षिक है तथा अर्ध पुद्गल परावर्तन में अवश्य मोक्ष जाता है । क्रियावादी सम्यग्दृष्टि जीव अभव्य तथा कृष्णपाक्षिक नहीं होता | 33 क्रिया मोक्ष का प्रधान अंग है अथवा क्रिया ही परलोक साधन के लिये यथेष्ट है, ऐसा मानता है वही सम्यग्दृष्टि क्रियावादी है। 34 मिथ्यादृष्टि क्रियावादी जो जीवाजीवादि के अस्तित्व से सहमत है किन्तु उनके नित्यानित्यत्व तथा स्व-पर तथा काल-नियति स्वभाव - ईश्वर - आत्मा आदि को निरपेक्ष कारण के रूप में मानता है वह मिथ्यादृष्टि क्रियावादी है। ज्ञानरहित या ज्ञाननिरपेक्ष क्रियाओं से स्वर्ग - अपवर्ग की प्राप्ति हो सकती है— ऐसा कहने वाला मिथ्यादृष्टि है । क्रिया की अनिवार्यता - - क्रियावाद जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण विषय है। जीवन अच्छी-बुरी क्रियाओं से संवलित है । जीव सदा एजना, व्यंजना, चलना, स्पंदना, घटना, उदीरणा इनमें से किसी न किसी प्रकार की क्रिया अवश्य करता है। इन क्रियाओं से संयुक्त जीव क्रिया के अनुरूप भावों का तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 13 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणमन करता है अर्थात् जीव के आत्मप्रदेश उत्क्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि क्रियाएं करते रहते हैं । उस समय जो भाव बनते हैं, उन भावों के अनुरूप उसका परिणमन होता है। भाव दो प्रकार के हैं- परिस्पंदनात्मक - अपरिस्पंदनात्मक । भाव ही परिणाम कहलाते हैं। परिणाम और क्रिया दोनों जीव के भाव हैं। दोनों में अंतर यही है कि परिणाम अस्पंदनात्मक होते हैं, क्रिया स्पंदनात्मक । जीव कोई भी क्रिया करता है तब आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता ही है। अशरीरी सिद्ध अक्रिय होते हैं। चतुर्दश गुणस्थानवर्ती जीव शैलेशी अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। उनके आत्म प्रदेश सर्वथा निष्कंप होते हैं। उस समय उनके कोई क्रिया नहीं होती । चक्षुपक्ष्म निपात जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया से भी रहित होते हैं । सब प्रकार की क्रियाओं का व्यवच्छेद- सम्मुच्छेद कर देते हैं । प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक के जीव सक्रिय होते हैं । वे किसी भी क्षण अक्रिय नहीं होते हैं। नरक, तिर्यञ्च देवगति के जीव सक्रिय होते हैं। जहां कषाय है, लेश्या है, योग है वहां क्रिया की नियमा (अनिवार्यता ) है | 35 क्रिया द्वयक कुछ लोगों की अवधारणा है कि एक समय में दो क्रियाएं हो सकती हैं, यह मिथ्या है। एक समय में जीव एक ही क्रिया करने में समर्थ है। जिस समय सम्यक्त्व की क्रिया होती है, उस समय मिथ्यात्व की नहीं होती और जिस समय मिथ्यात्व की होती है उस समय सम्यक्त्व की नहीं । ईर्यापथिक क्रिया होती है उस समय साम्परायिक की क्रिया नहीं होती और साम्परायिक के समय ईर्यापथिक नहीं होती। गुणस्थान और क्रिया आरम्भिकी आदि पांचों क्रियाएं सभी दण्डक के जीवों में पाई जाती हैं। गुणस्थान की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि में पांच क्रियाएं, सम्यग्दृष्टि में प्रथम चार क्रियाएं परिग्रहिकी आदि प्रमत्त संयत गुणस्थान तक माया प्रत्यनिकी दसवें गुणस्थान तक हैं। दसवें से ऊपर के गुणस्थानों में पांचों क्रियाएं नहीं होती। वहां कषाय नहीं होने से साम्परायिक क्रिया भी नहीं होती । ईर्यापथिक क्रिया ही होती है । भगवान महावीर से पूछा गया - श्रमणोपासक श्रावक जिस समय सामायिक में अवस्थित है, उस समय क्या ईर्यापथिक क्रिया हो सकती है ? भगवान ने समाधान दियानहीं हो सकती। क्योंकि सामायिक में भी उसकी आत्मा कषाय का अधिकरण है, इसलिये साम्परायिक ही होगी। 14 WWW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यतः 25 क्रियाएं प्रसिद्ध हैं लेकिन आगम में अन्य क्रियाओं का भी यत्र-तत्र वर्णन मिलता है। टीकाकार अभयदेव सूरि ने एजनादि क्रियाओं का वर्णन करते हए लिखा है-इस प्रकार अन्य क्रियाएं भी होती हैं। जीव और पुद्गल के सहयोग से जीव जितनी प्रकार की क्रियाएं कर सकता है, उतने प्रकार की कियाएं हो सकती हैं। संक्षेप में क्रिया के सदनुष्ठान-असदनुष्ठान रूप से दो प्रकार होते हैं सदनुष्ठान क्रिया से निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है। पुण्यबंध दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों प्रकार का माना है। दो समय की अल्पकालिक स्थिति वाला पुण्य-बंध ईर्यापथिक क्रिया के साथ होता है। सदनुष्ठान क्रियाओं में उत्कृष्ट क्रिया है। शुक्ल ध्यान के चौथे चरण में होने वाली समुच्छिन्न-क्रिया अप्रतिपाति ध्यान ही चरम सदनुष्ठान क्रिया है। उसके बाद जीव की क्रिया पर विराम लग जाता है। इसी से अक्रिया सिद्ध होती है। समच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति ध्यान से काययोग तथा अन्यान्य सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध हो जाता है। जीव की अंतिम क्रिया, जिससे भव का व्यवच्छेद हो जाता है, कर्मों का सम्पूर्ण उन्मूलन ही अंतक्रिया है। अंतक्रिया विविध प्रकार से विभिन्न अवस्थाओं में जीव प्रारम्भ करता है। जब संसारपरीत (सीमित) हो जाता है। देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन रूप मोक्ष की सीमा निश्चित हो जाती है। एक दृष्टि से उसी समय से अंतक्रिया शुरू हो जाती है। दूसरी दृष्टि है, जीव जब किसी भव में मोक्ष जाने की सीमा कर लेता है तब से अंतक्रिया का प्रारम्भ हो जाता है। तीसरी दृष्टि में जीव जिस भव में मोक्ष जाता है पहले अनगार बनता है, तब से अंतक्रिया का आरम्भ हो जाता है। अंतक्रिया में कर्म क्षय किस प्रकार होता है ? इसका निरूपण भगवती सूत्र में कुछ उपमानों के द्वारा किया है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति सूखी घास राशि को अग्नि में प्रक्षिप्त करता है। जल की बूंदों को तप्त तवे पर डालता है तो उसके जलने और नष्ट होने में विलम्ब नहीं होता। इसी प्रकार यदि कोई एजनादि क्रिया नहीं करता है उसके सकल कर्म अग्नि में निक्षिप्त घास के पूले तथा तप्त कड़ाही में निक्षिप्त जल बूंदों की तरह नष्ट हो जाते हैं, उस जीव की अंतक्रिया होती है। कर्म को बांधने में जैसे क्रिया–वीर्य की अपेक्षा है वैसे कर्मों को तोड़ने में भी इसकी अनिवार्यता है। क्रिया का एक रूप कर्म बांधने का है, दूसरा कर्म काटने का है। क्रिया के बिना कर्म क्षय संभव नहीं । भगवान महावीर ने नियतिवाद का निरसन करने के लिये क्रियावाद का प्रतिपादन किया। शकडाल कुम्हार की घटना नियतिवाद के विपक्ष भूत क्रियावाद की प्रतिष्ठा की प्रतीक है। महावीर क्रियावादी के रूप में सुप्रसिद्ध थे। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIMILI ATI NINR 15 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन के इतिहास में वह दिन अति महत्त्वपूर्ण रहा है जिस दिन अक्रियावाद का सिद्धान्त स्थापित हआ। इस वाद की स्थापना से पूर्व अक्रिया का अर्थ था विश्राम या कार्यनिवृत्ति । किन्तु चित्तवृत्तिनिरोध, मौन, कायोत्सर्ग इत्यादि अर्थ बाद में जुड़े हैं जो सिद्धि के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है अक्रियावाद को समझने के बाद ही मोक्ष का स्वरूप निश्चित हुआ है । गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! जीव सक्रिय है या अक्रिय? भगवान् ने कहा-गौतम ! जीव सक्रिय भी है, अक्रिय भी। जीव दो प्रकार के हैंसिद्ध और संसारी। मुक्त जीव अक्रिय होते हैं। संसारी जीव सक्रिय । सहज रूप से जीव अक्रियामय है। क्रिया आत्मा की विभाव पर्याय है। क्रिया वीर्य से पैदा होती है। योग्यता रूप वीर्य मुक्त जीवों में भी होता है किन्तु शरीर के अभाव में उसका प्रस्फुटन नहीं होता। वह लब्धि वीर्य ही कहलाता है। शरीर के संयोग से लब्धिवीर्य सक्रिय होकर करणवीर्य कहलाता है। आत्मवादी का चरम लक्ष्य मुक्ति है। मोक्ष का अर्थ है-शरीर-मुक्ति, बंधन-मुक्ति और क्रिया-मुक्ति। ___ अक्रियावाद से क्रिया के शोधन की प्रवृत्ति बढ़ी। कर्म सहित मुक्त नहीं हो सकते और बिना कर्म के जीवन असम्भव है। ____ इस विचार संघर्ष से क्रिया के शोधन की दृष्टि मिली। अक्रियात्मक साध्य (मोक्ष) अक्रिया से ही प्राप्य है। आत्मा की अभिमुखता अक्रिया की ओर हो जाती है। इस अभिमुखता में कर्म रहता है पर अक्रिया से परिष्कृत हो जाता है। अप्रमत्त का कर्म पंडितवीर्य कहलाता है। पंडितवीर्य असत् क्रिया रहित होता है। इसलिये प्रवृत्ति रूप होते हुए भी मोक्ष का साधन है। साधना के पहले चरण में ही सारी क्रियाओं का त्याग शक्य नहीं है। मुमुक्षु भी साधना की पूर्वभूमिका में क्रियाप्रवृत्त रहता है किन्तु उसका लक्ष्य अक्रिया ही होता है। सन्दर्भ: आयारो 1/5 से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई। सूत्रकृतांग 1/6/27 सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 111 अत्थित्ति किरियावादी, वयंति णत्थि त्ति अकिरियावादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी। सूत्रकृतांग गा. 30, 31, 32 स्थानांग 4/4/345 __ भगवती 30 श. 1 उ.सू. 824 7. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 112: असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होति चुलसीति । अण्णाणिय सत्तद्वी, वेणइयाणं च बत्तीसा। 8. तत्वार्थवार्तिक 8/1 भाग 2 पृष्ठ 562 9. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गा. 111 ... णत्थि त्ति अकिरियावादी य। 16 MININNINITINWwww TITI V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. 10. दशाश्रुतस्कंध दशा 6 सूत्र 3। 11. ठाणं8/22 12. आवश्यक 4 सूत्र 13. सू. कृ. नि.गा. 112 14. चूर्णि पृ. 206 15. तत्वार्थवार्तिक 8/9, भाग 2 पृष्ठ 562 16. सू.कृ.नि.गा. 111 17. सू.क. चूर्णि पृ. 207 18. वृत्तिपत्र 35 19. वृत्तिपत्र 217 20. सूत्रकृतांग 1/1/2-43 सू.कृ. शीलाङ्कवृत्ति, पत्रांक 32 से 34 के आधार पर 22. सुत्त पिटक दीघनिकाय सामञ्ज पृ. 49-53. 23. तत्वार्थवार्तिक 8/9 भाग पृ. 562 24. चूर्णि पृ. 206. 25. सू.कृ.नि.गा. 111 26. सू.कृ. नि.गा. 113, चूर्णि पृ. 206 27. सू.कृ. नि.गा. 113 चूर्णि पृ. 206 28. भगवई, 3/34 29. भगवई, 3/102 30. षड्दर्शन समुच्चय, श्री गुणरत्न सूरि दीपिका पृ. 29 31. दीघनिकाय 1-2 32. आ.श्रु.1. अ.1. सू 5 पृ. 1 33. स्थानांग 2 उ. 2. सू. 79 टीका से उद्धृत किरियावाई भव्वे णो अभव्वे । सुक्कपरिक्खए णो किण्टपक्खिए। सू. श्रु. 1 अ.6 गा.27 टीका। 35. भग.श. 41 उ. 1 प्र. 12, 17, 19 पृ. 935 36. भगवती श. 3 उ. 3 प्र. 15 का अंश पृ. 4571 सम्पर्क : जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं (राजस्थान) तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANIY TV 17 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में सूक्ष्म जीवों की स्थिति -डॉ. अनिल कुमार जैन (1) प्रस्तावना ___ जीवों को विज्ञान में मुख्यतः दो वर्गों में बांटा गया है-वनस्पति और पशु। लेकिन बहुत से ऐसे सूक्ष्म-जीव हैं जो पूर्णतः न तो वनस्पति के लक्षणों वाले हैं और न ही पूर्णतः पशु के लक्षणों वाले ही हैं। वे एक तीसरा वर्ग ही बनाते हैं। आज हम इन सूक्ष्म जीवों के बारे में काफी जानते हैं। जैन दार्शनिकों ने भी जीवों के बारे में विस्तार से चर्चा की है तथा उन जीवों को अनेक वर्गों में विभाजित भी किया है। यहाँ तक कि उन्होंने उन सूक्ष्म जीवों की चर्चा भी की है जिन्हें हम इलैक्ट्रोन माइक्रोस्कोप से भी न देख सकें। उन्होंने प्रत्येक वर्ग के जीवों के लक्षणों का भी वर्णन किया है। इसके बावजूद भी यह स्पष्ट नहीं है कि विज्ञान में वर्णित सूक्ष्मजीवों को हम क्या मानें-त्रस या स्थावर? यहाँ हम इन सूक्ष्म जीवों के बारे में ही चर्चा करेंगे तथा उन्हें जैन दर्शन के अनुसार वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेंगे। (2) सूक्ष्म-जीव सूक्ष्म-जीव उन सजीवों का वह वर्ग है जो आकार में बहुत छोटे होते हैं तथा जिन्हें हम अपनी खुली आंखों से न देख सकें। ये प्रायः सभी जगह पाये जाते हैंमिट्टी में, पानी में तथा हमारे चारों ओर स्थित वायु में। ये सूक्ष्म जीव अनेक आकार में पाये जाते हैं। सबसे सूक्ष्म तो मात्र कुछ माइक्रोन (1 माइक्रोन-0.001 मि.मी.) साइज के ही होते है तथा उनके अध्ययन के लिए विशिष्ट सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की आवश्यकता पड़ती है। बड़े आकार के सूक्ष्म-जीवों को साधारण सूक्ष्म-दर्शी द्वारा देखा जा सकता है। लेकिन कुछ तो इतने सूक्ष्म होते हैं जिन्हें इलैक्ट्रोन माइक्रोस्कोप द्वारा ही देखा जा सकता है। 18 IIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म जीव प्रायः सभी प्रकार के परिवेश, जैसे-गर्म मौसम, अति शीतल पानी, अधिक लवण युक्त पानी, गंधक युक्त एवं अन्य कार्बनिक पदार्थों, रेगिस्तान एवं दलदली प्रदेशों आदि में जीवित रह सकते हैं। कुछ सूक्ष्म जीव तो अधिक गर्म एवं शुष्क जैसे विपरीत वातावरण में भी जीवित रह सकते हैं। कुछ बिना ऑक्सीजन के भी जीवित रह सकते हैं। सूक्ष्म जीव कई प्रकार से हमारी मदद करते हैं, लेकिन उनमें से कुछ बीमारी पैदा करते हैं। सर्दी-जुकाम, मलेरिया, त्वचा के रोग, इन्फ्लुएन्जा आदि अनेक बीमारियां कुछ सूक्ष्म जीवों द्वारा ही फैलती हैं। सूक्ष्म जीव पांच प्रकार के होते हैं-प्रोटोजोआ तथा युग्लीना, फंजाई, एल्गे, बैक्टेरिया और वायरस तथा सब-वायरस । वायरस सबसे छोटे होते हैं। वे सजीव तथा निर्जीव के मध्य सीमा रेखा पर स्थित होते हैं। इनकी स्वयं की कोई कोशिका नहीं होती है तथा ये अन्य जीवों की कोशिकाओं में फलीभूत होते हैं। सब-वायरस इनसे भी अधिक सूक्ष्म होते हैं। हम यहाँ इन सूक्ष्म जीवों के बारे में कुछ चर्चा करेंगे । (2.1) प्रोटोजोआ प्रोटोजोआ एक-कोशिय पशु है जो कि ठोस वस्तुओं तथा बैक्टेरिया को अपना भोजन बनाते हैं। ये सरल द्विविभाजन द्वारा प्रजनन करते हैं। ये मात्र ऑक्सीजन की मौजूदगी में कार्य कर सकते हैं। प्रोटोजोआ की तीस-हजार से अधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। ये अलग-अलग शक्ल एवं साइज में मिलते हैं। ये प्रायः नमी वाले स्थानों, जैसे-समुद्र, नममिट्टी तथा ताजा पानी में पाये जाते हैं। कुछ प्रोटोजोआ ध्रुवीय क्षेत्रों तथा ऊंचे पहाड़ों पर भी पाये जाते हैं। ये सरल एवं जटिल दोनों प्रकार की संरचना वाले होते हैं। उदाहरण के तौर पर अमीबा का कोई निश्चित आकार नहीं होता है तथा वह अपना आकार बदल भी सकता है। दूसरी ओर पैरामीसियम चप्पल की शक्ल का होता है तथा इसके मुँह होता है और एक पूँछ जैसा भाग भी होता है जो चलने में मदद करता है। साथ में कुछ अन्य ढांचा भी होता है। ___ अमीबा अपने शरीर को फैलाता है तथा उसी की मदद से चलता है। यह अपने भोजन को एक विशिष्ट प्रकार से निगल लेता है। यहाँ पाचन एक रासायनिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है, जिसमें एन्जाइम भी मदद करते हैं। एंजाइम विशिष्ट प्रकार के अणु होते हैं जो कि उनकी कोशिकाओं में पाये जाते हैं। ये एंजाइम भोजन को पचाने में मदद करते हैं। जब अमीबा साइज में बड़ा हो जाता है तो दो में विभक्त हो जाता है तथा इस प्रकार यह अपना प्रजनन करता है। अमीबा भी सांस लेता है। शरीर के अन्दर खाद्य पदार्थों का वितरण विसरण (diffusion) द्वारा होता है तथा मल-क्षेपण भी इसी क्रिया द्वारा होता है। विसरण एक धीमी प्रक्रिया तुलसी प्रज्ञा जनवरी-- जून, 2001 AVINITITI VI TILITITITIN 19 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यद्यपि केंचुआ तथा जोंक अमीबा से उच्च श्रेणी के जीव हैं, लेकिन ये ऑक्सीजन का अवशोषण अपनी त्वचा द्वारा करते हैं। (2.2) युग्लीना प्रोटिस्टा सजीवों का एक ऐसा वर्ग है जो वनस्पति एवं पशुओं के बीच का है। युग्लीना उनमें से एक है। यह ताजे-स्वच्छ जल एवं गर्म वातावरण में मिलता है। यह वृक्षों की तरह स्वयं अपना भोजन तैयार करता है। साथ ही इसके मुँह भी होता है। यह मुँह से भी अपना भोजन ले सकता है। (2.3) फंजाई सड़े हये सन्तरे पर नीले रंग के मखमली धब्बे, पुराने अचार और मुरब्बों तथा बासी रोटी पर पाये जाने वाले चिकतरे धब्बे, पुराने मैले कपड़ों तथा मोजों पर पाये जाने वाले हरे धब्बे, या फिर मानसून में पेड़ों के तनों पर पाये जाने वाले धब्बे, ये सब फंजाई या फफूंद के ही अलग-अलग प्रकार हैं। फफूंद अनेक प्रकार की होती हैं। यह एक कोशिय तथा बहकोशिय दोनों प्रकार की होती है। ये स्पोट भी पैदा करती हैं तथा लैंगिक और अलैंगिक दोनों प्रकार से प्रजनन करती है। इसकी एक लाख से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती है। फंफूद को प्रकाश-संश्लेषण रहित व वनस्पति माना जाता है। यह कार्बनिक पदार्थों को अपना भोजन बनाती हैं। ये बैक्टेरिया में बड़ी होती हैं। फंफूद दो वर्गों में पायी जाती है यीस्ट तथा मोल्ड । यीस्ट मुख्यतः एक कोशिय होते हैं जबकि मोल्ड बहुकोशिय होते हैं तथा जन्तु की तरह की-सी इनकी बनावट होती है। मोल्ड हमारी तरह ऑक्सीजन पर निर्भर करते हैं जबकि यीस्ट ऑक्सीजन एवं ऑक्सीजन-विहीन दोनों प्रकार के वातावरण में जीवित रह सकते हैं। कुछ फंफूद बीमारी फैलाते हैं जबकि कुछ फंफूद दवाइयाँ बनाने के काम भी आते हैं। पैंसलीन जैसी बहुमूल्य औषधि फंफूद से ही बनाई जाती है। कुछ फंफूदों का प्रयोग खाद्य पदार्थ बनाने में भी किया जाता है। (2.4) एल्गे __ इसे हिन्दी में काई भी कहते हैं। अनेक तालाब, पोखर, रुके हुये पानी पर हरे रंग की तैरती हुई परत या फिर पानी की टंकियाँ तथा स्नानागार के किनारों पर हरे रंग की परत को सामान्यतः देखा जा सकता है। हरे रंग की इस परत को एल्गे या काई कहते हैं। ये वनस्पति जैसे ही सजीव होते है तथा इनमें क्लोरोफिल नाम का पदार्थ भी होता है। ये प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाती हैं तथा नमी वाले स्थानों पर पनपती हैं। इसी कारण इन्हें पानी की घास की संज्ञा दे दी जाती है। 20 AIIIIIII IIT ALI NITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एल्गे या काई एककोशिय या बहकोशिय दोनों प्रकार की हो सकती हैं। इनकी लम्बाई माइक्रोन से लेकर कई मीटर तक हो सकती है। बैक्टेरिया की तरह ये भी प्रायः सभी प्रकार के वातावरण में पाये जाते हैं। ये कुछ जलचर प्राणियों के साथ-साथ भी वृद्धि करती हैं। कुछ एल्गे, जिनकी कोशिकायें एक जैसी होती हैं, कॉलोनी भी बनाती हैं तथा विभाजन के बाद वृद्धि करती है। कुछ एल्गे अनेक प्रकार की कोशिकाओं की कॉलोनियों से युक्त होती हैं तथा ये अलग-अलग कोशिकायें अलग-अलग कार्य करती हैं। कई एल्गे कुछ विशिष्ट रंगों से युक्त होती हैं, जैसे—लाल, भूरी तथा हरी। (2.5) बैक्टेरिया बैक्टेरिया एक-कोशिय सूक्ष्म जीव होते हैं। ये अलग-अलग शक्ल तथा साइज में पाये जाते हैं। इनमें से कुछ स्वतन्त्र कोशिका के रूप में, कुछ कोशिकाओं के समूह के रूप में तथा कुछ कोशिकाओं की लड़ी के रूप में रहते हैं। इनकी कोशिकाओं की ऊपरी सतह कठोर कवच युक्त होती है। अधिकतर बैक्टेरिया 0.3 से 2 माइक्रोन साइज के होते हैं तथा उन्हें सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखा जा सकता है। कुछ वैज्ञानिक बैक्टेरिया को वनस्पति की श्रेणी में रखते हैं तथा कुछ वनस्पति तथा पशु की श्रेणी में । बैक्टेरिया हजारों प्रकार के होते हैं। उनमें से अधिकतर मनुष्यों के लिए हानिकारक होते हैं। काफी संख्या में बैक्टेरिया मनुष्य के शरीर के अन्दर भी पाये जाते हैं। लेकिन वे नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। बैक्टेरिया की कुछ प्रजातियाँ बीमारी फैलाती हैं तथा कुछ प्रजातियाँ लाभकारक भी होती है। (2.5.1) बैक्टेरिया कहाँ रहते हैं? बैक्टेरिया प्रायः सभी प्रकार के वातावरण में तथा सभी स्थानों पर रह सकते हैं। कुछ बैक्टेरिया तो उन विषम परिस्थितयों में भी जीवित रह सकते हैं जिनमें मनुष्य भी जीवित न रह सके । हवा, पानी तथा मिट्टी की ऊपरी सतह में भी बैक्टेरिया मिलते हैं। कुछ बैक्टेरिया हमारे पाचन-तन्त्र एवं श्वसन तंत्र में भी रहते हैं तथा कुछ मनुष्य तथा पशुओं की त्वचा के नीचे भी रहते हैं। कुछ बैक्टेरिया ऑक्सीजन में जीवित रहते हैं तथा कुछ ऑक्सीजन के बिना भी जीवित रह सकते हैं। कुछ अन्य बैक्टेरिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में जीवित नहीं रह सकते हैं। कुछ बैक्टेरिया हवा, पानी तथा भोजन के अभाव में एक मोटा कवच बना लेते हैं तथा स्वयं को जीवित रख पाते हैं। इस नमी कवच के चारों ओर उपस्थित कोशिका तत्व नष्ट हो जाता है तथा वे स्वयं निष्क्रिय हो जाते हैं, इन्हें बैक्टेरिया के स्पोर कहते हैं। ये स्पोर दसों तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 SMS W21 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षों या इससे अधिक भी अस्तित्व में बने रहते हैं, क्योंकि इनमें विषम परिस्थितियों को झेलने की क्षमता होती है। यदि इन स्कोरों को फिर से अनुकूल वातावरण मिले तो फिर से ये एक सक्रिय बैक्टेरिया के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। (2.5.2) बैक्टेरिया चलते कैसे हैं? बैक्टेरिया हवा पानी की धाराओं के जरिये काफी लम्बा मार्ग तय कर सकते हैं। कपड़े, बर्तन तथा अन्य दूसरी वस्तुयें भी बैक्टेरिया को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हैं। कुछ बैक्टेरिया के एक पतले बाल जैसा तन्तु होता है जिसकी मदद से वे तैर सकते हैं। कुछ बैक्टेरिया, जिनके यह व्यवस्था नहीं होती है, वे रैंग कर भी चलते हैं। (2.5.3) बैक्टेरिया भोजन कैसे प्राप्त करते हैं? अधिकतर बैक्टेरिया दूसरे जीवों को अपना भोजन बनाते हैं। कुछ प्रजातियाँ प्रकाशसंश्लेषण द्वारा अपना भोजन बनाते हैं। कुछ बैक्टेरिया दोनों प्रकार से भोजन ग्रहण कर लेते हैं। अधिकतर बैक्टेरिया मृत जीवों को अपना भोजन बनाते हैं। कुछ दूसरे परजीवी होते हैं। कुछ परजीवी बैक्टेरिया अपने आश्रयदाताओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते है जबकि कुछ अन्य बीमारियाँ पैदा करते हैं। (2.5.4) बैक्टेरिया प्रजनन कैसे करते हैं? अधिकतर बैक्टेरिया अयोनिज (asexually) प्रजनन करते हैं जिसमें द्विविभाजन द्वारा एक जैसे दो बैक्टेरिया बनते हैं। अधिकतर बैक्टेरिया जल्दी से विभाजित हो जाते हैं तथा शीघ्र ही अपनी वंशवृद्धि करते हैं। कुछ तो मात्र 9.5 मिनिट में ही दो हो जाते हैं। यदि इन्हें अच्छी खुराक उपलब्ध कराई जाये तो ये दस घण्टे में एक बैक्टेरिया के दस लाख हो जायें। नम तथा गर्म वातावरण इनकी वृद्धि के लिए अनुकूल होता है। जब एक बैक्टेरिया द्विविभाजन करता है तो नये बने दो बैक्टेरिया में ठीक वैसा ही डी.एन.ए. होता है जैसा कि मूल बैक्टेरिया में होता है। जब कुछ बैक्टेरिया प्रजनन के दौरान दूसरे बैक्टेरिया के डी.एन.ए. का कुछ हिस्सा ग्रहण कर लेता है तो इस प्रकार के प्रजनन में नये उत्पन्न बैक्टेरिया में डी.एन.ए. मूल बैक्टेरिया में उपस्थित डी.एन.ए. से अलग होता है। इस प्रकार के प्रजनन को अयोनिज प्रजनन माना गया है। (2.6) वायरस तथा सब-वायरस वायरस वे सूक्ष्म जीव हैं जो दूसरे जीवों की कोशिकाओं में रहते हैं। इनका आकार 0.01 माइक्रोन से लेकर 0.2 माइक्रोन तक होता है। यद्यपि वायरस बहुत ही क्षुद्र एवं सरल होते हैं लेकिन ये कई प्रकार की बीमारियों के मुख्य कारण होते हैं। वायरस इतने सूक्ष्म होते हैं कि वैज्ञानिक इन्हें कभी सजीव तो कभी निर्जीव मानते हैं। ये स्वयं वृद्धि नहीं करते हैं। 22 NITI N II I तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी स्वयं की कोई कोशिका नहीं होती है। इनके कोशिका का एक हिस्सा मात्र ही होता है। ये किसी अन्य की कोशिका, जैसे-बैक्टेरिया में प्रवेश करने के पश्चात् ही वंश - वृद्धि करते हैं। ये उस कोशिका की ऊर्जा को अपनी वंश वृद्धि में प्रयोग करते हैं। जब ये उस आश्रयदाता कोशिका के अन्दर वृद्धि करते हैं तो कोशिका फट जाती है तथा वायरस बाहर फैल जाते हैं । वायरस छड़ या गेंद आदि के आकार के होते हैं । इन वायरसों से सूक्ष्म जीव भी पाये जाते हैं जिन्हें सब - वायरस कहते हैं । इनके सम्बन्ध में अभी खोज जारी है। (3) जैन दर्शनानुसार जीवों का वर्गीकरण जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- त्रस तथा स्थावर । त्रस जीव हैं जो भोजन व सुरक्षा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक धीमी या तेज गति से गमन करते हैं । दुःख-सुख तथा भय आदि का अनुभव करते हैं तथा पन्द्रह प्रकार के दुःखों से स्वयं को बचाने का प्रयत्न करते हैं। ये कम से कम दो इन्द्रिय वाले होते हैं, ये इन्द्रियां हैं - स्पर्शन तथा रसना। पंचेन्द्रिय त्रसों में से कुछ के मन भी होता है। दूसरे प्रकार के जीव स्थावर कहलाते हैं, क्योंकि वे स्वयं गमन नहीं कर सकते हैं। स्थावर जीव पाँच प्रकार के होते हैं - पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक । इन सब जीवों के मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। पृथ्वी जैसे -मिट्टी पत्थर आदि ही है शरीर जिनका वे पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं। इसी प्रकार जल ही है शरीर जिनका वे जलकायिक जीव, अग्नि ही है शरीर जिनका वे अग्निकायिक तथा वायु ही है शरीर जिनका वे वायुकायिक जीव कहलाते हैं। विभिन्न प्रकार के पेड़पौधे वनस्पतिकायिक जीव हैं। सजीवों को भी इन्द्रियों के आधार पर चार वर्गों में विभक्त किया गया है- दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय जीव । जिन जीवों के स्पर्शन तथा रसना या जिह्वा ये दो इन्द्रियां होती हैं वे दो इन्द्रिय जीव कहलाते हैं, जैसे केंचुआ, जोंक आदि । जिन जीवों के स्पर्शन, रसन तथा घ्राण तीन इन्द्रियां पायी जाती हैं वे तीन इन्द्रिय जीव कहलाते हैं, जैसे-चींटी, जूं आदि । जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण व चक्षु (नेत्र) ये चार इन्द्रियाँ पायी जाती हैं वे चार इन्द्रिय जीव कहलाते हैं, जैसे- मक्खी, मच्छर आदि । जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु व कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ पायी जाती हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं, जैसे- गाय, घोड़ा, मनुष्य आदि । दो, तीन व चार इन्द्रिय जीव यदि सूक्ष्म आकार वाले हैं तो यह पता लगाना मुश्किल हो सकता है कि वह कितने इन्द्रिय वाले जीव हैं। लेकिन इन जीवों की अपनी कुछ विशिष्टता तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 1 23 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है जिसे देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि अमुक जीव कितने इन्द्रिय वाला है। दो इन्द्रिय जीवों के न तो टांगें होती हैं और न ही पंख । वे जमीन पर रैंग कर चलते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों के टांगें तो होती हैं, लेकिन पंख नहीं होते हैं। वे अपनी टांगों की सहायता से चलते हैं। चार इन्द्रिय जीवों के टाँगे भी होती हैं तथा पंख भी। वे चल भी सकते हैं तथा उड़ भी सकते हैं। दो इन्द्रिय जीवों की आयु 48 मिनिट से 12 वर्ष तक हो सकती है। तीन इन्द्रिय जीवों की आयु 48 मिनिट से 49 दिन तक हो सकती है तथा चार इन्द्रिय जीवों की आयु 48 मिनिट से 6 माह तक हो सकती है। प्रत्येक जीव (संसारी) के चार, पांच या छह पर्याप्तियाँ होती हैं। ये पर्याप्ति हैंआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन । एक इन्द्रिय जीवों के चार पर्याप्ति होती हैं जबकि दो, तीन या चार इन्द्रिय जीवों के पहली पांच तथा पंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। (4) विवेचना एवं निष्कर्ष यहां हम उपरोक्त वर्णित सूक्ष्म-जीवों को जैन दर्शन के अनुसार वर्गीकृत करने का प्रयत्न करेंगे। सबसे पहले हम प्रोटोजोआ तथा युग्लीना की चर्चा करेंगे। प्रोटोजोआ अपने शरीर का विस्तरण करके किसी भी दिशा में गमन कर सकता है तथा अपने भोजन को निगलने में भी अपने शरीर को एक विशेष आकृति देता है। यद्यपि इसके कोई स्पष्ट मुख नहीं होता है, फिर भी यह भोजन के कणों को निगल लेता है। इसे प्राथमिक पशु मानते हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हए जैन वर्गीकरण के अनुसार उन्हें दो इन्द्रिय जीवों की श्रेणी में रखा जा सकता है। युग्लीवा प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बना सकता है, लेकिन साथ ही इसके स्पष्ट एक मुंह भी होता है। इसे दो इन्द्रिय जीव ही मानना चाहिए। फफूंद तथा काई तो वनस्पति जैसी ही हैं। कई (एग्जे) तो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं जबकि फफूंद एक गैर-प्रकाश संश्लेषित वनस्पति है। वस्तुतः काई कार्बनिक तत्वों को अपना भोजन बना लेते हैं। इन दोनों को वनस्पतिकायिक जीव मानना चाहिए। अब सबसे अधिक दिलचस्प आते हैं बैक्टेरिया । बैक्टेरिया वनस्पति हैं या पशु, स्थावर हैं या त्रस, यह चर्चा करने से पहले हमें वनस्पति एवं पशु के बीच अन्तर को समझना होगा। इनमें मुख्य आधार यह है कि वनस्पति में तंतु-तंत्र का अभाव होता है जबकि पशुओं में तंतु-तंत्र होता है । वनस्पतियों में हारमोन्स उस तरह कार्य नहीं करते हैं जैसे कि पशुओं में करते हैं। बैक्टेरिया में भी तंतु-तन्त्र का अभाव होता है, अतः इन्हें पशु की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता है। इसलिए इन्हें वनस्पति की श्रेणी में रखना चाहिए तथा उन्हें स्थावर 24 AIIIIIIII IIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानना चाहिए। क्षुल्लक श्रीजिनेन्द्र वर्णीजी ने इन्हें एकेन्द्रिय स्थावर माना है। डॉ. नन्दलाल जैन, डॉ. सिकधर और डॉ. अशोक कुमार जैन भी बैक्टेरिया को एकेन्द्रिय वनस्पति ही मानते हैं। लेकिन कुछ बैक्टेरिया पानी तथा हवा में चलते हुये दिखते हैं, इस कारण इनके त्रस होने का भ्रम होने लगता है। चूंकि त्रस जीव वे होते हैं जो चलते हैं, इस बात से तो लगता है कि बैक्टेरिया को त्रस मानना चाहिए। किसी निर्णय पर पहंचने से पहले हमें और अधिक विचार करना चाहिए। सर्व-प्रथम हमें निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए - 1. जैन धर्म में छने पानी के प्रयोग पर विशेष जोर दिया जाता है। यह माना जाता है कि मोटे सूती कपड़े से पानी को छानने पर पानी में स्थित त्रस जीव अलग हो जाते हैं तथा इस प्रकार जो छना पानी प्राप्त होता है वह त्रस जीवों से रहित होता है, उसमें मात्र स्थावर जीव ही रहते हैं। त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए गृहस्थों को यह आवश्यक है कि वे पीने के पानी में तथा अन्य किसी कार्य में छने पानी का ही प्रयोग करें। इतना ही नहीं, मन्दिरों में मूर्ति का अभिषेक करने के लिए तथा अन्य अनुष्ठानों के लिए भी छने पानी के प्रयोग का ही विधान है। अतः यह निर्विवाद है कि छने पानी में त्रस जीवों का अभाव हो जाता है, मात्र स्थावर जीव ही उसमें रह जाते हैं। इस प्रकार छने ये पानी में यदि कोई जीव राशि मिलती है तो वह स्थावर (एकेन्द्रिय) ही होगी। जैसा कि हम जानते हैं कि छने हये पानी में भी अनेकों बैक्टेरिया होते हैं और इनकी संख्या अनछने पानी में मौजूद बैक्टेरियाओं की संख्या के लगभग बराबर ही होती है। अतः छने हुए पानी में पाये जाने वाले बैक्टेरिया को एकेन्द्रिय स्थावर ही मानना चाहिए, त्रस नहीं। 2. जिस हवा में हम श्वास लेते हैं उसमें बहुत से बैक्टेरिया होते है। इन बैक्टेरिया को किसी भी प्रकार से हवा में से हटाया नहीं जा सकता है। साथ ही यह भी सही है कि बिना हवा को ग्रहण किये हम जीवित नहीं रह सकते हैं। यदि बैक्टेरिया को त्रस माना जाये तो जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त में समस्या उत्पन्न हो जायेगी। जैन धर्म के अनुसार हमारे साधु त्रस हिंसा के पूर्ण त्यागी होते हैं तथा इस प्रकार वे अहिंसा महाव्रत का पूर्णरूपेण पालन करते है। यदि हवा में मौजूद बैक्टेरियाओं को त्रस मान लिया जाय तो साधुओं के अहिंसा महाव्रत में दोष लगेगा। इस समस्या का हल यही है कि बैक्टेरिया त्रस नहीं, स्थावर है। 3. दही तथा छाछ का प्रयोग साधु भी कर सकते हैं। लेकिन आज हम सभी जानते हैं कि दही व छाछ में अनगिनत बैक्टेरिया होते हैं। वस्तुतः बिना बैक्टेरिया के दही बन भी नहीं सकता है। यदि दही व छाछ में मौजूद बैक्टेरियाओं को हम त्रस माने तो क्या जैन दर्शन इन त्रसों को सीधा जीवित खाने की अनुमति साधुओं को दे सकता है? कदापि नहीं। अतः यह मानना ही समीचीन होगा कि बैक्टेरिया त्रस नहीं होते, स्थावर ही होते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बैक्टेरिया एकेन्द्रिय स्थावर होते हैं, त्रस नहीं। कुछ जैन दार्शनिकों ने एकेन्द्रिय वायुकायिक एवं अग्निकायिक जीवों को भी त्रस की संज्ञा दे दी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 MIN 25 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। क्योंकि वायुकायिक तथा अग्निकायिक जीव गमन करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मात्र गमन करने से ही जीव को द्वि-इन्द्रिय या उससे अधिक इन्द्रिय वाला त्रस नहीं कहा जा सकता है। अतः दो-इन्द्रिय या उससे अधिक के स के लिए यह परिभाषा होनी चाहिए कि पृथ्वी की सतह पर गमन कर सके वे दो इन्द्रिय या उससे अधिक के त्रस जीव हैं। अन्यथा वे एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं। यह तर्क सूक्ष्म-जीवों पर ही लागू मानना चाहिए, उच्च वर्ग के जीवों, जैसे मछली आदि पर नहीं । अब प्रश्न यह है कि बैक्टेरिया को पांच स्थावरों में से कौन सा मानें ? जैसा कि हम जानते हैं कि बैक्टेरिया प्रायः सभी स्थानों भूमि, जल तथा हवा में पाये जाते हैं। अतः जो बैक्टेरिया भूमि में पाये जाते हैं उन्हें पृथ्वीकायिक जीव मानना चाहिए। इसी प्रकार जो बैक्टेरिया जल में पाये जाते हैं उन्हें जलकायिक तथा जो हवा में पाये जाते हैं उन्हें वायुकायिक व मानना चाहिए। आज कुछ ऐसे बैक्टेरियाओं की खोज की जा चुकी है जो 60-70 ° सैल्शियस ताप पर भी जीवित रह सकते हैं। इसने बैक्टेरियाओं को अग्निकायिक जीव माना जा सकता है। अब वायरस तथा सब-वायरस रहते हैं । जैसा कि हम जानते हैं कि ये सजीव और निर्जीव के मध्य विभाजन रेखा का कार्य करते हैं तथा इनकी स्वयं की कोई कोशिका नहीं होती है जबकि बैक्टेरिया की स्वयं की पूर्ण विकसित कोशिका होती है। अतः वायरस तथा सब वायरसों को बैक्टेरिया से उच्च श्रेणी का तो नहीं माना जा सकता है । अतः ये भी एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं । चूंकि अधिकतर वायरस वायु में पाये जाते हैं, अतः उन्हें वायुकायिक केन्द्रिय जीव माना जा सकता है। (5) दैनिक जीवन में सूक्ष्म-जीव हम बिना हवा व पानी के जीवित नहीं रह सकते हैं। ये हमारे जीवन के अनिवार्य घटक हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि हवा व पानी दोनों में बैक्टेरिया रहते हैं । अतः हम बहुत से बैक्टेरियाओं को साँस लेने तक तथा पानी पीने के दौरान ग्रहण करते हैं। इसके अलावा बहुत से ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जिनमें बहुत से सूक्ष्म जीव रहते हैं, लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता है। बहुत से खाद्य पदार्थों को इन सूक्ष्म जीवों से बचाने के लिए कई प्रकार के उद्यम किये जाते हैं। इन खाद्य पदार्थों में से कुछ की चर्चा हम आगे करेंगे तथा देखेंगे कि यदि इन सूक्ष्म जीवों से पूर्ण रूप से बचा नहीं जा सकता है तो क्या थोड़ा-बहुत बचा जा सकता है या नहीं ? (5.1) ब्रेड, इडली व डोसा ब्रेड, इडली व डोसा बनाने में फँजाई (फँफूद) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । यीस्ट फंजाई का एक प्रकार है, इसी की वजह से ब्रेड बहुत मुलायम बनती है। जब चीनी व गर्म पानी तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 26 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ यीस्ट को मैदे आटे में मिलाया जाता है तो आटे में खमीर उठने लगता है। चीनी तथा गर्म पानी यीस्ट की वृद्धि दर अधिक कर देते हैं। प्रजनन के दौरान यीस्ट कार्बनडाई आक्साइड गैस छोड़ते हैं। गैस के बुदबुदे आटे को खुला (पोला) बना देते हैं जिससे आटा फूलने लगता है, इसी को खमीर उठना बोलते हैं। जब इस आटे को सेका जाता है तो गैस निकल जाती है तथा ब्रेड बहुत हल्की, मुलायम तथा स्पोंजी बनती है। इडली तथा डोसा बनाने में पहले दाल को कुछ समय के लिए भिगोया जाता है। इसी से पहले दाल कुछ फूलने लगती है। फिर इस दाल को पीसा जाता है तथा इसे कुछ समय के लिए रखा जाता है। ऐसा करने पर दाल में खमीर उठने लगता है। फिर यीस्ट पैदा होने लगता हैं। यहां कोई यह पूछ सकता है कि आखिर यीस्ट आता कहाँ से हैं? वस्तुतः यह हमारी हथेलियों से भी आ सकता है और हवा में से भी। ___ अब प्रश्न यह है कि जब ये खाद्य पदार्थ यीस्ट द्वारा बनते हैं तथा उन्हें सेकने के दौरान मार दिया जाता है तो क्या हमें इनको खाना चाहिए या नहीं? जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि फँजाई एकेन्द्रिय जीव हैं तथा इन्हें वनस्पति की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। अतः जिन लोगों ने बह-जीवी वनस्पति का त्याग नहीं किया है वे तो इसे ग्रहण कर सकते हैं और जिन्होंने त्याग कर दिया है वे इसे नहीं ले सकते हैं। यहां यीस्ट (फँजाई) को बहु-बीजी की श्रेणी में रखना चाहिए, क्योंकि खमीर उठाने में अनेकों यीस्ट का योगदान रहता है। दूसरी बात यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि पदार्थों को बिना खमीर उठाये भी बना सकते हैं। हां, इतना अवश्य है कि वे उतने सॉफ्ट नहीं होंगे लेकिन हम बहुत से यीस्ट की हिंसा से तो बच ही सकते है। (5.2) पेय जल में बैक्टेरिया पानी को पीने, खाना बनाने सहित अनेक कार्यों में प्रयोग में लाया जाता है। पानी को छानकर प्रयोग में लाने का विधान है। लेकिन मोटे कपड़े में छानने मात्र से बैक्टेरिया अलग नहीं होते हैं। उन्हें अन्य उपायों, जैसे गरम करने आदि से समाप्त किया जा सकता है। रुके हुये पानी में इन बैक्टेरिया की संख्या बहुत अधिक होती हैं । ट्यूबवैल के पानी में सबसे कम बैक्टेरिया होने की संभावना होती है यदि उसके स्रोत में जमीन से किसी गंदे पानी का रिसाव न हो तो भी उबला हुआ पानी पीने के लिए सबसे अच्छा होता है, क्योंकि इसमें बैक्टेरिया नहीं होते हैं। (5.3) लाभदायक बैक्टेरिया कुछ बैक्टेरिया हानिकारक होते हैं तथा वे मनुष्यों तथा पशुओं में बीमारी पैदा करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टेरिया हमारी तथा पशुओं की आंतों में होते हैं जो भोजन पचाने में सहयोग करते हैं तथा नुकसानदायक सूक्ष्म जीवों को समाप्त कर देते हैं। आंत के बैक्टेरिया कुछ विटामिन भी पैदा करते हैं जो कि हमारे शरीर के लिए आवश्यक हैं। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NI Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो बैक्टेरिया भूमि तथा जल में रहते हैं वे कई पदार्थों को री-सायकल करने में मदद करते है। कुछ बैक्टेरिया मृत शरीरों, मल तथा अन्य कचरे को डीकम्पोज कर देते हैं तथा अन्य रसायनों में बदल देते हैं। कुछ बैक्टेरिया ऐसे रसायनों का निर्माण करते हैं कि जो पौधों एवं वनस्पति के लिए आवश्यक होते हैं। कुछ बैक्टेरिया परमेंटेशन के काम आते हैं तो कुछ नालों की सफाई करने में। कुछ बैक्टेरिया दवाओं के बनाने में भी काम आते हैं। (5.4) दही कैसे बनता है? __ नया दही बनाने के लिए पुराने दही के थोड़े से जामन को हल्के गर्म दूध में डाल दिया जाता है। तीन-चार घण्टे में नया दही तैयार हो जाता है। आज हम सभी जानते हैं कि दही में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव होते हैं जिनमें लैक्टोबेसीलस तथा स्टैफीलोकोकस नामक बैक्टेरिया प्रमुख है। कुछ प्रकार के यीस्ट भी इसमें पाये जाते हैं। एक मिली लीटर दही में लगभग 20 करोड़ बैक्टेरिया पाये जाते हैं। लैक्टोबेसीलस नामक बैक्टेरिया दूध से दही बनाने में अहम् भूमिका निभाता है। जब इन सूक्ष्म जीवों (लैक्टोबेसीलस) को गुनगुने (लगभग 37° सै.) ताप के दूध में मिलाया जाता है तो ये बैक्टेरिया बहुत तेजी से बढ़ने लगते हैं। अपनी इस वंश वृद्धि के दौरान ये दूध के बसा रहित तत्व को ग्रहण कर लेते हैं तथा दूसरा गाढ़ा पदार्थ पैदा करते है जिसे हम दही कहते है। जब एक बार दही बन जाता है तो इसे ठण्डे स्थान पर रख दिया जाता है जिससे इन बैक्टेरिया की और अधिक वृद्धि न हो, इनकी अधिक वृद्धि होने से दही और अधिक खट्टा हो जाता है तथा खाने योग्य नहीं रहता है। यदि अधिक गर्म दूध में जामन डाल दिया जाय तो दही नहीं जमता है, क्योंकि अधिक ताप पर बैक्टेरिया मर जाते हैं। यहां यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि दही बैक्टेरिया की मौजूदगी में ही बनता है। यदि ताजा दही है तब भी उसमें बैक्टेरिया रहते हैं। कई बार देखा गया है कि बिना जामन के या फिर अन्य प्रक्रिया से भी दही जमाया जाता है। ऐसी स्थिति में दूध हवा में उपस्थित बैक्टेरिया को ग्रहण कर लेता है तथा फिर दही उनकी मदद से जमता है। इस तरह जमे दही में भी बैक्टेरिया तो होते ही हैं। (5.5) खाद्य पदार्थों का रक्षण हम सभी जानते हैं कि यदि खाद्य पदार्थ बहत पुराने हो जाय तो वे खराब होने लगते हैं तथा उनमें से कुछ अलग प्रकार की गंध आने लगती है। वस्तुतः कुछ सूक्ष्म-जीव होते हैं जो खाने को खराब कर देते हैं तथा खाने के अणुओं को गंध युक्त एमाइन्स में बदल देते हैं। इससे खाना न सिर्फ देखने में खराब लगता है, बल्कि खाने में भी खराब लगता है तथा बीमारी भी पैदा कर सकता है। खाद्य पदार्थों को यदि इन सूक्ष्म-जीवों से बचा कर रखा जाय तो ये पदार्थ जल्दी खराब नहीं होते हैं। इनका रक्षण कई प्रकार से किया जाता है। खाद्य पदार्थों को पकाकर 28 AIIM NI V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखना इनके रक्षण का एक बहुत ही सामान्य तरीका है। इस पके खाद्य पदार्थ को यदि किसी ठण्डे स्थान, जैसे फ्रिज आदि में रख दिया जाय तो इसे और अधिक लम्बे समय तक सुरक्षित बनाये रखा जा सकता है। कम पकाने पर सूक्ष्म जीव मर जाते हैं तथा ठण्डे स्थान में रखने पर इनकी वृद्धि जल्दी से नहीं होती है। खाद्य पदार्थों को अधिक तेल में डुबोकर रखने से इन्हें खराब होने से बचाया जा सकता है। अचार आदि को इसी प्रकार से सुरक्षित रखा जाता है। गेहूँ को सुरक्षित बनाये रखने के लिए भी तेल का प्रयोग किया जाता है। ऐसा करने से हवा में उपस्थित बैक्टेरिया आदि सूक्ष्म जीव खाद्य पदार्थ के सम्पर्क में नहीं आ पाते हैं तथा वह सुरक्षित रह जाता है। गेहूँ को नीम आदि की पत्तियों के साथ रखने से भी सुरक्षित रखा जा सकता है। नीम के पत्तों की उपस्थिति भी इन सूक्ष्म जीवों की वहां वृद्धि नहीं होने देती हैं। बन्द डिब्बों में सामान को रखने से भी इन्हें अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। बन्द डिब्बे सूक्ष्म जीवों का सम्पर्क खाद्य पदार्थों से नहीं होने देते हैं। सूखा मेवा, मसाले तथा दूध आदि को बन्द पैकेट में इसीलिए रखा जाता है। खेती के बीजों को बन्द डिब्बों में रखा जाता है। वस्तुतः बन्द डिब्बे सूक्ष्म-जीवों की उपस्थिति को पूर्ण रूप से समाप्त तो नहीं कर पाते हैं, लेकिन वे उनकी वृद्धि को अवश्य ही सीमित कर देते हैं। बन्द डिब्बों में भी थोड़ी बहत ऑक्सीजन तो होती है ही, वह सूक्ष्म जीवों को जीवित बनाये रखती है। नहीं तो कम से कम वहाँ सूक्ष्म जीवों के स्योर तो पैदा हो ही जाते है। अतः समय-समय पर इन डिब्बों को भी खाली करके साफ कर लेना चाहिए। . खाद्य-पदार्थों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए कुछ प्रिजर्वेटिव (रसायन) भी प्रयोग में लाये जाते हैं। इनकी उपस्थिति सूक्ष्म-जीवों की वृद्धि को रोकती है। खाद्य अम्ल तथा नमक बहत ही आम प्रिजर्वेटिव्स हैं। अम्ल उन एन्जाइम को निष्क्रिय बना देते हैं जो खाद्य पदार्थों को खराब कर देते हैं तथा नमक खाद्य पदार्थों में उपस्थित नमी का अवशोषण कर लेता है। इसीलिए मुरब्बे तथा शीत पेय बनाने में कुछ अम्लों जैसे-सोडियम बैंजोनेट या सोडियम मेटा सल्फेट को मिला दिया जाता है तथा पिसे ये मसालों में नमक मिला दिया जाता है और अधिक बचाव करने के लिए इन्हें रेफ्रीजरेटर्स में रख दिया जाता है। . सूक्ष्म जीव न सिर्फ खाद्य-पदार्थों को खराब करते हैं, बल्कि अखाद्य-पदार्थों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। उदाहरण के तौर पर बरसात के दिनों में किताबें तथा गर्म कपड़े खराब हो जाते हैं। इसीलिए आमतौर पर इन्हें धूप में रख दिया जाता है। (5.6) दूध का पास्चीकरण प्रायः जो दूध बड़े शहरों में वितरित किया जाता है उसे पहले पास्चीकृत कर लिया जाता है। ऐसा करने से दूध अधिक समय तक सुरक्षित बना रहता है। पास्चीकरण की प्रक्रिया में पहले दूध को लगभग 15 सैकेण्ड तक 70 डिग्री सैल्सियस ताप पर गर्म किया व तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AM 0011IIIIIIIIIIIIII I Y 29 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उबाला जाता है तथा उसके तुरन्त बाद ही उसे बहुत अधिक ठण्डा कर दिया जाता है। दूध को उबालने से उसमें मौजूद बैक्टेरिया नष्ट हो जाते हैं तथा शीघ्र ही ठण्डा कर देने से नये बैक्टेरिया पैदा नहीं हो पाते हैं। सामान्यतः दूध डेरियों में मात्र उस दूध का ही पास्चीकरण करा जाता है जिसमें बैक्टेरिया की संख्या 250 पी.पी.एम. (पार्ट्स पर मिलियन) हो । यदि दूध में इससे अधिक बैक्टेरिया हों तो उसे इस्तेमाल नहीं करा जाता है। दूध को सुरक्षित बनाये रखने के लिए डेरियों को बिल्कुल स्वच्छ रखा जाता है जिससे किसी भी प्रकार के फूड़-पोयजिंग की संभावना से बचा जा सके। इस प्रकार डेरी के दूध को ग्रहण करने में कोई दोष नजर नहीं आता है तथापि जैन धर्म के अनुसार यदि दूध को 48 मिनिट के अन्दर गर्म न किया जाय तो उसमें अनन्त सम्मूर्च्छन जीव पैदा हो जाते हैं। यदि दूध को तुरन्त ही गर्म कर •लिया जाय तो इन जीवों को पैदा होने से रोका जा सकता है। सन्दर्भ ग्रन्थ 1. 2. 3. 4. 30 'शान्ति पथ प्रदर्शन', ले. क्षु. जिनेन्द्र वर्णी ‘Scientific Contents in Prakrit Canons' by Dr. N.L. Jain 'Jain Biology' by Dr. S.C. Sikdhar 'आस्था और अन्वेषणा', संपादक - सुरेश जैन (विशेष दृष्टव्य - डॉ. अशोक कुमार जैन का लेख ) बी-26, सूर्यनारायण सोसायटी विसत पैट्रोल पम्प के सामने साबरमती, अहमदाबाद- 380005 NW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैनग्रन्थद्रव्यानुयोग तर्कणा में पर्याय का स्वरूप -डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी द्रव्य विचार जैन-धर्म का प्रधान विचार है। द्रव्य के ज्ञान के बिना किसी को भी जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः कहा भी गया है कि मोक्षाभिलाषीजनों को षट् द्रव्यों का ज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिए जैन दर्शन में द्रव्यों के ज्ञान के कारण द्रव्यानुयोग की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गयी है।' द्रव्यानुयोग के इस महत्त्व को देखते हुए तपोगच्छ गगनमण्डल मार्तण्डश्री विनीतसागरजी के मुख्य शिष्य द्रव्यविज्ञाननागर, सकलगुणसागर श्री भोजसागर ने विक्रम संवत 1500 के आसपास इस ग्रन्थ की रचना की। पन्द्रह अध्यायों में विरचित इस ग्रन्थ में लेखक ने द्रव्य, गुण और पर्याय का विस्तार से विवेचन किया है। द्रव्यानुयोगतर्कणा की रचना के उद्देश्य के बारे में ग्रन्थकार ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि-''आत्मोपकृतये कुर्वे द्रव्यानुयोगतर्कणा।'' 2 . अर्थात् आत्मा के उपकार के लिए जीव-अजीव आदि द्रव्यों को जानकर संसारसागर से जीव के उद्धार के लिए मैं इस द्रव्यानुयोगतर्कणा नामक ग्रन्थ की रचना करता हूं। द्रव्यानुयोग तर्कणा में द्रव्य, गुण और पर्याय की सांगोपांग विवेचना हई है। विषय की दृष्टि से पर्याय की विवेचना यहां अभीष्ट है। पर्याय को परिभाषित करते हुए राजवार्तिक में कहा गया है, "परि समन्तादायः पर्यायः'' अर्थात् जो सब और से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। अर्थात् परिवर्तन का नाम पर्याय है। पर्याय का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पर्याय का स्थान द्रव्य है। कहा भी गया है-''गुणपर्यायः स्थानमेकरूपं सदापि यत् ।'4 अर्थात् गुण, पर्याय जब भी होंगे तब द्रव्य में ही होंगे। पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट भी पर्याय को इसी रूप में स्वीकार करते हुए कहते हैं "Modes has no independent existence. It always depends upon substance." । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANTIVIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII IIV 31 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याय का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह सदा द्रव्य पर निर्भर करता है। परिणामी नित्यत्ववादी जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। अनित्यता का सूचक पर्याय की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है—स्वभाव विभावरूप तथा याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः । तत्त्वार्थसूत्र में तद्भावः परिणाम: कहकर परिणमन को ही पर्याय माना गया है। सर्वार्थसिद्धि में पर्याय को द्रव्य का विकार मानते हुए कहा गया है- दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः द्रव्य के विकार को ही पर्याय कहते है। चूंकि द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। पर्याय के अनेक पर्यायवाची शब्द कहे गये हैं। 'ववहारो य वियापो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ओ'8 अर्थात् व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थक है। श्री भोजसागर ने द्रव्यानयोगतर्कणा में पर्याय को व्याख्यायित करते हुए कहा हैपर्यायः क्रमभाव्यथ अर्थात् द्रव्य में क्रम से होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहा गया है। जैसे स्थास, कुशूल, घट आदि । अन्यत्र भी क्रमवर्तिनः पर्यायाः का उल्लेख मिलता है। इसी को इस रूप में भी प्रस्तुत किया गया है- एकस्मिन द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् अर्थात एक ही द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं जैसे एक ही आत्मा में हर्ष और विषाद । श्लोकवार्तिक में पर्याय को सहभावी भी माना गया है। 12 किन्तु तर्कणाकार ने सहभावी गुणोधर्मः' कहकर सहभावी को पर्याय न मानकर गुण माना गया है। पर्याय के भेद पर्याय को परिभाषित कर लेने के पश्चात अब पर्याय के भेद पर प्रकाश डाल लेना आवश्यक प्रतीत होता है। तर्कणा में पर्याय के दो भेदों का उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है तत्र व्यंजनपर्यायस्त्रिकालस्पर्शननो मतः। द्वितीयश्चार्थ पर्यायो वर्तमानाणुगोचरः ।। 4 अर्थात् व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय ये पर्याय के दो भेद हैं। तत्त्वार्थवृत्ति में भी व्यंजन पर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति कहकर पर्याय के ही दो भेद किये हैं। ___व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय- त्रिकालस्पर्शिनो व्यंजन पर्यायः अर्थात् जिसका स्पर्श भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में होता है वह व्यंजन पर्याय है। घटादिका, मृतिका आदि पर्याय व्यंजनपर्याय है। वर्तमानाणुगोचरः सूक्ष्मवर्तमानकालवर्ती अर्थपर्यायः अर्थात् सूक्ष्म वर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय है। भाव यह है कि जिस क्षण में घट विद्यमान है उसी क्षण की विद्यमानता से वह घट अर्थपर्याय है। यथाहि घटादेस्तत्तत्क्षणवर्ती पर्यायः यस्मिन्कालेवर्तमाम तथा स्थिरस्तत्कालापेक्षाकृत विद्यमानविनार्थपर्याय । 16 वसुनंदि 32 AIIMINS AIMI MITIY तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार में इसी को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-सुहमा अवाय विसया खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा । वंजणपज्जया पुण थूलागिए गोयरा चिरविवत्था।” अर्थात् अर्थपर्याय सूक्ष्म है, अवाय (ज्ञान) विषयक है, अतः शब्द से नहीं कहा जा सकता और क्षण-क्षण में बदलता रहता है किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर है अर्थात् शब्द से कहा जा सकता है और चिरस्थायी है। तर्कणा में व्यंजनपर्याय के भेद पर प्रकाश डालते हुए कहा गया हैद्रव्यतो गुणतो द्वेधा शुद्धतोऽशुद्धतस्तथा।। शुद्ध द्रव्य व्यंजनाख्यश्चेतनो सिद्धता यथा ॥18 अर्थात् व्यंजनपर्याय के दो भेद हैं-द्रव्यव्यंजनपर्याय और गुणव्यंजनपर्याय । शुद्धता और अशुद्धता की दृष्टि से दोनों के दो-दो भेद किये गये हैं। द्रव्यव्यंजनपर्याय के दो भेद-शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय, अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय । उदाहरणार्थ चेतन द्रव्य का सिद्ध पर्याय शुद्ध द्रव्य-व्यंजनपर्याय है और चेतन द्रव्य का मनुष्य, देव, नारक और तिर्यंच पर्याय अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है। गुण से भी इसी प्रकार का भेद किया गया है। केवलज्ञान पर्याय शुद्ध गुणव्यंजनपर्याय है और मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान अशुद्ध गुण व्यंजनपर्याय है। नियमसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने इसी को स्वभाव और विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय कहा है। शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय परमाणु है जिसका कभी नाश नहीं होता और द्वयणुक आदि अशुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय है, क्योंकि ये संयोग से उत्पन्न होने के कारण नाशवान है । परमाणु के गुण की अपेक्षा से शुद्ध गुण व्यंजनपर्याय और द्वयणुकादि के गुण की अपेक्षा से अशुद्ध गुण व्यंजनपर्याय भी माना गया है। अर्थ पर्याय को स्पष्ट करते हुए भी तर्कणा में कहा गया हैऋजुसूत्रमतेनार्थपर्यायः क्षणवृत्तिमान । आभ्यन्तरः शुद्ध इति तदन्योऽशुद्ध ईरितः ॥ अर्थात् अर्थपर्याय क्षणवृत्ति वाला है। व्यंजनपर्याय की तरह ही अर्थपर्याय भी शुद्ध अर्थपर्याय और अशुद्ध अर्थपर्याय से दो प्रकार का है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से जो क्षणक्षण में परिणाम को प्राप्त होता है, इसे शुद्धार्थपर्याय और इससे अन्य अर्थात् अधिक कालवर्ति होने से अशुद्ध अर्थपर्याय का भी अस्तित्व है। तर्कणाकार ने व्यंजन और अर्थपर्याय के अंतर को एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है नरो हि नर शब्दस्य यथा व्यंजनपर्यायः । बालादि कोऽर्थ पर्यायः संमतो भणितस्त्वयम् ।।21 अर्थात मनुष्य का मनुष्य पर्याय व्यंजन पर्याय है और बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था अर्थपर्याय है। सन्मति तर्क में भी इसी तथ्य को इस रूप में स्पष्ट किया गया है 001 33 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसंमि पुरिससद्दो जम्माह मरणकालपजजंतो। तस्सओ बालाईया थज्जवभेया बहु विगप्या | जैसे पुरुष में पुरुष यह शब्द जन्म से मरण तक रहता है, यह व्यंजनपर्याय है और उस पुरुष में बाल, युवा इत्यादि जो भेद है, ये सब अर्थपर्याय है। अर्थ और व्यंजनपर्याय का स्वामित्व ज्ञानार्णव में अर्थ और व्यंजन पर्याय के अलग-अलग स्वामित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है धमाधर्म नभः कालो अर्थ पर्याय गोचराः । व्यञ्जनाख्यस्य सम्बन्धो द्वावन्योजीवपुद्गलो ।।23 धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो अर्थपर्याय गोचर है और अन्य दो पुद्गल और जीव अर्थ और व्यंजन दोनों पर्याय हैं किन्तु तर्कणाकार दिगम्बर परम्परा की इस मान्यता से सहमत नहीं है। उनके अनुसार यथाऽऽकृतिश्च धर्मादेः शुद्धो व्यंजनपर्यवः । लोकस्य द्रव्यसंयोगादशुद्धोऽपि तथा भवेत्। अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का आकार लोकाकाश प्रमाण स्थितरूप है। इसलिए परद्रव्य की निरपेक्षा से यह शुद्ध द्रव्यव्यंजनपर्याय है और लोक के द्रव्यों के संयोग से अशुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय भी है। व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय के स्वामित्व के पश्चात् तर्कणाकार ने आकार के साथसाथ संयोग को भी पर्याय के अन्तर्गत समाहित किया है और इसके लिए उत्तराध्ययनसूत्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। आचार्य भोजसागर के अनुसार आकृतेरिव संयोगः पर्यवः कथ्यते यतः।। उत्तराध्ययनेऽभ्युक्तं पर्यायरूप हि लक्ष्णम् ।। संयोग को भी आकृति के समान पर्याय कहा जाता है। उत्तराध्ययन में पर्याय का जो लक्षण किया गया है, उसमें संयोग भी एक है। लक्षण इस प्रकार है एगतं च पुंहत्तं च संख्या संठाणमेव च। संयोगोवा विभागो य पज्जवाणं तु लक्खणं ।।। एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग ये पर्याय के 6 लक्षण हैं। अतः संयोग भी पर्याय है। गुण-पर्याय का खण्डन नयचक्र के रचयिता देवसेन ने पर्यायों के जो चार भेद किये हैं, उनका उल्लेख करते हुए आचार्य भोजसागर कहते हैं 34 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वजातेश्च विजातेश्च पर्याया इत्यर्थके। स्वभावाच्च विभावाच्च गुणे चत्वार एव च ।। जैसे द्रव्य के विषय में सजातीय और विजातीय से दो द्रव्य पर्याय होते हैं वैसे ही गुण के विषय से स्वभाव और विभावगुण ये दो पर्याय होते हैं। द्वयणुक सजातीय द्रव्य पर्याय हैं, मनुष्य आदि विजातीय द्रव्य पर्याय हैं। केवलज्ञान स्वभाव गुणपर्याय है और मतिज्ञान आदि विभाव गुण पर्याय है। देवसेन के इस पर्याय विचार को निम्न चार्ट से समझा जा सकता है देवसेन के नयचक्र के अनुसार पर्याय पर्याय द्रव्य पर्याय गुणपर्याय सजातीयद्रव्य पर्याय विजातीय द्रव्य पर्याय स्वभावगुण पर्याय विभाव गुणपर्याय (द्वयणुक) (मनुष्य) (केवलज्ञान) (मति, श्रुतादि) किन्तु गुणपर्याय के इस विचार का खण्डन आचार्य भोजसागर ने द्रव्यानुयोगतर्कणा में इस प्रकार किया है गुणानां हि विकारः स्युः पर्याया द्रव्यपर्यवाः । इत्यादि कथयन्देवसेनो जानाति किं हृदि ।।28 जब गुणों का विकार पर्याय है तो द्रव्यपर्याय के साथ गुणपर्याय कैसे माना जा सकता है? द्रव्य में तो गुण अवश्यम्भावी है पर गुण में तो गुणता का अभाव होता है। अतः गणपर्याय की देवसेन की मान्यता कदापि उचित नहीं है। द्रव्यानुयोगतर्कणा के अनुसार पर्याय को हृदयंगम करने के लिए निम्न चार्ट का अवलोकन आवश्यक प्रतीत होता है पयार्य व्यञ्जन पर्याय (मनुष्य) अर्थ पर्याय (मनुष्य की विविध अवस्था) द्रव्य व्यंजन पर्याय गुणव्यंजन पर्याय शुद्ध अर्थ पर्याय अशुद्ध अर्थ पर्याय शुद्ध द्रव्य अशुद्ध द्रव्य शुद्ध गुण अशुद्ध गुण (क्षण क्षण में (कुछ क्षण अधिक व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय व्यंजन पर्याय पर्याय को प्राप्त में पर्याय को प्राप्त (चेतन में (मनुष्य, देव, (केवल (मति होने वाला) होने वाला) सिद्ध) नारक, तिर्यञ्च) ज्ञान) श्रुत्यादि) उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि द्रव्यानुयोग तर्कणाकार ने पर्याय के सम्बन्ध तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITIY MIN 35 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में तार्किक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस विवेचन में वे सन्मतितर्क प्रकरण और उत्तराध्ययन से अधिक प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। पर्याय सम्बन्धी विपरीत चिन्तन का खण्डन भी उन्होंने बहुत ही तार्किक ढ़ंग से किया है। इस प्रकार पर्याय का एक सांगोपांग विवेचन यहां प्रस्तुत हो सका है। संदर्भ ग्रन्थ सूची : 1. द्रव्यानुयोगतर्कणा, प्रस्तावना पृ. 13 2. वही 1/1 3. वही 1/33/1/95/6 4. द्रव्यानुयोग तर्कणा 2/1 5. आलाप पद्धति, 6 6. 8. 9. द्रव्यानुयोगतर्कणा 2/2 10. स्याद्वादमंजरी, 22 5/38/309-310 गोम्मटसार जीवकाण्ड मूल. 572/1016 11. परीक्षामुख 4/8 12. यः पर्यायः सद्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति । 13. द्रव्यानुयोगतर्कणा 2/2 14. वही 14/2 36 15. 16/36/8 16. द्रव्यानुयोगतर्कणा, व्याख्या 14/2 17. वसु श्रा. 25 18. द्रव्यानुयोगतर्कणा 14/3 19. नियमसार 15 / 28 20. तर्कणा 14/5 21. वही 14/6 22. सन्मति तर्क 1/6 23. 6/40 24. तर्कणा 14/10 25. वही 14/11 26. उत्तराध्ययन 27. तर्कणा 14/15 28. वही 14/17 सहायक आचार्य जैन दर्शन एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं- 341306 (राज.) 000 W तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा : स्वरूप, विमर्श एवं विकास (महावीर की जन्मभूमि बिहार के विशिष्ट अवदान के सन्दर्भ में) -डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव एहिं प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति-व्युत्पत्ति के सम्बध में दो मान्यताएं प्रचलित हैं। प्रथम मान्यता है कि प्राकृत-भाषा संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई है। यह तो प्रकृति के नियमानुसार सबसे पहले स्वयं उत्पन्न हई। इसीलिए इसका नाम 'प्राकृत' है। इसी भाषा में संस्कार आने के बाद संस्कृत-भाषा बनी। जर्मनी के प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डॉ. रिचर्ड पिशेल ने 'प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण'' में अनेक प्राकृत और वैदिक भाषाओं की समानता दिखाई है। जैसे - प्राकृत > वैदिक त्तण त्वन आए > आये (स्त्रीलिंग षष्ठी एकवचन) > एभिः (तृतीया का बवचन) होहि > बोधि (आज्ञावाचक) ता, जा, एत्थ > तात्,यात्, इत्था अम्हे > अस्मे वग्गूहिं वग्नुभिः सदिधं सध्रीम् विऊ > विदुः धिंसु > प्रंस रुक्ख > रुक्ष इत्यादि। डॉ. पिशेल से प्रभावित होकर 'प्राकृत-साहित्य का इतिहास' के लेखक डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने प्राकृत को संस्कृत से उत्पन्न मानने को अस्वीकार करते हुए कहा है कि तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NTI TI I IIIIIIIIIIIIV 37 AAAAAAAAAAAA Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आर्यभाषा का प्राचीनतम रूप हमें ऋग्वेद की ऋचाओं' में मिलता है। दुर्भाग्य से आर्यों की बोलचाल का ठेठ रूप जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। लेकिन वैदिक आर्यों की यही सामान्य बोलचाल, जो ऋग्वेद की संहिताओं की साहित्यिक भाषा से जुदा है, प्राकृत का मूल रूप है। ___ रुद्रट के 'काव्यालंकार' (2-12) के टीकाकार नमिसाधु ने प्राकृत को संस्कृत आदि सभी भाषाओं का मूल कारण मानते हुए प्राकृत की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है''सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् ।... प्राकृत बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषा निबन्धनभूतं वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवेकस्वरूपं तदेव च देशविशेसात् संस्कारणाच्च समासादित विशेष सत्संस्कृताधुत्तरविभेदानाप्नोति।'' अर्थात्, व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन समस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचन-व्यापार को 'प्रकृति' कहते हैं। उसे ही 'प्राकृत' कहा जाता है। बालक, महिला आदि की समझ में यह सरलता से आ सकती है और समस्त भाषाओं का यह कारण भूत है। मेघधारा के समान एक रूप और देश-विदेश के कारण या संस्कार के कारण जिसने विशेषता प्राप्त की है और जिसके सत्, संस्कृत आदि उत्तर विभेद हैं। । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता ठीक इसके विपरीत है। प्राकृतभाषा के प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रसिद्ध कोषकार हेमचन्द्राचार्य के सूत्र से स्पष्ट है कि संस्कृतभाषा से ही प्राकृत भाषा की उत्पत्ति हुई-प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतं (सिद्धहेमशब्दानुशासन 1-1 की वृत्ति) । किन्तु यह एक पक्षीय व्याख्या-विश्लेषण है। इस उक्ति में यह अर्थ भी निहित है कि प्राकृत व्याकरण जानने के लिए संस्कृत की प्रकृति आवश्यक है अर्थात् जिसकी प्रकृति संस्कृत है उसी के अनुरूप चलने वाली (शब्द/धातु रूप सिद्ध करने वाली) भाषा प्राकृत है। अतः प्राकृत जनभाषा थी । प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भट्ट श्रीमथुरानाथ शास्त्री ने 'गाथासप्तशती' की अपनी विस्तृत भूमिका में प्रसंगवश लिखा है कि देश और जलवायु के प्रभाव से या कण्ठ, तालु आदि के विलक्षण अभिघात से या उच्चारण आदि की अपटुता या और भी किसी मूल कारण से प्राकृत आदि भाषाओं की उत्पत्ति सम्भव हुई होगी। किन्तु यह संदर्भ विशेष आधारपूर्ण प्रतीत नहीं होता। किन्तु प्राकृत के लिए एक बड़ी ही गुणप्रद बात हुई है कि यह वर्गवाद से सम्बन्धित होने के कारण प्रचुर प्रसार पा गई। वैदिकों तथा जैनों एवं बौद्धों के बीच जब धार्मिक संघर्ष उपस्थित हुआ, तब वैदिकों की भाषा तो संस्कृत रह गई, किन्तु प्रतिद्वन्द्वितावश जैनों ने अर्द्धमागधी और बौद्धों ने पालिभाषा में धर्म प्रचार प्रारम्भ किया। हालांकि पालि और प्राकृत-भाषाएं संस्कृत का ही अनुसरण करके चलती हैं। इसलिए इन दोनों भाषाओं को संस्कृत से भिन्न न मानकर संस्कृत का भेदमात्र मानना अधिक युक्तिसंगत होगा। 38 ANTI तुलसी प्रज्ञा अंक 111--112 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि कोई भी भाषा जब तक व्याकरण के नियमों से निगढ़ित नहीं होती, तब तक वह जनभाषा बनी रहती है और जब भाषा व्याकरण तथा साहित्यिक शास्त्रानुशासन से बाँध दी जाती है, तब वह जनता से दूर जा पड़ती है। यह दशा संस्कृत और क्रमशः प्राकृत तथा पालि की रही। जो प्राकृत एक युग में अपनी सरलता के कारण जन-जन की भाषा थी, वही व्याकरण के नियमों की मर्यादा से प्रौढ़त्व प्राप्त करने के बाद अव्यावहारिक बन गई। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कन्या जब तक बाल्यावस्था में रहती है, वह माता-पिता तथा अन्यान्य बन्धु वर्ग के आनन्द का स्रोत बनी रहती है वही जब युवती होकर अपनी पत्नीत्व मर्यादा में नियन्त्रित हो जाती है, तब एक सीमित परिवार के ही आनन्द का माध्यम बनती है, तो अब प्राकृत भाषा जनभाषा की अपेक्षा पुस्तकीय भाषा-मात्र रह गई है। प्राकृत भाषा के विकास का गहरा प्रभाव संस्कृत पर पड़ा है। प्राकृत के विकास से संस्कृत विकृत या लुप्त नहीं हुई। स्वाभाविक तौर से यही होता है कि किसी नवीन भाषा के स्वरूप के विकास के बाद पुराना स्वरूप धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। किन्तु, संस्कृत के सम्बन्ध में दूसरी बात हुई। संस्कृत और वेगवती हो गई। बुद्ध और महावीर के पहले आर्यों की संस्कृत भाषा-अधिकतर यज्ञानुष्ठान और तत्त्व-चिन्तन जैसे उच्च कक्ष के साहित्य का स्पर्श करती थी। शिष्टता के शिखर पर ही इसका व्यवहार होता था, वह दैनिक विषयों को नहीं छूती थी। जब प्राकृत-भाषा ने धर्म के अतिरिक्त प्रजा-जीवन के व्यवहार की बातों को भी साहित्यिक स्वरूप देना प्रारम्भ किया तब प्राकृत संस्कृत की प्रतिस्पर्धिनी हो गई। इससे एक लाभ यह हुआ कि संस्कृत को अपने अस्तित्व के लिए प्राकृत की तरह लोकप्रिय होने का आह्वान मिला। प्राकृत तो जनसामान्य की भाषा होने से पहले ही लोकप्रिय थी। संस्कृत ने इस आह्वान का योग्य उत्तर भी दिया। यज्ञ-याग और उपनिषदों की चर्चा से आगे बढ़कर, समाज के अनेक वर्गों में अपना स्थान अधिकृत करने के लिए संस्कृतसाहित्य बहुपथीन हुआ। किसी एक विषय तक ही सीमित न होकर अनेक लोकप्रिय विषयों में भी संस्कृत का व्यवहार बढ़ने लगा। इस काल में (ई. पू. 5वीं शती के बाद) आर्य प्रजा ने अपनी संस्कृति समग्र भारत पर जमा ली थी और संस्कृत का व्यवहार अनेक आर्य और आर्येतर भी करने लगे थे। संस्कृत का क्षेत्र अब एकदम विशाल हो गया। अनेक प्रकार के साहित्य की सर्जना होने लगी। इस प्रवृत्ति से संस्कृत के भाषा-स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ। जब कोई एक भाषा अन्यभाषी प्रजाओं में व्यवहार में प्रयुक्त होने लगती है तब उसके व्याकरण-नियमों या स्वरूपों की संकुलता स्वतः कम हो जाती है और शब्दों के अर्थ भी बदलने लगते हैं। संस्कृत भी इसी तरह बदलती गई। किन्तु अब उसका व्यवहार क्षेत्र बढ़ गया और इससे उसका शब्दकोश भी समृद्ध हो गया । प्राकृत-भाषा के विकास क्षेत्र पर अपने बढ़ते हुए शब्दकोश के द्वारा संस्कृत ने भी अपना विकास जारी रखा। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMI IIIIIIV 39 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस काल के कई साहित्य-स्वरूप ऐसे हैं, जो बाहर से संस्कृत हैं, जिस पर संस्कृत का आवरण है, किन्तु नीचे प्रवाह है प्राकृत का । यह साहित्य समाज के दोनों वर्गों नागरिक और ग्रामीण में सफलतापूर्वक प्रवेश पाता रहा। इसके नमूने हैं महाभारत जैसी विशाल रचनाएं। वस्तुतः इस महान् ग्रन्थ के अन्तस्तल में प्रवाह है प्राकृत का, किन्तु बाह्य रूप है संस्कृत का । भाषा वैज्ञानिकों के लिए यह भाषा-स्वरूप के शोध का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। प्राकृत-काल का आरम्भ बिहार के विमल विभूति भगवान् महावीर के समय से होता है। सच पूछिए तो प्राकृत का उत्पत्ति - स्थल बिहार का मगध क्षेत्र माना जा सकता है। इसीलिए संभवतः इसका नाम 'अर्द्धमागधी' भी है । जिस प्रकार बौद्ध त्रिपिटक की भाषा को 'पालि' नाम दिया गया है, उसी प्रकार जैनागमों की भाषा को 'अर्द्धमागधी' कहा जाता है। निशीथचूर्णिकार के मतानुसार मगध के अर्द्धभाग में बोली जाने वाली अथवा अट्ठारह देशी भाषाओं से नियत भाषा को 'अर्द्धमागधी' कहा गया है- 'मगहद्धविसयभासानिबद्धे अद्धमागहं अहवा अट्ठारहसदेसीभासाणियतं अर्द्धमागहं ।' नवांगी टीकाकार अभयदेव के अनुसार इस भाषा में कुछ लक्षण मागधी के और कुछ अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं, इसलिए इसे ‘अर्द्धमागधी' कहा जाता है : 'मागधभाषालक्षणं किंचित् प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सा अर्द्धमागधीति (भगवती सूत्र 5-4 ओववाइय टीका 34 ) । ' कतिपय भाषा वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि अर्द्धमागधी नाम इसलिए पड़ा कि यह भाषा शुद्ध मागधी नहीं थी । यह पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के बीच के क्षेत्र में बोली जाती थी, इसलिए इसे 'अर्द्धमागधी' कहा गया। महावीर जहां विहार करते थे, इसी मिश्रित भाषा में उनका उपदेश या प्रवचन होता था । धीरे-धीरे अन्यान्य प्रान्तों की देशी भाषाओं का मिश्रण भी इसमें हुआ। जैनागमों को संकलित करने के लिए स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में और देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में सम्पन्न साधु-सम्मेलनों पश्चात् जैनागमों की अर्द्धमागधी में अवश्य ही तत्स्थानीय प्राकृतों का प्रभाव पड़ा होगा । प्राकृत कोई एक भाषा नहीं, अपितु यह नाम इसके कई प्रकारों के समाहृत रूप का द्योतक है। इसके प्रकारों में पालि, अर्द्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची आदि विशेष उल्लेख्य हैं। उपर्युक्त मागधी प्राकृत के आविर्भाव और अभ्युदय का सर्वाधिक बिहार को ही है । यह मागधी मगध - जनपद (बिहार) की भाषा थी । मागधी भी कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं थी, अपितु इसमें शाकारी, चाण्डाली और शावरी भाषाओं का भी अन्तर्भाव हो गया था। डॉ. पिशेल का कहना है कि मागधी एक भाषा नहीं थी, वरन् इसकी बोलियाँ विभिन्न स्थानों में प्रचलित थीं । जैनागमों में प्रयुक्त अर्द्धमागधी को आर्यभाषा भी उनकी ओर से कहा गया है, जो प्राकृत को संस्कृतोद्भूत न मानकर एक स्वतन्त्र भाषा मानते हैं, परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने जो प्राकृत को संस्कृतप्रभव मानते हैं, अपने प्राकृतव्याकरण (1-3) में 40 V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताया कि अर्द्धमागधी भाषा के व्याकरण के सब नियम आर्षभाषा के लिए लागू नहीं होते, क्योंकि उसमें बहुत सारे अपवाद हैं— आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते। भगवान् महावीर का जन्म बिहार में वैशाली के उपनगर 'कुण्डग्राम' में हुआ और उनका विहार क्षेत्र मगध था। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने अपना उपदेश अपने पट्टशिष्यों को दिया और उनके पट्टशिष्यों में प्रमुख गौतम गणधर ने उन उपदेशों का संकलन किया । भगवान् महावीर का उपदेश मगध की तत्कालीन प्रचलित भाषा में हआ था। बुद्ध भगवान् भी मगध में घूमे थे, किन्तु वे पर जनपद के थे। उनका जन्म कोसल में हआ और शिक्षा भी उन्होंने कोसल में ही पाई थी। किन्तु महावीर मगध-उत्तर मगध के निवासी थे, इसलिए भगवान् महावीर की भाषा 'अर्द्धमागधी' (प्राकृत) पालि-जैसी उतनी अधिक मिश्रित नहीं हुई। बौद्ध परम्परा की भांति जैन परम्परा में भी तीन वाचनाएं (आवृत्तियां) मिलती हैं। किन्तु विलक्षण समता यह है कि बौद्ध वाचनाओं की भांति जैन वाचनाओं की ऐतिहासिकता भी विवादास्पद है । गणधरों के द्वारा संगृहीत महावीर वाणी का मूल रूप हमें तृतीय वाचना के बाद ही मिलता है। प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के 160 वर्षों के बाद पाटलिपुत्र में हुई। जैन परम्परा बताती है कि वीर-निर्वाण 150 वर्षों के बाद मगध- पाटलिपुत्र में बारह वर्षों का भयानक अकाल पड़ा और भद्रबाह प्रभृति जैनश्रमणों को आत्मरक्षा के लिए यहाँ से अतिदूर दक्षिण भारत में कर्णाटक की ओर चला जाना पड़ा। अकाल के बाद जैन श्रमण पुनःवापस आ गये। कुछ तो वहीं रह गये। मगध में वापस आने के बाद श्रमणों को अनुभव हुआ कि इस प्रकार के आकस्मिक अघातों से स्मृति-संचित उपदेश छिन्न-भिन्न हो जायेंगे, इसलिए भगवान् के वचनों को व्यवस्थित करना आवश्यक है। तदनुसार ई.पू. चौथी शती में इसी पाटलिपुत्र में ही जैनश्रमण-संघ की पहली परिषद् में आगम साहित्य व्यवस्थित किया गया। इस परिषद् के बाद लगभग आठ सौ साल तक आगम साहित्य का किसी प्रकार का सम्पादन नहीं हुआ। ईसा की चौथी शती में जैनश्रमण-संघ की दूसरी परिषद् मथुरा में हुई। फिर वीर निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष बाद (5वीं शताब्दी में) देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की प्रमुखता में, तीसरी और अन्तिम परिषद् हुई। इस परिषद् में अनेक प्रतियों को मिलाकर आधारभूत पाठ-निर्णय का प्रयत्न किया गया। फिर भी जैनागमसाहित्य का बहुत-सा अंश विलुप्त हो गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बारह सूत्रों (अंगों) में दृष्टिवाद अंग (दृष्टिवादसूत्र) की अद्यावधि अनुपलब्धि इसका उदाहरण है। जैनागम साहित्य के प्राचीनतम स्तरों में, भाषा विवेचन की दृष्टि से देखने पर मगध की भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है और वह भी स्पष्टता से | इसका कारण यह हो सकता है कि जैनधर्म की भाषा का प्रसार पालि-भाषा की तरह अपरिमित नहीं था । बौद्धों के संघों तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIMI MIT NITINITIATIV 41 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विहारों की तरह जैनों के चैत्य असंख्यात नहीं थे। साथ ही, जैन अपने परम्परासाहित्य की सुरक्षा के कार्य में जागरूक होते हए भी पूर्वाग्रही थे। इसलिए सीमित क्षेत्रीयता के कारण अर्द्धमागधी साहित्य अत्यन्त मिश्रित नहीं बन सका । अतः यह सामान्य दृष्टि से पालि की अपेक्षा अधिक आधारभूत है। इस प्रकार, ऊपर के विवेचन से यह प्रमाणित है कि मूल प्राकृत साहित्य के विश्लेषण और व्यालोचन के साथ ही विकास और विस्तार में बिहार को, खासकर मगध को अधिक महत्ता प्राप्त है। अनुमान है कि भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर प्रायः एक ही काल में बिहार में धर्मोपदेश करते थे, इसलिए इन दोनों की भाषा एक ही होगी। कहा जाता है कि भगवान् बुद्ध की धर्मोपदेश भाषा पालि अर्थात् मागधी और भगवान् महावीर की धर्मप्रवचन की भाषा प्राकृत अर्थात् अर्द्धमागधी थी। ये दोनों भाषाएं प्राचीन मगध के उच्चकुल की भाषाएं थी। यद्यपि आज बुद्ध और महावीर के उपदेश उनकी ही भाषा में मिलना सम्प्रति सम्भव नहीं। किन्तु यथाप्राप्य बौद्धों की पालि (मागधी) और जैनों की प्राकृत (अर्द्धमागधी) मूल उपदेश की ही संवर्धित, परिवर्द्धित एवं संशोधित आवृत्तियाँ हो सकती हैं। जो भी हो, अधुना समग्र आर्य भारतीय भाषा प्रदेश में प्राकृत का जो उत्तरकालीन विविध विकास परिलक्षित होता है, उसका मूल उद्गम-केन्द्र बनने का श्रेयोभागी एकमात्र बिहार का मगध क्षेत्र ही है। प्राकृत के विकास में बिहार की देन के व्यालोचन क्रम में बुद्ध और महावीर के समय की भाषा-परिस्थिति को भी समझना अप्रासंगिक न होगा। इसके लिए यदि हम धार्मिक साहित्य को छोड़कर शिलालेखों की प्राकृतों का निरीक्षण करेंगे, तो अधिक आधारभूत सामग्री प्राप्त हो सकेगी। अर्द्धमागधी में निबन्धित, जो आगम साहित्य हमारे दृष्टिपथ में आता है, वह कालक्रम से ठीक-ठीक परिवर्तित स्वरूप लेकर उपस्थित होता है। यद्यपि पूर्व की बोली के कुछ लक्षण उसमें है। पालि साहित्य में भी प्राचीन तत्त्वों की रक्षा होती है, किन्तु पूर्व की अपेक्षा उसमें मध्यदेश' का अधिक प्रभाव है। इसलिए, इस साहित्य से प्राचीन बोलियों की आधारभूत सामग्री ढूँढ़ना दुष्कर हो जाता है। तब, इसमें हमको अधिक सहायता सम्राट अशोक के शिलालेखों से मिलती है। ये शिलालेख ई.पू. 270-250 के लगभग लिखे गये हैं। भाषा की दृष्टि से अशोक के लेख चार रूपों में विभक्त हो सकते हैं। उत्तर पश्चिम के लेख, गिरनार के लेख, यमुना से महानदी तक के लेख तथा दक्षिण के लेख। गिरनार के लेख की भाषा पश्चिमोत्तर और पूर्व से भिन्न भाषा-प्रदेश सूचित करती है। इस भाषा की कुछ विशेषताएं इसे साहित्यिक पालि के निकट ले जाती है। पश्चिमोत्तर का कुछ प्रभाव तो गिरनार में प्रतीत होता है और वह गुजरात-सौराष्ट्र की भाषा-स्थिति के अनुकूल ही है। 42 AIIIII MINS तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालि प्रधानतया मध्य प्रदेश में विकसित साहित्यिक भाषा है और उसका सम्बन्ध प्राचीन शौरसैनी से होगा, किन्तु मध्य प्रदेश में जो अशोक के लेख हैं, उनकी भाषा पूर्व की ही यानी मगध की ही है। मध्य प्रदेश में अशोक की राजभाषा समझना दुस्साध्य न होने से वहाँ के लेखों पर स्थानिक प्रभाव पड़ने की कोई आवश्यकता न थी। अशोक के पूर्व लेखों के साथ केवल पूर्व के ही नहीं, अपितु मगध के पश्चिम में लिखे गये कुछ लेखों का भी आकलन करना आवश्यक होगा । जैसा ऊपर कहा गया है, जहाँ मगध की राजभाषा दुर्बोध न थी, वहाँ के शिलालेख प्रायः पूर्व की ही शैली में लिखे गये । खास तौर से मध्य प्रदेश में जो लेख मिलते हैं, उनसे यह बात स्पष्ट होती है। वहाँ के राज्याधिकारी अशोक की राजभाषा से सुपरिचित होंगे, इससे मध्य प्रदेश की छाया उन लेखों पर विशेष नहीं मालूम होती और इससे मध्य प्रदेश की बोली के उदाहरण अशोक के लेख में नहीं उपलब्ध होते। यही कारण है कि पूर्व में जो ध्वनिभेद सार्वाधिक हैं, वे कालसी, टोपरा में वैकल्पिक |ऐसी दो-एक विशेषताएं अवश्य हैं, पूर्व में 'र' का 'ल' 'ए' का 'ओ' | शब्दान्तर्गत जैसे कलेति (करोति) सार्वाधिक हैं, कालसी में ये वैकल्पिक हैं। ____ पश्चिमोत्तर के लेखों को छोड़कर सब जगह 'श, ष, स' का 'स' होता है। तदनुसार इस विभाग में भी 'स' ही मिलता है। कालसी में परिस्थिति कुछ अजीब है, वहाँ 'श, ष' का भी प्रयोग मिलता है। प्रथम नौ लेखों में कालसी में दो, एक अपवाद के अतिरिक्त गिरनार की तरह 'श, ष' की जगह 'स' मिलता है। तदनन्तर अनेक स्थानों पर 'श, ष' का प्रयोग भी शुरू होता है। यह प्रयोग इतनी अनियन्त्रित रीति से होता है कि मूल संस्कृत के 'श, ष, स' से भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता । जैन शास्त्र के विचक्षण और विलक्षण अध्येता श्री प्रबोध बेचरदास पण्डित की 'प्राकृतभाषा' शीर्षक मुद्रित व्याख्यान-पुस्तिका से उपर्युक्त प्रसंग के कुछ उद्धरण तुलना की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत हैं मूर्धन्य ष : प्रियदषा, यषो, अपपलाषवे (अपपरिस्तवः)। उषुटेन, उषटेन, उषता, हेडिषे (ईदृशः)/धम्मषंविभागे, धंमषंबंधे। षम्या परिपति (सम्यक् प्रतिपत्तिः), षुषुषा, दाशमतकषि, अठवषाभिसितषा (-स्य), पियष (-स्य) । पानषतषहषे (प्राणशतसहस्ते), शतसहस्रमात्रः)। अनुषये (अनुशयः), धंमानुशथि (धर्मानुशिष्टि-), षमचलियं । (समचर्चा) इत्यादि । तालव्य श : पशवति (प्रसूते), शवपाशंडानं (सर्वपाषण्डानां)। शालवढि (सारवृद्धिः), शिया (स्यात्)। पकलनशि (प्रकरणे) इत्यादि। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANTIY Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श' और 'ष' के इन अनियंत्रित प्रयोगों से विद्वानों ने ऐसा निर्णय किया है कि कालसी में सामान्य प्रचार 'स' का मानना चाहिए। ये 'श' और 'स' लिपिकार के लिपिदोष के प्रतीक हैं, पूर्व के लेखों में स्वार्थे 'क' का प्रयोग बढ़ता जाता है। कालसी, टोपरा के लेखों में यह प्रयोग अधिक होता है। यहाँ के लेखों की एक और विशेषता 'क' और 'ग' का तालूकरण है। उदाहरण स्वरूपकालसी-नातिक्य, चिलथितिक्य, चिलठितिक्य, ष्वामियेन, कलियेषु, अलियषुदले । टोपरा- अढकोसिक्य (अष्टक्रोशिकीय), अंबावडिक्य (आम्रवाटिका)। कहीं-कहीं स्वरान्तर्गत 'क' का घोषभाव होता हैअन्तियोग- (गिरनार-अन्तियक)। अधिगिच्य, हिद लोगम्। 'स' और 'र' से युक्त संयुक्त व्यंजनों में 'स' और 'र' का सावर्ण्य होता है: अट (अष्टन्, अर्थ) सब, अथि (अस्थि -)। निखमंतप, अंब - (आम्र)। संयुक्त व्यंजनों में 'त' और 'व' के अनुगामी 'य' का 'हय' होता है। 'द' और 'क' के अनुगामी 'य' का सावर्ण्य होता है। अज (अद्य), मझ (मध्य), उदान (उद्यान), कयान (कल्याण), पजोहतविये (प्रहोतव्यः), कटविये (कर्त्तव्यः), एकतिया (गिरनार-एकचा), अपवियाता (अल्पव्ययता), वियंजनते (व्यंजनतः), दिवियानि (कालसी-दिव्यानि)। अन्यत्र भी - मधुलियाये (मधुरताये)। संयुक्त व्यंजनों में व्यंजन के अनुगामी 'व' का 'उव' होता है, किन्तु शब्दान्तर्गत 'त्व' का 'त्त' होता है। सुवामिकेन (स्वामिकेन), कुवापि (क्वापि), आत्तुलना (आत्वारणा), चत्तालि (चत्वारि)। ‘स्म, ष्म का 'फ' होता है, किन्तु सप्तमी एकवचन का प्रत्यय 'स्मि, सि' ही है: तुफे, अफाक, येतफा (एतस्मात्)। 'क्ष' का सामान्यतः 'ख' होता है, कुछ अपवाद भी है: मोख, खुद, छणति (क्षणाति)। 44 MI NI TITI IIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारान्त पुल्लिंग नाम के प्रथमा एकवचन के अस् का ए सार्वत्रिक है। वर्तमान कृदन्त के 'मान' धौली-जौगड़ में मिलते हैं। जैसे पायमान, विपतिपाद्यमान | इस प्रकार, पूर्व की भाषा के ये लक्षण हमारे लिये मागधी, अर्द्धमागधी के प्राचीनतम उदाहरण हैं। प्राकृत-भाषाओं के विकास को इतिहास की दृष्टि से तीन या चार खण्डों में विभाजित करते हैं। प्राचीनतम प्राकृत के उदाहरण अशोक के लेखों में और पालि साहित्य के कुछ प्राचीन अंशों में मिलते हैं। इस काल की संक्षिप्त विशेषताएं इस प्रकार है- 'ऋ' और 'लु' का प्रयोग नहीं होता। ऐ, औ, अय, अव का ए, ओ, अन्त्य व्यंजन और विसर्ग का लोप | इस अन्तिम प्रक्रिया से सब शब्दं स्वरान्त होते हैं और कुछ अविकृत रहते हैं, विशेषतः र युक्त और कहीं-कहीं ल युक्त । प्रथम भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का घोषभाव जैसे 'क' का 'ग' अपवादात्मक रूप से होता है। द्वितीय भूमिका में स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों का घोष भाव और तदन्तर घर्षभाव होता है। प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में जो कुछ प्राचीन अंश मिलते हैं, जैसे 'आचारांगसूत्र' और 'सूत्रकृतांग' के कुछ अंश, इस भूमिका की अन्तिमावस्था में आ सकते हैं। इस समय में घोषभाव की प्रक्रिया सर्वसामान्य है, किन्तु स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा लोप नहीं होता, स्वरान्तर्गत महाप्राणों का 'ह' भी सर्वथा नहीं होता। तीसरी भूमिका में साहित्यिक प्राकृत, नाटकों की प्राकृत और वैयाकरणों की प्राकृत की गणना होती है। इन प्राकृतों में अन्यान्य बोलियों के कुछ अवशेष रह जाते हैं, किन्तु इनका स्वरूप केवल साहित्यिक ही है। इस भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा ह्रास होता है और महाप्राणों का सर्वथा 'ह' होता है। मूर्धन्य का व्यवहार बढ़ जाता है। चौथी भूमिका में अपभ्रंश की परिगणना होती है। यह साहित्यिक स्वरूप हमारी नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का पुरोगामी साहित्य है। यह केवल साहित्यिक स्वरूप है। बोली के भेद स्वल्प-मात्रा में ही परिलक्षित होते हैं। अधिकांश पूर्व से पश्चिम तक एक शैली में लिखा गया यह केवल काव्य-साहित्य है। निष्कर्षतः, प्राचीन आगम-साहित्य को हम दूसरी और तीसरी भूमिका के संक्रमणकाल में और शेष आगम साहित्य को तीसरी भूमिका में रख सकते हैं। स्थानविशेष की दृष्टि से अर्द्धमागधी पूर्व की भाषा होते हुए भी कालक्रम से पश्चिम, मध्यदेश के प्रभाव से अंकित होने लगी। इसलिए पूर्व के 'श' की जगह अर्द्धमागधी में 'स' का प्रयोग शुरू होता है। पूर्व के अस् ए की जगह अर्द्धमागधी में रचित आगम साहित्य में पश्चिम का ओ भी व्यवहृत होता है। यद्यपि प्राचीन पश्चिम का 'र' भी धीरे-धीरे व्यवहृत होने लगा है। इससे यही सूचित होता है कि आगमों की पूर्व की भाषा का पश्चिमी संस्करण इनकी भाषा के महत्त्व का प्रकार विशेष ही है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NTIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII I I IIIIIIN 45 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त भाषा वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि जैनधर्म पहले पूर्व यानी बिहार में ही उत्पन्न हुआ और यहाँ से पश्चिम तथा दक्षिण भारत में फैला एवं वहाँ ही उसके साहित्य का प्रथम संस्करण हआ । इस दृष्टि से बिहार के मगध-पाटलिपुत्र को बहत बड़ा श्रेय है कि यह जैन-धर्म और उसकी भाषा प्राकृत के उद्भव और विकास का आदि कारण बना और इसने पश्चिम को जैन साहित्य तथा संस्कृति के विस्तार-केन्द्र होने का गौरव प्रदान किया। ___ अन्त में हम बिहार के गया जिले की बराबर पहाड़ी और नागार्जुनी पहाड़ी के प्राप्त अभिलेखों की प्रतिलिपि प्रस्तुत कर रहे हैं। ये दोनों अभिलेख प्राकृत-भाषा में उत्कीर्ण हैं। बराबर पहाड़ी का अभिलेख ईस्वी पूर्व 272-232 का है तथा नागार्जुन की पहाड़ी का अभिलेख ईस्वी पूर्व 232 का, इन दोनों अभिलेखों की मूललिपि ब्राह्मी है। प्राकृत के विकास में बिहार की देन के अनुसन्धानात्मक अध्ययन के क्रम में इन दोनों अभिलेखों का बहुत अधिक महत्त्व है ये दोनों अभिलेख डॉ. बूलर, डॉ. लूडर्स और डॉ. हुल्स के द्वारा भाषा वैज्ञानिक गवेषणा के क्रम में अनेकशः चर्चित हुए हैं। यहां ये दोनों अभिलेख प्रसिद्ध पुरक्तत्वान्वेषी डॉ. राजबलि पाण्डेय की प्रसिद्ध पुस्तक हिस्टोरिकल एण्ड लिटरेरी इन्सक्रिप्शन्स, के पू. 41-42 से यथा-संकलित रूप में उद्धृत हैं। विशेष विवरण के लिए उक्त पुस्तक द्रष्टव्य है। बराबर पहाड़ी का अभिलेख 1. ला जिना पियदसिना दुवाडस (वस्थाभिसितेना) . 2. इयं निगोहकुमा दिना आजीविकेहि (II) (2) 1. ला जिना पियदसिना दुवा 2. डसवसाभिसतेना इयं 3. कुभाखलतिक पवतसि 4. दिना आजीविकेहि (3) 1. लाज पियदसी एकुनवी 2. सतिवसाभिसिते जल घो 3. सागमथात मे इयं कुभा 4. सुथियेख (लतिक) (पवतसि) दि 5. ना (II) नागार्जुनी (बराबर) पहाड़ी अभिलेख 1. वहियक (1) कुभा दष्लथेन देवानंपियेना 2. आनंतलियं अभिषितेना (आजीविकेहि) 3. भदंतेहि वाण... निषिदियाये निषिठे 4. आ चंदम फूलियं (II) 46 MININNINNI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) 1. गोपिका कुभा दषलेथना देवा (नं) पि 2. येना आनंतस्तियं अभिषितेना आजी 3. विके (हि) (भद) तेहि वाष निसिदियाये 4. निसिठा आ चंदम सूलियं (II) (3) 1. वडथिका कुभा दषलथेना देवानं 2. पियेना आनंतलियं अ (भि) षितेना (आ) 3. (जी) विकेहि भदंतेहि वा (ष निषि) दियाये 4. निषिठा आ चंदम लियं ( II) उपर्युक्त दो अभिलेखों के अतिरिक्त सासाराम से भी एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो ईसा-पूर्व 272-232 का है। इसकी भाषा प्राकृत पालि है और मूल लिपि ब्राह्मी है। इसकी चर्चा डॉ. हुल्त्स ने की है। यह अभिलेख डॉ. राजबलि पाण्डेय की उपर्युक्त पुस्तक (हिस्टोरिकल एण्ड लिटरेरी इन्सक्रिप्शन्स) के पृ. 22 से यहाँ उद्धृत है : सासाराम अभिलेख (शिलास्तम्भ लेख) 1. देवानां पिये हेवं आ....यानि सवछलानि । अंउपासके सुमि । नचु बाढं पलकंते (1) 2. सवछले साधिके । अं .....ते (1) एतेन च अंतलेन । जम्बुदीपसि । अमिसंदेवा । संत... मुनिसा मिसंदेव कटा । पल ........ इयं फले। (I) नो .......... मं महतता वचकिये पावतवे। खुदकेन पि पल..... | 4. कममीनेना विपले पि सुअग... किये आला.....वे | से एताये अनये इयं सावाने । खुदका च उडाका चा प। 5. लकमंतु अंतापिच जानंतु । चिलठितीके चपलाकमे होतु । इयं च अठे पढिसति। विपलंपि च वढिसति। 6. दियाढ़ियं अवलधियेना दियढियं वढिसति (इयंच सवने विवुथेन दुवे सपनां लाति। 7. सता विवुथाति 200 506 इम च अठं पवते सु लिखा.... पाया था य...वा अ। 8. थि हेता सिलाथमा ततपि लिखापयथ ति। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AM Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अतिरिक्त इस सन्दर्भ में रामपुरखा का भी एक स्तम्भ लेख दृष्टव्य है 1. देवानंपिये पियदसि लाज हेव आह (1) दुवाइस वसाभिसितेन मे धमेलिपि लिखापित लोकस हित सुखाये (1) से तंअपहट। 2. तं तं धंम बढि पायो व (1) हेव लोकस हित-सुखे ति पटिवेखामि अथ इयं नातिसु हेवं पथासंनेसु हेव अपकठेसु किम कानि। 3. सुखं आवहामी ति तथा च विदहामि (1) हेमेव । सव-(नि) कायेसु पटिवेखामि (1) सव-पासंडा पि मे पूजित विविधाय पूजाय (1) ए चुहयं। 4. अतन पचू पगमने से मे माख्यमुते (1) सडुवीस (ति) वसाभिसितेन मे इयं धम्म-लिपि लिखापित (II)। देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी अशोक ने ये शिला-लेख अपने धर्म को फैलाने के लिए और अपने राज्याधिकारियों को अपनी धर्मनीति या राजनीतिक दृष्टि को अवगत कराने के लिए खुदवाये । यद्यपिये शिलालेख एक ही भाषा में लिखे गये हैं, तथापि इनको भाषा में स्थलानुसार भेद सम्भव है, क्योंकि कोई भी भाषा स्थानीय बोली से प्रायशः प्रभावित हो जाती है। फिर भी, इतना निश्चित है कि उपर्युक्त शिलालेखों से प्राकृत के विकास में बिहार के देन की महार्घता तो प्रतीत होती ही है। बिहार की तत्कालीन भाषा-परिस्थिति को समझने के लिए इनसे पर्याप्त सहायता भी प्राप्त होती है। 48 MINIS ANTI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्यार्णव प्रहसनम् हास्य रस की पृष्ठभूमि में नाटक की परिभाषा करते हुए दशरूपककार श्री धनञ्जय ने कहा है कि ‘अवस्थानुकृतिर्नाम्' अर्थात् विभिन्न अवस्थाओं की अनुकृति — नकल करना भी नाट्य है । रूपक की परिभाषा करते हुए धंनञ्जय कहते हैं कि 'रूपकं तत्समारोपात्' विभिन्न नटों के द्वारा अभिनीत किए जाने वाले नाटक के पात्रों का अपने ऊपर आरोप कर लेने के कारण ही इसे रूपक कहा जाता है। रूपक के दस भेद हैं 'नाटकमथ प्रकरणं भाणव्यायोग समवकार डिमाः । ईहा मृगाङ्कवीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥" - डॉ. गोपाल शर्मा - उपर्युक्त दश रूपक-भेदों में प्रहसन भी एक है । 'प्रहसन' इस शब्द से ही हास्य के भाव की सूचना मिलती है। इस धातु में घञ् एवं ण्यत् प्रत्यय के योग से क्रमशः हास एवं हास्य पद बनते हैं। 'हास' काव्य शास्त्रीय भाषा में हास्य रस का स्थायी भाव है जो एक सहज स्थिर प्रवृत्ति है - 'अथ हास्यो नाम हासस्थायिभावात्मकः।' (नाट्यशास्त्र अध्याय - 6 ) इसका विभाव आचार, व्यवहार, केश विन्यास, नाम तथा अर्थ आदि की विकृति है, जिसमें विकृत केशालंकार, धाट्य, चापल्य, कलह, अतत्मलाप, व्यंग-दर्शन, दोषोदाहरण आदि की गणना की गई है। ओष्ठदंशन, नासा- कपोलस्पन्दन, दृष्टिसंकोचन, स्वेद, पार्श्वग्रहण आदि अनुभावों द्वारा इसके अभिनय का निर्देश किया गया है तथा व्यभिचारी भाव आलस्य, अवहित्य ( अपना भाव छिपाना) तन्द्रा, निद्रा, स्वप्न, प्रबोध, असूया आदि माने गए हैं। सामाजिक हृदय में संस्कार रूप में स्थित हास, स्थायी भाव जब विभाव, अनुमान और संचारी भावों से अभिव्यक्त होकर आस्वाद का विषय बन जाता है तब उससे प्राप्त आनन्द 'हास्यरस' कहलाता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 49 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य में रस का बड़ा महत्त्व है-'न हि रसाहते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।' (ना.शा.अ.6) 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' (स.द.) अग्निपुराण में चार-शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स प्रधान रसों के उल्लेख के साथ क्रमशः हास्य, करुण, अद्भुत और भयानक को गौण रूप में स्वीकार किया है। आचार्य भरत ने मूलभूत आठ रस माने हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत। काव्य से निष्पन्न आनन्द का ही दूसरा नाम रस है अक्षरं ब्रह्म परमं सनातनमजं विभुम् । वेदान्तेषु वदात्येकं चैतन्यं ज्योतिरीश्वरम् ॥ आनन्दः सहजस्तस्य व्यञ्जयते स कदाचन । व्यक्तिः सा तस्य चैतन्य चमत्कार रसाद्दया ।। (अ. पुराण 339/1,2) अन्य रसों के आधारभूत अनुभव हो सकते हैं किन्तु हास्य का लौकिक और साहित्यिक अनुभव साक्षात् आनन्द ही होता है। मनोनुकूल होने के कारण ही उसे श्रृंगार का सखा कहा गया है। भरत ने तो हास्य को श्रृंगार की अनुकृति कहा है-'शृंगारानुकृतिर्यस्तु स हास्य इति संज्ञितः।' संस्कृत रूपकों में रूपककार अपनी कल्पना शक्ति से आधिकारिक कथावस्तु की आत्मा के अनुरूप हास्यात्मक प्रासंगिक कथावृत्त की सृष्टि करके उसेआधिकारिक कथानक के अन्तर्गत स्थान देते थे। जो अधिकाधिक विदूषक के पात्र द्वारा सम्पन्न होता रहा । संस्कृत साहित्य में स्वतंत्र रूप से हास्य-प्रधान एकांकी लेखन की परम्परा प्रचलित रही है। इस प्रकार का एकांकी रूपक 'प्रहसन' कहलाता है, जिसके नाट्य शास्त्रकार भरत ने शुद्ध तथा संकीर्ण दो भेद बताये हैं-'प्रहसनमपि विज्ञेयं द्विविधं शुद्धं तथा च संकीर्णम् ।' (ना.शा.18) शुद्ध प्रहसन में पाखण्डी, संन्यासी, तपस्वी अथवा पुरोहित नामक की योजना होती है। इसमें चेटक, चेटी, विट आदि निम्नकोटि के पात्र (ना.शा. 0/103-106) भी आते हैं । इसका बहुत कुछ प्रभाव वेशभूषा और बोलने के ढंग से ही पैदा किया जाता है। भाषा एवं कथानक को आद्योपान्त समान रूप से ढ़ोंगी लोगों के यथार्थ-जीवन के अनुरूप नियोजित किया जाता है। इसके दूसरे भेद संकीर्ण प्रहसन में वेश्या, चेटक, नपुंसक, विट, धूर्त, दुराचारिणी के अशिष्ट वेश, भाषा तथा चेष्टाओं का अभिनय प्रदर्शित होता है। इसमें हंसी, दिल्लगी की बहुत प्रधानता रहती है। नायक धूर्त होता है। धनञ्जय ने भी 'प्रहसन' का सही लक्षण बताकर वैकृत एवं शंकर नाम से दो भेद बताकर तीन रूप कहे हैं। (दशरूपक 3/54-55) विश्वनाथ ने भी साहित्यदर्पण में (सा.द. 6/264-65) साम्य रखने वाले इस प्रसहनात्मक एकांकी के तीन भेदों के लक्षण किये हैं। (सा.द. 6/266) भरत के समान नाट्यदर्पणकार ने भी प्रहसन के दो ही रूप माने हैं वैमुख्यकार्यं वीथ्यङ्गिख्यात-कौलीन दम्भवत् । हास्यांगि-भाण संध्यङ्कः वृत्तिः प्रहसनं द्विधा ।। (23) 50 AITI NY MINI TIW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाट्शास्त्रकार के द्विविध प्रहसन और अन्य आचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस रूपक - विशेष के त्रैविध्य पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता है। शारदातनय ने भाव प्रकाश में प्रहसन एकांकी का विशद विवेचन किया है - " तद् द्विविधं शुद्धं संकीर्णं च अस्य च द्वावङ्कौ भवतः मुखनिर्वहणसंधी च । ... सैरन्ध्रिका स्यात्संकीर्णा शुद्धा सागर कौमुदी | कलिकेलि प्रहसनं मत्तद्-वैकृतिमीरितम् ॥ ( भाव प्रकाश, अष्टम अधिकार) उनके अनुसार एक ही अंक होता है और मुख एवं निर्वहण संधियां होती हैं। उन्होंने सागर कौमुदी को शुद्ध प्रसहन तथा सैरान्ध्रिका (सौमद्रिक) को संकीर्ण एवं शशिकला को विकृत प्रहसन के दृष्टान्त स्वरूप प्रस्तुत किया है ।" इस दृश्य काव्य के नाम से ही इसमें हास्य की प्रधानता सूचित होती है। प्रश्न उपस्थित होता है कि हास्य एक ही प्रकार का है या एकाधिक? पंडितराज जगन्नाथ ने हास्य को दो प्रकार का माना है- प्रथम आत्मस्थ और दूसरा परस्थ, आत्मस्थः परसंस्थश्चेत्यस्य भेदद्वयं - मतम् । आत्मस्थो-द्रष्टुरुत्पन्नो विभावक्षेपमात्रतः ॥ (रसगंगाधर) जो हास्य विभाव (हास्य के विषय) के दर्शन मात्र से उत्पन्न होता है वह आत्मस्थ और जो दूसरों को हंसता हुआ देखने से फूट पड़ता है तथा जिसका विभाव भी हास्य होता है अर्थात् दूसरों के हंसने के कारण ही होता है, उसे परस्थ हास्य कहते हैं। यह उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार के व्यक्तियों में उत्पन्न होता है, अतः इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं और उसके भी छः भेद होते हैं - उत्तम पुरुष में स्मित और हसित, मध्यम पुरुष में विहसित और उपहसित तथा नीच पुरुष में अपहसित तथा अतििहसित होते हैं हसन्तमपरं दृष्ट्वा विभावश्चोपजायते । योऽसौ हास्यरसस्तज्ज्ञैः परस्थः परिकीर्तितः ॥ उत्तमानां मध्यमानां नीचानामप्यसौ भवेत् । व्यवस्थः कथितस्तस्य षड् भेदाः सन्ति चापरे । स्मितं च हसितं प्रोक्तमुत्तमे पुरुषे बुधैः, भवेद्विहसितं चोपहसितं मध्यमे नरे । नीचेऽपहसितं चातिहसितं परिकीर्तितम् ॥ स्मित का लक्षण ‘ईषत्फुल्लकपोलाभ्यां कटाक्षैरप्यनुल्बणै | अदृश्यदशन्नो हासो मधुरः स्मितमुच्यते' अर्थात् जिसमें कपोल थोड़े विकसित हों, नेत्रों के प्रान्त अधिक प्रकाशित न हों, दांत दिखलाई न दें और जो मधुर हो, किया है। जिस हंसने में मुख, नेत्र और कपोल विकसित हो जावें और दांत भी दिखलाई दें तो उसे 'हसित' कहा जाता है ‘‘वस्त्रनेत्रकपोलैश्चेदुत्फुल्लैरुपलक्षितः । किञ्चिल्लक्षितदन्तश्च तदा हसितमिष्यते ।” तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 1 51 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस हंसने में शब्द होता हो, जो मधुर हो, जिसकी पहंच शरीर के अन्य अवयवों में भी हो, जिसमें मुंह लाल हो जाए, आँखें कुछ मिच जावें और ध्वनि गंभीर हो तो उसे विहसित कहते हैं-'सशब्दं मधुरं कायगतं वदनरागवत, आकुञ्तिाक्षि मन्द च विदुर्विहसितं बुधाः ''। जिसमें कन्धे और सिर सिकुड़ जावें, टेढ़ी नजर से देखना पड़े और नाक भी फूल जावे तो उस हँसने का नाम 'उपहसित' है 'विदुञ्चितांस शीर्षश्च जिम्हदृष्टि विलोकनः, उत्फुल्लनामिको हासो नाम्नोपहसितं मतम् ।' जो हंसना बेमौके हो, जिसमें आंखों से आंसू आ जावे और कंधे एवं केश खूब हिलने लगे तो उस हँसने का 'अपहसित' नाम रखा है 'अस्थानजः साश्रुदृष्टि-राकम्पस्कन्धमूर्धजः, शाईदेवेन गदितो होसोऽपहसिताद्वय : ।' जिसमें बहत भारी और कानों को अप्रिय लगने वाला शब्द हो, नेत्र आंसुओं के कारण भर जावे और पसलियों को हाथों से पकड़ना पड़े तो वह हास्य 'अतिहसित' कहा जाता है 'स्थूलकर्णकटुध्वान्नो वाष्पपूरप्लुतेक्षणः । करोपगूढपाव॑श्च हासोऽतिहसितं मतम् ।' हास्य के भेदोपभेद सहित सूक्ष्म, स्पष्ट एवं वैज्ञानिक विवेचन से उसका महत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। हास्य का सर्वाधिक प्रयोग प्रहसन में ही होता है-'हास्यस्तु भूयसा कार्य: षट्प्रकारैस्ततस्ततः ।' प्रहसन में हास्य असंगति, विपरीतता, अनौचित्य एवं असम्बद्धता से उत्पन्न होने के कारण यह नहीं समझना चाहिए कि हास्य सदा अश्लील ही हो या प्रकृति के विपरीत बातें बतलाकर समाज का अहित करना चाहता है। वस्तुतः हास्य के आलम्बन में निहित विषमताएं, विकृतियां एवं असंगतियां अनिष्टकारी नहीं होती हैं। 'हास्यार्णव' का महावैद्य कहता है-'वैद्योऽहं व्याधिवर्गाणामाश्रयोऽप्ययशोनिधिः । मया चिकित्सितः सद्ये मार्कण्डेयो न जीवति ।।' (1.31) प्रसहन के उपर्युक्त लक्षण एवं भेद के आधार पर 'हास्यार्णव' प्रसहन को 'संकीर्ण' भेद के अन्तर्गत रखा जा सकता है, क्योंकि 'संकीर्ण' प्रहसन में ''संकीर्ण वेश्याविट नपुंसकादिभूषितंप्रतमं....'' (सपारनंदी) "संकराद्वीथ्या संकीर्ण धूर्तसकुलम् (द.स. 355) अर्थात वेश्या, चेटक, नपुसंक, विट, धूर्त, दुराचारिणी के अशिष्ट, वेश, भाषा तथा चेष्टाओं का अभिनय होता है। (हास्यार्णव 1.10) हास्यार्णव श्री जगदीश्वर की रचना है। जिसके रचना काल के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।' (Edited by C. Cappeller, Jue 883; also printed in India (Calcutta) 1835 and 1872.) History of Indian Literature, Winternitz Vol. III) 52 AIIIII II I तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हास्यार्णव' प्रसहन की कथावस्तु इस प्रकार है- अनन्य सिन्धु राजा भोगलिप्सा में लिप्त रहने के कारण राजकार्य को देर तक नहीं संभाल सका है। अयथार्थवादी नामक नौकर को वह राजकार्य की गतिविधियों का पता लगाने के लिए भेजता है। वह आकर राजा को सूचना देता है कि उनकी स्वेच्छाचारिता के फलस्वरूप जनता ने सब प्रकार की बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों को ग्रहण कर लिया है। नौकर के मुख से यह समाचार सुनकर राजा का क्रुध हो जाना और इसके लिए नागरिकों को दण्ड देने के लिए उद्यत हो जाना आदि हास्यमूलक बातें हैं। इस प्रकार अनौचित्य एवं प्रकृतिविपरीत कथनों के द्वारा हास्य-सर्जन का प्रयास किया है। तदन्तर वह मंत्री कुमतिवर्मा को बुलवाकर उसे मन्त्रणार्थ उचित स्थान निर्धारित करने की आज्ञा देता है। मंत्री मंत्रणा के लिए शहर की वसुन्धरा नामक कुहिनी वेश्या के मकान को इस कार्य के लिए उपयुक्त बताता है। राजा उसका समर्थन करता हुआ सबके साथ नियत स्थान पर पहुंचता है। वसुन्धरा भी उन्हें अपने यहां आया देख प्रसन्न होती है और अपनी पुत्री मृगांकलेखा नामक वेश्या से राजा का परिचय करवाती है। कामुक राजा उसके सौन्दर्य को देख मोहित हो जाता है। वहीं मृगांकलेख को कामशास्त्र पढ़ाने वाले गुरु महामहोपाध्याय श्रीविश्वभण्डजी अपने शिष्य कलहांकुर के साथ पहुंच जाते हैं। उन्हें टूटे आसन पर बिठा कर स्वागत किया जाता है। विश्वभण्डजी वसुन्धरा को प्रणाम कर उससे 'मृगांकलेखा तुम पर प्रसन्न हो'' यह आशीष ग्रहण करते हैं। इसी बीच राजा भी विश्वभण्ड को प्रणाम करता है और विश्वभण्ड की आज्ञानुसार कलहांकुर उन्हें अमंगलकारी शब्दों में आशीर्वाद प्रदान करता है, जिसे सुनकर हंसी आए बिना नहीं रहती। कलहांकुर (साहहासं शक्राशनमृक्षितं दुर्गऽक्षतमादाय संस्कृत माश्रित्य उच्चैः) नेत्रे पुष्पोदयो भवतु भवताम्। अपि चशत्रोवृद्धिर्भियो वृद्धिवृद्धिव्याधेर्ऋणैनसाम् । दुर्गते१र्मतेर्वृद्धिः सन्तु ते सप्त वृद्धयः ।। 2 ।। अर्थात् अट्टहास करता हुआ और भङ्गमिश्रित दूर्वा एवं चावल लेकर तथा संस्कृत भाषा के माध्यम से, जोर से आपके नेत्रों में पुष्पों अर्थात् अश्रुओं का उदय हो। और भी हे राजन् ! तुम्हारे शत्रुओं की वृद्धि हो, भय की वृद्धि हो, रोगों की वृद्धि हो, ऋणों और पापों की वृद्धि हो, दुर्गति और दुर्मति की वृद्धि हो, इस प्रकार ये सात प्रकार की वृद्धियां तुम्हें प्राप्त हों। 'हास्यार्णक' में राजा रानी शिक्षक कुलपुरोहित, वैद्य (डाक्टर) ब्राह्मण, सेनापति, ज्योतिषी, विद्वान् एवं वेश्यादि पर गहरा व्यंग्य किया गया है। हास्य की प्रधानता के कारण गंभीर शास्त्रीय काव्य के दर्शन यहां नहीं होते। वस्तु प्रकृति-विपरीत कथन-वर्णन शैली के हास्य से निष्पन्न व्यंग्य व्यवस्था पर चोट करता है। 'हास्यार्णव' के अर्णव की व्युत्पत्ति अर्णासि सन्ति अस्मिन्-समुद्र । 'हास्यार्णव-प्रहसनम्' में हास्यार्थ दो शब्द प्रयुक्त हुए है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 MIT 53 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रसहनम्' विद्या के अर्थ में एवं 'हास्य' रस के अर्थ में। 'हास्यार्णव' अर्थात् हास्य का समुद्र। इस 'प्रहसनम्' में हास्य की विविध प्रकारों की लहरें उठ रही हैं। ऐसा लगता है 'हास्यार्णव' शब्द साभिप्रायः प्रयुक्त हुआ है। प्रहसन भेद एवं हास्य भेद एवं उनके लक्षण के संदर्भ में इस प्रहसन को देखा जा सकता है- यहां पर भी (नाद्यन्ते सूत्रधारः) 'अलमतिविस्तरेण, यस्य-" के बाद प्रहसन के मुख्य रस को सभेद बताया गया है हास्यप्रस्फुटदन्तमौक्तिकचयच्छायामनोज्ञानना नानाऽलङकृति सत्कृता रसवतां चित्तप्रमोदस्थली। स्वच्छन्दं वरवर्णिनी रसवती सीमन्तिनीव स्वयं रम्या श्री जगदीश्वरस्य कविता सच्चित्तमानन्दमेत् ।। अर्थात कवि श्री जगदीश्वर की कविता स्वयं स्त्री के समान रसिक पुरुषों के मनों को पूर्ण रूप से आनन्द पहंचायेगी। जिन जगदीश्वर कवि की कविता को सुनकर रसिक लोगों के दांत हंसी के कारण बाहर निकलने से प्रतीत होते हैं, उनकी कविता इत्यादि अलंकारों से सुशोभित है, रसिकों के मन को आनन्द पहुंचाने वाली है, व्याकरणादि की दृष्टि से शुद्ध है, हास्य आदि रसों से युक्त है तथा मनोहर है। यहां हास्य के दो भेदों का संकेत मिलता है, स्मित और हसित । सच्चित्तमानन्दयेत् से स्मित एवं 'हास्य प्रस्फुटदत्तमौक्तिक' से हसित का। हास्य के इन भेदों को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है----- हास्य स्मित हसित विहसित उपहसित अपहसित अतिहसित - कहने का तात्पर्य यह है कि स्मित के अतिरिक्त अन्यहसित के ही उपभेद हैं जिनमें हसित का शनै-शनै विस्तार होता गया है। 'हास्यार्णव प्रहसनम्' में स्मित कम मात्रा में एवं हसित अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। प्रहसन के अधिकांश पात्र चारित्रिक दृष्टि से भी मध्यम एवं अधम श्रेणी के हैं और इन दोनों प्रकार के व्यक्ति-पात्रों में हसित के ही उपभेद पाये जाते हैं। इस बात का समर्थन शीर्षक में आए 'अर्णव' अर्थात् समुद्र को रूपक बनाकर प्रस्तुत श्लोक के अर्थ-भाव के आधार पर रेखांकित करके दर्शाया भी जा सकता है स्वैरं सस्मितमीक्षते क्षणमलं व्याजृम्भते वेपते रोमाञ्चं तनुते मुहस्तनतटे व्यालम्बते नाम्बरम् ।। आलिङ्गत्यपरां तनोति चिकुरं प्रत्युत्तरं याचते केयं कामकलाविलासवसतिर्लोलंक्षणा भाविनी ।। (1.25) अर्थात् सभी प्रकार के विलासों की आश्रयस्वरूपा, चंचल नेत्रों वाली, रस विशेष में 54I IN NITV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर और रति के समान सौन्दर्य वाली यह मृगाङ्कलेखा सुन्दर मालूम होती है। यह मन्द-मन्द मुस्कुराती हुई देखती है, थोड़ी देर बाद जम्हाई (व्याजृम्भण) लेती है, इसके अनन्तर इसका शरीर कम्पित तथा रोमाञ्चित होता है, बार-बार अपने स्तनभाग पर से हटे हुए वस्त्र को यह पुनः वस्त्र से नहीं ढ़कती है, अपनी दूसरी सखी का आलिङ्गन करती है, अपने केशों को यह फैलाती है तथा सखियों से बिना कुछ पूछे हुए भी उनसे प्रत्युत्तर में कुछ सुनना चाहती है। (इस श्लोक के द्वारा हास्य-भेदों को नदी या समुद्र के पक्ष में रखकर ये समझा जा सकता है।) शब्दक्रम मृगाङ्कलेखा समुद्र नदी भाविनी–सर्व-भाव विलासों की आश्रयस्वरूपा-समुद्र या नदी 1. स्वैरं सस्मितमीक्षते-चचंल नेत्र वाली मंद-मंद मुस्कराती हुई। तन्वी मंद-मंद उठती लहरें। 2. क्षणमलं व्याजृम्भते वेपते रोमाञ्चं तनुते महुस्तनतटे व्यालम्बते नाम्बरम् जम्हाई लेती, कंपित, रोमांचित, शरीर, स्तनभाग से हटे वस्त्र को नहीं ढ़कती। पहले से थोड़ी उपर उठती सी अंगड़ाई लेती सी लहरें। 3. आलिङ्गत्यपरां तनोति चिकुरं - दूसरी सखी का आलिङ्गन करती, केशों को फैलाती (केश अत्यधिक हिलने लगे) एक लहर दूसरी लहर का आलिङ्गन करने को भागती सी मानों अपनी केश राशि को बिखेरती सी। उपर्युक्त क्रम को हास्य के क्रमशः स्मित, हसित, एवं तृतीय में विहसित, उपहसित एवं अपहसित का संयुक्त रूप देखने को मिलता है। इससे आगे लहरों के हा-हाकार को हास्य का अतिहासित भेद कहा जा सकता है, जो उपर्युक्त श्लोक में तो उल्लेखित नहीं है, परन्तु जगह-जगह अट्टहास शब्द का हास्यार्थ में प्रयोग हुआ है, अतः कह सकते हैं कि हास्य के षड् भेदों का विवेचन यहां हुआ है। इस प्रकार निम्न पात्रों से युक्त तथा अधम कोटि की वर्ण्य वस्तु प्रस्तुत करने वाले इस प्रहसन में प्रणयनकालीन समाज में प्रचलित पाखण्ड, अनाचार आदि विकारों के दुष्परिणामों को मञ्च पर प्रत्यक्ष देखकर दर्शकों के हृदय में सामाजिक बुराइयों के प्रति वैमुख्य भाव का उदय होने की संभावना से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। 'हास्यार्णवप्रहसन' की शैली विपरीतता, असंगति एवं असम्बद्धता की है, जिसके द्वारा व्यवस्था पर कटाक्ष किया गया है। हास्य व्यंग्य में वह क्षमता है कि जिसमें यथार्थ की तिर्यक वक्र या विपरीत अभिव्यक्ति पाठक के लिए आइने का काम तो करती ही है, परन्तु इसके मन में गहरे पैठकर रचनात्मक चिन्तन पैदा करती है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 SITTITI IN 55 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ पुस्तकें : 1. हास्यार्णव-प्रहसनम्, श्री ईश्वरप्रसाद चतुर्वेदी, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी, 1963 2. संस्कृत में एकांकी रूपक, डॉ. वीरवाला शर्मा, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 1972 3. काव्यप्रकाश, मम्मट 4. ध्वन्यालोक, डॉ. नगेन्द्र 5. नाट्यशास्त्र पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी 6. रसगङ्गाधर, जगन्नाथ 7. दशरूपकर डॉ. श्रीनिवास शास्त्री, साहित्य भण्डार, मेरठ, 1979 8. History of Indian Literature, Maurice Winternitr Vol. III Motilal Banarsidas, Delhi 1983 9. History of classical Sanskrit Literature, M. Krishremacharia, Motilal Banarsidas, Delhi 1989. 000 56 NITIN तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा में मूल्यों की प्रतिष्ठा -सुरेश पंडित उच्चतर शिक्षा में मूल्यों के संकट और उनके पुनः प्रत्यारोपण के संबंध में विचार करने से पहले हमें शिक्षा से जोड़ दिये गये कतिपय मिथकों, भ्रामक तथ्यों की सही जानकारी पा लेना और उनके बारे में समझ को साफ कर लेना जरूरी है, क्योंकि दृष्टि दोषों को सुधारे बिना न तो हम सार्थक बहस कर सकते हैं और न ही किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। शिक्षा के साथ उच्चतर या निम्नतर जैसे विशेषणों के प्रयोग अंग्रेजी के Higher या Lower Education सरीखे शब्द युग्मों के अन्धानुवाद के फलस्वरूप हिन्दी में प्रचलित हुए हैं। हमारी शिक्षा के प्राचीन इतिहास अथवा शिक्षाशास्त्र में कहीं इस तरह के विशेषण देखने को नहीं मिलते। न ही आज भी हम किसी कम या अधिक पढ़े-लिखे व्यक्ति को अधोशिक्षित या अतिशिक्षित कहते हैं। शिक्षा से अभिप्राय है सीखना। यह सीखना कौशल का भी हो सकता है और ज्ञानार्जन हेतु किसी शास्त्र का भी हो सकता है। कौशल या ज्ञान प्राप्ति की मात्रात्मक उपलब्धियाँ तो हो सकती हैं, इनका विखण्डन नहीं हो सकता। दरअसल यह विखंडन पश्चिम की देन है जिसने परमाणु से लेकर शिक्षा एवं ज्ञान तक को विखंडित कर दिया है और अब तो उत्तर आधुनिकतावाद का पूरा दर्शन ही विखण्डन पर खड़ा कर दिया गया है। ज्ञान को पहले विज्ञान, वाणिज्य और मानविकी में बाँटा गया फिर इनके भी टुकड़े दर टुकड़े कर दिये गये । परिणाम यह हआ कि कोई दिल की बीमारियों का विशेषज्ञ बना तो कोई दिमाग का। किसी ने अर्थशास्त्र में विशेषज्ञता हासिल की तो किसी ने लेखाशास्त्र में। पर ज्ञान का यह विखण्डन मनुष्य की बढ़ती ज्ञान-पिपासा को छोटे-छोटे वृत्तों में बांध नहीं पाया और पहंचे हुए दार्शनिक, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या शिक्षाविद् न पहले विषय विशेषज्ञ बने रहे, न आजकल बने रहते है। बट्टैन्ड रसल हों या आचार्य महाप्रज्ञ या फिर अमर्त्य सेन ही क्यों न हों, क्या कोई कह सकता है कि उनकी गति मात्र दर्शन या अर्थशास्त्र तक ही सीमित है? तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NITITITILY INSTITTWITV 57 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए हम शिक्षा में मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा पर चर्चा करें तो अधिक उपयुक्त रहेगा। लेकिन यहां फिर हमारे सामने यह दुविधा उपस्थित होती है कि हम शिक्षा में मूल्यों को लाना चाहते हैं या मूल्यों के आधार पर शिक्षा को निर्मित करना चाहते हैं। दोनों में मूलभूत अन्तर यह है कि शिक्षा में मूल्यों को लाने का तात्पर्य है- वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार करते हुए कतिपय मूल्यों को गुंफित करने हेतु प्रयास करना जबकि मूल्याधारित शिक्षा के निर्माण का औचित्य तभी हो सकता है जब हम वर्तमान शिक्षा पद्धति को पूरी तरह नकारते हुए अपनी कोई मौलिक शिक्षा-विधि का निर्माण करें। आचार्य महाप्रज्ञ वर्तमान शिक्षा को न तो पूरी तरह स्वीकारते हैं और न नकारते हैं। वे इसे अधूरी मानते हैं और इसे परिपूर्णता देने के लिये जीवन विज्ञान की शिक्षा को एक विकल्प या पूरक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस कार्यशाला के आयोजक जैन विश्वभारती संस्थान के अहिंसा एवं शान्ति अध्ययन विभाग द्वारा दिया गया अवधारणा पत्र (Theme Paper) भी आचार्यश्री की मान्यता को ही बढ़ाने की कोशिश करता है। यह एक ओर जहाँ वर्तमान शिक्षा पद्धति की कमजोरियों को पहचान कर उन्हें दूर करने की बात करता है, वहीं पूर्व प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा के उद्देश्यों और पाठ्यवस्तु को इस प्रकार बदलना चाहता है जिससे शिक्षार्थी में मूल्यों का विकास हो सके । आचार्यश्री की मान्यता और प्रस्तुत पत्र के कथ्य से दो बातें स्पष्ट होती है(1) यदि मूल्यों से संबंधित पाठ्यवस्तु और वर्तमान पाठ्यचर्चा (करीकूलम) में जोड़ दी जाये तो यह शिक्षा व्यवस्था ठीक हो जायेगी। (2) प्रचलित शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत नहीं है। कुछ संशोधनों और परिवर्तनों से इसे अपनी इच्छा के अनुरूप बनाया जा सकता है। परन्तु इस यथास्थिति की स्वीकृति से अनायास हम एक ऐसे दुष्चक्र में फँस जाते हैं जो हमारी संस्कृति, सभ्यता, पारम्परिक समाज-व्यवस्था, आचार-संहिता और प्रकृति से हमारे सौहार्दपूर्ण रिश्तों को विकृत करने के लिये जिम्मेदार है। जी हाँ, मेरा मतलब विकास के उस पश्चिमी मॉडल से ही है जो आज वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के नाम पर उस बाजारवाद को बढ़ावा दे रहा है जिसमें भौतिक साधनों का अधिकाधिक संचय व उपभोग मनुष्य जीवन का पहला और अन्तिम लक्ष्य बना दिया गया है। यह वही विकास है जिसकी परिकल्पना सदियों पहले करते हुए डार्विन ने सबसे समर्थ व्यक्ति के ही अस्तित्व में रहने की बात कही थी। आज जिस तरह की गलाकाट प्रतियोगिता बाजार में चल रही है, उसमें जाहिर है कि समर्थ वही है जिसके पास पूंजी है और जिसके पास जितनी अधिक पूंजी है उसे सरकार से, प्रशासन से और न्याय व्यवस्था से बिना डरे कुछ भी करने का अधिकार प्राप्त है अर्थात् जीवित रहने की जितनी सुविधाएं पूंजीपतियों के लिये बढ़ रही हैं उतनी ही गरीबों के लिये कम हो रही है। ऐसे माहौल में श्रम का सम्मान, सादा जीवन-पद्धति की प्रतिष्ठा, पर्यावरण संरक्षण की आचार-संहिता, शान्ति और अहिंसा की संस्कृति और तनाव से मुक्ति की तकनीक जैसे मूल्यों को शिक्षा के माध्यम से समाज में पुनः स्थापित करने की चेष्टा निश्चय ही धारा के 58 AIIIIIIIII IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तल IIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिकूल चलने का एक महान् उपक्रम है। आचार्य महाप्रज्ञ अपने प्रवचनों में अनेक बार प्रतिस्रोतगमन के लिये लोगों को तैयार होने का उद्बोधन दे चुके हैं। परन्तु उनके प्रति संपूर्ण श्रद्धा रखते हुए भी मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था को, जो निश्चय ही बाजार की माँगों की पूर्ति के लिये मनुष्य को गढ़ने में लगी है, बिना बदले क्या हम अपने उन मूल्यों को प्रतिष्ठित कर सकते हैं जो इसे किसी भी हालत में रास नहीं आते। जैसे सादा जीवन-पद्धति की प्रतिष्ठा वाले मूल्य को ही ले लें। यह कम से कम उपभोग के लिये मनुष्य को तैयार रहने की बात कहता है जबकि प्रचलित विकास का सिद्धान्त अधिक इच्छा, आवश्यकता एवं अधिक उपभोग पर जोर देता है। इसी तरह तनाव से मुक्ति की बात को लें, जहां जीवित रहने के लिये किये जाने वाले संघर्ष को इतना तीखा और स्पर्धा को इतना तेज व हिंसक बना दिया जाय वहाँ नशीली दवाओं या यौगिक क्रियाओं से अल्पकालिक राहत तो मिल सकती है, स्थायी शान्ति मिलना बहुत मुश्किल है। इसलिये मेरा मानना है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कुछ संशोधन, संवर्धन कर कुछ मूल्यों को टाँक देने से कतई काम चलने वाला नहीं है। इसकी बजाय अच्छा यह होगा कि हम ऐसे मूल्यों पर आधारित अपनी शिक्षा पद्धति का निर्माण करें जो मनुष्य को न केवल आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उदात्त बनाये बल्कि पश्चिमी विकास की उस अवधारणा पर मरणान्तक प्रहार करे जो बाजारी शक्तियों के सामने मनुष्य को आत्मसमर्पण कर देने के लिए विवश करती है। कहना न होगा कि इसके लिए बहुत बड़ी संकल्पित मानव श्रृंखला की आवश्यकता होगी। अणुव्रतियों का जो एक विशाल जन समुदाय देश में फैला है, आचार्य महाप्रज्ञ के नेतृत्व में इस मुहिम को चलाने की शुरूआत कर सकता है। देश की 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या उनका साथ देगी, क्योंकि इस वैश्विक अर्थव्यवस्था से फायदा उठाने वाले लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है, बाकी सब इससे पीड़ित ही हैं। परन्तु यदि इतना विशाल व व्यापक अभियान छेड़ने की स्थिति में हम न हों तो कुछ भी न करने अथवा गलत काम होते देखते रहने से अच्छा यह है कि कुछ न कुछ अथवा जितना संभव है उतना तो हमें करना ही चाहिये। उस स्थिति में इस कार्यशाला की उपादेयता निर्विवाद है। आचार्यश्री बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि जब वातावरण में हिंसा, वासना, अनाचार और उत्पीड़न बढ़ता है तभी अहिंसा, संयम, नैतिकता और पर दुःख - कातरता की आवश्यक अधिक अनुभव होती है। इसलिए शिक्षा में बढ़ती अनुशासनहीनता और घटती गुणवत्ता के दौर मूल्यों का अधिकाधिक उपयोगी हो जाना सहज स्वाभाविक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मूल्यों के व्यक्ति में पनपने से न केवल उस व्यक्ति में ही सुधारात्मक परिवर्तन आयेगा बल्कि उसके परिवार के सदस्य बन्धु, बान्धव एवं मित्र मण्डल भी प्रभावित होंगे । देश और समाज को सुधारने का एक तरीका व्यक्ति के सुधार से ही शुरू होता है । जीवन विज्ञान की शिक्षा व्यक्ति के माध्यम से समाज को, देश को सुधारने की ओर एक कदम है । इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति, साहित्य, कला के साथ-साथ अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, नीति शास्त्र, शरीर विज्ञान व मनोविज्ञान आदि ज्ञान के सभी क्षेत्रों से कुछ न कुछ लिया गया है और फिर इसे इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे शिक्षार्थी जानकारी तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 - 59 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो प्राप्त करता ही है, उनमें निहित मूल्यों को भी आत्मसात् करता है। जैसे कायोत्सर्ग या प्रेक्षाध्यान वाले पाठ व्यक्ति को अपने श्वसन तंत्र से लेकर मन-मस्तिष्क की संरचना से तो अवगत करवाते ही हैं, उनकी कुछ विधियों, प्रयोगों, आसनों को आजमा कर स्वयं यह अनुभव करने का अवसर भी देते हैं कि मनुष्य के लिये क्यों उपयोगी है। ___ हम जानते हैं कि ज्ञान का विखण्डन हितकर नहीं है। ज्ञान की किसी एक शाखा की उपशाखा का विशेषज्ञ बन आप काम तो चला सकते हैं, पैसा भी कमा सकते हैं और ख्याति भी पा सकते हैं पर कोई ऐसा योगदान नहीं दे सकते जिससे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद रख सकें। महात्मा गांधी तो बैरिस्टर बनने गये थे, नियमानुसार उन्हें कानून का विशेषज्ञ बनना चाहिये था लेकिन वे एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बने जिसमें अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, राजनीति, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और अनेक धर्मों तथा विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के ज्ञान का आत्मसातीकरण था। वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञान की सीमाओं को पहचानना भी अत्यन्त कठिन काम है। मैं नहीं जानता कि ये क्या नहीं जानते। बहुत कुछ जानकर वे जिस निष्कर्ष पर पहंचते हैं वह ज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म से निर्मित एक ऐसा दिवा स्वप्न है जो समग्र रूप से ठोस धरातल पर खड़ा है। वे व्यक्ति को सुधारना चाहते हैं लेकिन सुधार के जो उपाय सुझाते हैं वे इतने सरल और व्यावहारिक हैं कि कोई भी उन्हें कर सकता है। उनमें कोई रहस्य या चमत्कार नहीं है लेकिन उनके प्रयोगों के परिणाम अवश्य हैरतंगेज हैं। आप सोच भी नहीं सकते कि छोटे-छोटे प्रयोगों से एक सामान्य मनुष्य भी कैसे सतह से ऊपर उठ कर स्वयं को असामान्य बना लेता है। वे दिमाग को खुला रखने पर जोर देते हैं लेकिन हर बात को स्व विवेक के निकष पर कसकर खरा पा लेने के बाद ही ग्रहण करने का प्रावधान भी करते हैं। उनके ज्ञान के आलोक में आज शिक्षा में जिन मूल्यों की स्थापना बहुत जरूरी है उनमें संयम प्रथम स्थान पर है। वे अहिंसा से भी संयम को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि संयमहीनता ही हिंसा को जन्म देती है। संयमी व्यक्ति अहिंसक तो बन ही जाता है, स्वभाव से शान्तिप्रिय भी बन जाता है। उनकी मान्यता है कि संयम के साथ शिक्षा व्यक्ति में श्रम के प्रति सम्मान, सादा जीवन-शैली; पर्यावरण मैत्री और परपीड़न से दूर रहने की भावना जैसे मूल्यों को भी विकसित करे। वे प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति में एक ऐसे नागरिक की छवि देखना चाहते हैं जो स्वयं तो सुखी हो ही, परिवार, समाज व देश को भी सुखी बनाने में सहायक हो। सुख से उनका तात्पर्य भौतिक सुविधाओं से पैदा किया गया सुख नहीं बल्कि शान्ति, संयम व सन्तोष से स्वाभाविक तौर पर उपजा सुख है। आज जरूरत है, हम मिल कर मनुष्य को सामूहिक रूप से सुखी बनाने के उनके द्वारा सुझाये गये उपायों को शिक्षा के माध्यम से संप्रेषित कर इस अभियान में अपना योगदान दें। 383 स्कीम नं. 2, लाजपत नगर, अलवर-301 001 * 'उच्च शिक्षा में मूल्यों का उन्नयन ' विषयक कार्यशाला में (15-16 मई, 2001) में प्रस्तुत आलेख । 60 MINITI IIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मूल्य चिन्तन -समणी सत्यप्रज्ञा मूल्यों की मीमांसा भारतीय संस्कृति का मूल रहा है। संयम, समता, सहिष्णुता सत्य, न्याय, मैत्री आदि सद्गुणों की चर्चा किसी न किसी रूप में प्रत्येक भारतीय दर्शन में हुई है और ये सद्गुण ही भारतीय संस्कृति के आधार हैं, भारतीय दर्शन की आत्मा है। वैदिक संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय का विशद वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुरूपही चार आश्रमों की व्यवस्था यहां की गयी है। प्रसिद्ध श्लोक हैं प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम्। तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति। हर अवस्था के अनुरूप यहां विशेष कार्यशैली का प्रतिपादन है। पर चूंकि जैन-दर्शन विशुद्ध अध्यात्मवादी दर्शन रहा है। इसीलिए काम-अर्थ को बंधन का कारण मानते हुए प्रसंगतः इनकी चर्चा की गई है व इनसे उपरत होने की प्रेरणा दी गई है। धर्म व मोक्ष की यहां विशद चर्चा है। मूल्यों का स्वीकरण कब? अवस्था के साथ ही व्यक्ति का झुकाव अध्यात्म की ओर हो, यह जरूरी नहीं। क्योंकि शरीर -जीर्णता के साथ तृष्णा-जीर्णता का नियम नहीं है। लेकिन शरीर जीर्ण हो, इससे पहले-पहले इच्छाओं/वासनाओं/तृष्णाओं को जीर्ण कर देना साधना है। साधना के स्वरूप को व्यक्त करते हुए कहा गया पूर्वे वयसि यः शान्तः, स शांत इति मे मतिः । धातुषु क्षीयमानेषु शान्तिः कस्य न जायते॥ अर्थात् पूर्व अवस्था में जो शांत होता है वही वस्तुतः शान्त है। धातुओं के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITIONINITWITTTTTTTTINITI TINI TITIN 61 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीण हो जाने पर तो कौन शांत नहीं हो जाता? अपितु प्रारम्भ से ही स्वभावतः शांति यहां काम्य है। शांति केवल बाहरी स्तर पर घटित परिवर्तन में स्थिरता नहीं होती। परिष्कार बाह्य का नहीं, भीतर से भीतर तक हो। भीतर के परिष्कार के बिना बाहर का परिष्कार अकिंचित्कर बन जाता है। आधुनिक शांतिविद् बताते हैं-युद्ध पहले मानव के मस्तिष्क में होता है। अस्त्रशस्त्र का निर्माण पहले मानव मस्तिष्क में होता है तब कहीं बाहर से अस्तित्व में आते हैं। यदि मनुष्य एकान्त कमरे में शांति से बैठना सीख जाए तो विश्व में भी शांति से जी सकता है। पर आज के सारे साधन-संसाधन समस्या के मूल को नजरअंदाज करते हए बाहर ही बाहर समाधान खोजना चाहते हैं। पर साधन-शुद्धि के अभाव में साध्य की शुद्धि संभव नहीं। जब मूल्य निर्मूल बन जाते हैं आज के युग की भयंकर त्रासदी उत्पन्न करने वाली एक के साथ-साथ अनेकों की जीवन-लीला समाप्त करने वाली समस्या है-एड्स । चिकित्सक, वैज्ञानिक, स्वास्थ्यविद् सभी इसके रोकथाम के उपाय खोजने में चिंतित हैं। शोधार्थी इस समस्या को उपचारित करने की सफलता की स्थिति में आएंगे उससे पहले ही न जाने कितनी कितनी जीवन लीलाओं की आहति यह महामारी ले लेगी। समाचार पत्र ने बताया-नर्स को हॉस्पिटल से निकाल दिया गया जैसे ही उसमें एड्स के लक्षण पाये गये। नर्स का दावा है कि हॉस्पिटल में मरीज का उपचार करने के दौरान उस पर एड्स ने आक्रमण किया है। कुछ भी हो, अन्ततः नर्स के भविष्य का कोई आधार नहीं, उसका कोई वर्तमान नहीं, क्योंकि इस एड्स महामारी का स्पर्श पाते ही खून पानी बन अपना अस्तित्व खोता जाता है और शरीरिक शक्ति रीततेरीतते शीघ्र ही वह खौफनाक क्षण उपस्थित हो जाता है जब व्यक्ति तिल-तिल कर वेदना भुगतते हुए इस संसार की यात्रा को समाप्त कर देता है या फिर उस वेदना से छुटकारा पाने के लिए स्वैच्छिक मृत्यु का उपयोग कर मृत्युदानी डॉक्टर की शरण प्राप्त करता है। जीवन लीला समाप्त कर देता है । विज्ञान के अधुनातन संसाधनों के पास इसका कोई जीवनदानी उपचार नहीं। संयम का साथ जब छूट जाता है तो अतिवाद की दिशा को प्राप्त कर व्यक्ति मूल्यों को निर्मूल कर देता है। मूल्यों की मूल्यवत्ता क्यों? - जैन-दर्शन किसी भी समस्या के मूल तक जाने की बात कहता है। कारण का परिहार करने से कार्य स्वतः समाप्त हो जाता है। समस्या के मूल तक जाकर ही समस्या को समाप्त किया जा सकता है। पौद्गालिक सुख का अपनी जगह महत्व हो सकता है। एक सीमा तक उसकी मूल्यवत्ता या उपयोगिता को स्वीकारा जा सकता है पर अति दुःख की ओर से ही ले जायेगा। चूंकि मोह से अतिशय आवृत्त मनुष्य इस पौद्गलिक अनेकांतिकता, अनिश्चिंतता को भी नहीं समझा पाता इसीलिए वासनावश वह अनेक शारीरिक-मानसिक दुःख प्राप्त 62 AMITTITITITUTILITILITITITIW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है। महान मनोवेत्ता सिगमंड फ्रायड के लिबिडो सिद्धान्त की यद्यपि यहां उपेक्षा नहीं की गयी है। क्रियाएं काम-प्रेरित हो सकती हैं लेकिन क्रियाओं का संचालक भाव-जगत होता है। काम की भी एक सीमा रहे कि वह स्वास्थ्य और अर्थ में बाधा न बनें। जो स्वास्थ्य और अर्थ की भी उपेक्षा करके चार्वाक्वादी बनने की कोशिश करते हैं, खाने-पीने और मौज को ही जीवन का लक्ष्य स्वीकार कर लेते हैं उनके लिए शांति का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि इन्द्रिय सुखों की पराधीनता से भगंदर, वात, धातु-क्षय आदि अनेक दोष घेर लेते हैं। जैसे अग्नि ईंधन से, महासमुद्र नदियों से एवं यमराज सभी प्राणियों को मारकर भी तृप्त नहीं होता वैसे ही कामना कभी आसेवन से तृप्त नहीं होती। ये तो सदा अतृप्ति को ही उत्तेजित करते हैं।' जहां पर शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह के स्वास्थ्य का कोई आश्वासन नहीं, समाज और परिवार से जुड़ी जिम्मेदारियों के निर्वहन करने के लिये अर्थ को कोई आधार नहीं, वहां काम-भोगों के दुःख को न जानने वाले व उनमें अतिगृद्धता को न त्यागने वालों के जीवन में पश्चात्ताप व दुःख ही शेष रह जाता है। रोने की अमरता का वरदान उनकी सांसों को मिल जाता है। यहां तक कि आकुलतावश वह शयन-काल में शयन, भोजन काल में भोजन तक करने की स्थिति में नहीं आ पाता। दो दिशाएं दो तरह की स्थितियां होती हैं—1. आपात् भद्रता 2. परिणाम भद्रता। आपात् भद्रता का तात्पर्य है आसेवन के समय तो जो बहुत सुखकर, प्रियकर प्रतीत होता है लेकिन परिणाम में वह बहुत विरस होता है, कटु परिणाम देने वाला होता है। आपात् भद्रता की स्थिति में जीए गए एक क्षण की कीमत कई बार व्यक्ति को जीवन भर चुकानी पड़ जाती है। विपाक फल इसका उदाहरण है। खाने में स्वादु, देखने में सुन्दर लेकिन परिणाम-मृत्यु । मूल्यों का मनन करने वाला, मूल्यों को जीने वाला कभी इस आपात् भद्रता में उलझ नहीं सकता। परिणाम-भद्र का तात्पर्य है- आसेवन के प्रारम्भ में भले कुछ नीरस लगे लेकिन उसका परिणाम बहुत मधुर आता है। जैसे कि शान्त रस । इसका जैसे-जैसे पान किया जाता है उसकी सरसता बढ़ती जाती है। क्रोध, आदि संवेगों, कषायों को असफल करने से जो परिणाम आता है, जिस अनिर्वचनीय शांति का अनुभव होता है-उसकी कल्पना भी क्रोधादि को सफल करने वाले अशांत लोगों को नहीं हो सकती। इसीलिए आचार-मीमांसा से उत्पन्न संताप तो फिर भी कादाचितक होते हैं। लेकिन कामजनित संताप दीर्घकालिक होते हैं। शोक, खेद, क्रोध, अश्रुपात, पीड़ा, परिताप आदि अवस्थाएं उसी से उत्पन्न होती है। कामात पुरुष वैर को बढ़ाता है।" इष्ट अप्राप्ति की स्थिति में आकांक्षा से क्रंदन करता है। नष्ट हो जाने पर शोक से क्रंदन करता है। कामकामी की स्थिति को व्यक्त करते हए कहा है तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANI IV 63 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपूर्यमाणचलप्रतिष्टं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । 13 तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ परिणामभद्रता में ही सदैव श्रेयस् निहित रहता है लेकिन अनुस्त्रोत में बहना सुगम है। कामों की कामनाओं के चक्र से ही संसार संसार बना हुआ है। इनका पार नहीं पाया जा सकता। ये विघ्न बहु व द्वन्द्वयुक्त होते हैं। जिसने अपना लक्ष्य ऊंचा बना लिया है, परिणामों की भद्रता और अभद्रता को अच्छी तरह जान लिया है। कुछ नया करने का जिसके मन में संकल्प है, वह इन कामनाओं के दासत्व को स्वीकार नहीं कर सकता । वैराग्य से ही इनका पार पाया जा सकता है। 14 भर्तृहरि ने इस अन्तिम सच्चाई को जाना — 'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता' काम भीतर में जलने वाली अग्नि है, जो जीवन को समाप्त कर देती है । इसकी कामनामात्र से व्यक्ति दुर्गति में चला जाता है। चक्रव्यूह का भेदन और अभिनिष्क्रमण 15 सारा संसार जिस चक्रव्यूह के भीतर फंसा हुआ है-उससे पार पाने का उपाय भी है । पुरुषार्थ, संकल्प बल और संयम की शक्ति जब जागती है, समाधान खोजा जा सकता है। आचारांग में इसी संयम के लिए पुरुषार्थ और संकल्प के बीज बोए गए हैं। कामना के दासत्व से मुक्ति के लिए कुछ उपाय निर्दिष्ट हैं 1. जो कामों के दास बने हुए हैं, कामों में ही अनुप्रवर्तन करने वाले हैं उनकी स्थिति को देखें । कामासक्त उत्तरोत्तर कामों के पीछे चक्कर लगाता है। कामेच्छा कामसेवन से कभी शांत नहीं होती । अपितु अकाम से उपशांत होता है। इस अनुभूति का जागरण काममुक्ति का सशक्त आलंबन है। 16 काममय जीने वालों की स्थिति को देखें कि क्या जिन्दगी को वे कभी शांति, तृप्ति या तोष का आश्वासन दे सकते हैं ? नहीं, क्योंकि ये तो ऐसी आग है जिसे जितना सींचा जाए उतना ही बढ़ती जाएगी। 2. आसक्ति से उपरत होने का दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग है- उपाय विचय देखें कि जैसे अन्दर है वैसा ही बाहर है, जैसा बाहर है वैसा ही अन्दर है । शरीर के अन्दर जो विवर है निरन्तर अशुचि पदार्थों को स्त्रावित कर रहे हैं। मेडिकल कॉलेज में जाकर देखें - शरीर की सच्चाई क्या है? यह कितना सत्वहीन, सारहीन, रसहीन है, कितना वीभत्स है ? मल्ली कुमारी ने इसी सच्चाई को, शरीर की अशुचिता को राजाओं के सामने व्यक्त किया । गहराई के साथ शरीर प्रेक्षा करें जैसे ही शरीर में आसक्ति हट जाएगी, काम से आसक्ति हट जायेगी । ' 3. जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है। आसक्ति को छोड़ने का उपाय हैआसक्ति को देखना- ज्ञाता - द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थित हो जाना। यह परित्याग का महत्वपूर्ण उपाय है । जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है वैसे-वैसे कर्म संस्कार क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है। संयत चक्षु या अनिमेष प्रेक्षा से आत्मलीनता सुगम हो जाती है। आत्मलीन के लिए बाहर कहीं, कभी और कोई आकर्षण नहीं । दीर्घदर्शी साधक अधोगति, तिर्यग्गति के हेतुओं को जानकर उनका वर्जन करता है। 18 तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 64 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग करें। यह शरीर हमेशा तो इसी रूप में रहने वाला नहीं है। नाशवान है। यदि यह शरीर अमर होता तब तो काम भोगों में महान् श्रद्धा की जा सकती थी। ऋण करके भी घी पीने की बात समझ में आ सकती थी। लेकिन किसी भी क्षण समाप्त हो जाने वाले अस्थिर और अनिश्चित इस क्षणभंगुर शरीर का भरोसा क्या? काम-आसेवन की दिशा में जो प्रवृत्त होता है उसकी उसी क्षण या जिस किसी क्षण में वय आदि किसी मानदण्ड के बिना भी मृत्यु हो सकती है। इसीलिए प्रतिपक्ष भाव के द्वारा काम को अभिभूत करें। निर्वेद -शरीर विरक्ति से संयम को पुष्ट करें। जितनी शरीर से आसक्ति होती है उतनी ही जन्म मरण, रोग आदि की वेदना अनुभूत होती है। व्यक्ति जो कार्य करता है- उसकी वृत्ति/संस्कार मन में अंकित होता है। वह संस्कार बार-बार प्रकट होता है, यह अनुवृत्ति का सिद्धान्त है। भयावह परिणामों की अनुप्रेक्षा के बाद काम-मुक्ति का हृदय से स्पर्श करें, धारणा कर वास्तविकता में उतार लें 21 प्रतिपक्ष भाव द्वारा चैतसिक संस्कारों को भी समाप्त किया जा सकता है। इस विश्वास के साथ यदि प्रयोग किया जाए तो संयम/नियमन/परिवर्तन शमन का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जायेगा। 5. आहार संयम करें। काम-वासना के उदय का संबंध वीर्य उपचय से है। वीर्य उपचय का संबंध आहार से हैं। इसीलिए निर्बल भोजन या ऊनोदरी का बहुत महत्व है।22 रक्त व मांस की अल्पता से उत्तेजना को निमित्त नहीं मिलेगा। मुनि का एक विशेषण आता है-कृश भुजा, रक्त मांस की अल्पता। आहार संयम से आवेग संयमन की साधना सरल हो जाती है। विज्ञान की विवशता विद्युत एवं केमिकल्स के माध्यम से संवेदनों को बदलने का दावा विज्ञान करता है। लेकिन संयम से होने वाले ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण का कोई विकल्प उनके पास नहीं। तंत्र एवं वनौषधि साध्य उपाय भी हिंसा से रहित नहीं और वहां भी ऊर्जा के ऊर्वीकरण का कोई अवकाश नहीं। इसीलिए ध्यान व तप से किया जाने वाला कामोपचार काम चिकित्सा ही काम-निर्मूलन का हेतु है। ध्यान एवं तप ही ऊर्जा का अक्षय भण्डार है। आरोहण का स्त्रोत प्रेक्षाध्यान के अन्तर्गत चैतन्य केन्द्र के विशेषज्ञों द्वारा यह मान्य है कि काम संज्ञा शक्ति केन्द्र को, आहार-संज्ञा स्वास्थ्य केन्द्र को व यशोभिलाषा तैजस् केन्द्र को सक्रिय करती है। इस स्थिति में आनन्द केन्द्र निष्क्रिय हो जाता है। फलतः आत्महित की प्रज्ञा का जागरण नहीं हो पाता। इसीलिए ब्रह्मचर्य, आहारं संयम व यशोभिलाषा से मुक्ति के लिए उपाय बताया है। आनन्द केन्द्र पर ध्यान करें। आनन्द केन्द्र की सक्रियता से ये तीनों संज्ञाएं विनष्ट हो जाती हैं। चित्त परिष्कार व आदतों के परिवर्तन के लिए एक ओर आलंबन है-अप्रमाद केन्द्र 2001 W I NNINONY 65 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर चमकते हुए नीले रंग का ध्यान करें। विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान, दर्शन केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान वासना-1 - विजय के लिए महत्त्वपूर्ण मंत्र है । ऊर्ध्व स्थान का प्रयोग करें। रागात्मक प्रकृति को दूर करने के लिये खड़े रहना व गमन करना अच्छा आलंबन है। ऊर्ध्वस्थान के एक प्रयोग में घुटनों को ऊंचा, सिर को नीचा कर कायोत्सर्ग करें। ऊर्ध्वस्थान की अवस्था में दोनों नेत्रों को नासाग्र या भृकुटी पर स्थिर कर अथवा बार-बार इन पर स्थिर करें। इस क्रिया से अपानवायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल होती है । अपानवायु की प्रबलता में कामांग सक्रिय होता है और प्राण वायु की प्रबलता से यह निष्क्रिय हो जाता है। 26 अपने इष्ट मंत्रपूर्वक समवृत्ति श्वास प्रेक्षा की 25 वृत्तियां करने से भी काम उपशांत होते हैं। यह सच्चाई है कि इन्द्रियां इन्द्रियों से तृप्त होती हैं, चेतना चेतना से 27 इसीलिए सबसे पहली आवश्यकता है - विपर्यास मुक्ति की । 28 इस अंध आग्रह का परित्याग हो कि इन्द्रियों के जगत में सुख या तृप्ति मिल सकती है । भोगों की अभिलाषा व इन्द्रिय सुख का अतिक्रमण कर आत्मिक सुख के जगत् में प्रवेश करने का पुरुषार्थ जागे तो संयम व मूल्यों का महाप्रासाद स्वतः निर्मित हो जायेगा । संयम की इस उषा के साथ ही साथ न्याय, मैत्री, सत्य, प्रेम, समत्व आदि सहस्र किरणों वाले मूल्यों का सूर्योदय हो जायेगा । संयम, पुरुषार्थ, शुभ अध्यवसाय ही संयम यात्रा के सोपान बने, नैतिक मूल्यों का व्यक्तित्व निर्मित हो, इसी में शुभ भविष्य निहित है । काम परिष्कार का यह प्रयोग अर्थ शुद्धि के साथ-साथ धर्म व मोक्ष का संवाहक बने इसी में मानवता का कल्याण है। संदर्भ सूची 1. आचारांग 5/2/34, 2/5/128 2. भृर्तहरि : वैराग्यशतक 3. आचारागं 3/2/34 4. आचारागं 2/5/89 5. आचारागं 6/1/16-17 6. 7. 8. 9. पंचसूत्र 4/5 10. आचारांग 2/5/124 11. आचारांग 2/5/155 12. आचारांग 2/5/139 13. गीता 2/70 14. आचारांग 6/2/34 66 आ.चू.वृ. 75 आचारागं 2/5/96 आचारागं 2/5 / 134 15. उत्तराध्ययन 9/53 16. आचारांग 6/9/94 17. आचारांग 2/5/126 18. आचारांग 6/5/108 19. आचारांग 2/5/125 20. उत्तराध्ययन 10/1 21. आचारांग 6 / 2/33 22. निशीथ भाष्य, आ. यू. पृ. 186 23. आचारांग 6/3/67,2/5/134 24. आचारांग 2/5/131, 136 25. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा - आचार्य महाप्रज्ञ 26. आचारांग 5/4/81 27. 28. कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । पुद्गलै पुद्गलास्तृप्ति यान्त्यात्मा पुनरात्मना WWW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-समीक्षा ऋषभायण भारतीय संस्कृति के आदि सर्ग की दिव्य परिक्रमा -जतनलाल रामपुरिया 'ऋषभायण' आचार्यश्री महाप्रज्ञ की काव्यात्मक मौलिक रचना है जिसे ऋषभयुग के इतिहास, कला, साहित्य, धर्म, दर्शन, संस्कृति और जीवन मूल्यों का भाष्य कहा जा सकता है। सन्तता की स्याही से लिखा ऋषभायण ऋषभ के जीवन-दर्शन में अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को तलाशने की सफल यात्रा है। यद्यपि इसकी अर्थात्मा को समझने के लिए हम आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा लिखित भाष्य की प्रतीक्षा करेंगे पर लेखक ने ऋषभायण अनुकृति के रूप में उसकी विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की है। अनुशीलन की इस परिक्रमा में उन्होंने सत्य को देखने-समझने की दृष्टि दी है और महाकाव्य की गहराई तक पहुंचने के नए रास्ते खोले हैं। प्रबुद्ध पाठकों के लिए यह आलेख चिरन्तन दर्शन से रूबरू कराता हआ चेतना के ऊर्ध्वारोहण में प्रज्ञाजागरण की मजबूत सीढ़ियां तैयार करेगा और दिव्य संदेश बनेगा जीवन के सत्य तक पहुंचने का। - सम्पादक ऋषभायणः अनुकृति दर्शन केवल दर्शन है, आगे कुछ नहीं मेरे लिये इस जगह स्थिर हो जाना अच्छा रहता है मगर प्रकृति मनुष्य की इतनी कृतज्ञ नहीं कि जो जहाँ चाहे उसे वहाँ स्थिर होने दे। सच तो यह है कि हर मनुष्य वहाँ स्थिर है जहाँ उसका मन अस्थिर है। इस दृष्टि से सारी मनुष्य जाति विस्थापित है। जन्म से ही दर्शन मनुष्य के साथ है। फिर भी वह दर्शन के दर्शन नहीं कर सका । दर्शन भी इसलिए एक विस्थापित की मनोदशा में है। और यह धरती? इतने सारे पाप के पुतलों का बोझ ढ़ोने की जगह यह भी नीरव-निर्जन चन्द्रमा की जगह स्थापित होना पसन्द करती। तब न दर्शन होता, न मैं। तब खाली धरती होती, बस ! और कुछ नहीं। कुछ न होने की यह मीठी कल्पना, आप धरती से पूछिये, उसे बड़ी सुखकर लगी है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी--जून, 2001 ATTITIO IIIIIIIIIII IIV 67 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरती चन्द्रमा की जगह नहीं हुई। खाली भी नहीं रही। बहुत कुछ चला आया इसके पास | यह उसकी इच्छा नहीं, विवशता है। इस बहुत कुछ में बहुत कुछ उलझा हुआ है। शून्य को देखिये। बड़ा छली है। शून्य है, पर शून्य बन कर कभी रहता नहीं। शून्य है, पर सबको भयातुर रखता है। शून्य है, पर विद्रोह को स्वर देता है। जब-जब किसी ने किसी को शून्य बनाने की सोची तब-तब विद्रोह हुआ, विस्फोट हुआ । वैचारिक विस्फोटों से लेकर आणविक विस्फोटों तक सब शून्य की कोख में पले हैं। इस बहुत कुछ में अतीत भी एक है। उनकी अलग चर्या है। धरती पर जो कुछ है, सब गलता है, पिघलता है। पर अतीत न गलता है, न पिघलता है। बल्कि हर बीतते पल के साथ वह और भी सघन होता जाता है। अतीत शाश्वत है। उसके स्वर भी शाश्वत हैं। अनवरत शून्य में तैरते रहते हैं। प्रकाश की किरणें जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसी के अनुरूप आकार ले लेती हैं। अतीत के कम्पन भी जिसे स्पर्श करते हैं, उसे उसके मनोभावों के अनुरूप अपना अर्थ देते हैं। अतीत के पृष्ठों को जो लौकिक लिपि में पढ़ते हैं वे उन्हें इतिहास की संज्ञा देते हैं और घटनाओं की समाप्ति को उपसंहार समझ कर फिर अपने में लौट आते हैं। मगर जिन्हें अतीत की स्फुरणा में अलौकिक स्वरों की अनुगूंज सुनाई देती है वे उसमें उस दर्शन से साक्षात्कार करते हैं, जिसकी अनुभूति धरती को उसकी विवशता की मनोव्यथा से मुक्ति दिलाती है। हजारों वर्ष पूर्व के काल-खण्ड पर ऋषभ-वृत्त अंकित है। आचार्य महाप्रज्ञ की सद्य प्रकाशित काव्यकृति ऋषभायण को जिन लोगों ने नहीं पढ़ा है वे इसमें भी, जैसा कि इसके नाम से भास होता है, केवल ऋषभ के उस इतिहास को ही अंकित समझेंगे। मैं भी यही सोचता था। इसी बीच श्री गोविन्दलालजी सरावगी (कलकत्ता) ने उस पुस्तक की कुछ प्रतियाँ वितरणार्थ मेरे अग्रज श्री ताराचन्दजी रामपुरिया को भेजी। उन्होंने एक प्रति मुझे दी। पुस्तक मेरे पास कुछ दिन ऐसे ही रखी रही । एक दिन मन बहलाने की-सी ही मनःस्थिति में मैंने इसे हाथ में लिया । अनायास ही पृष्ट 94 खुला | प्रथम पंक्तियों पर दृष्टि पड़ी धर्म, संयम और मुनि का अर्थ-पद अज्ञात है शब्द का संसार सारा अर्थ का अनुजात है मैं अब तक भ्रम में था कि शब्द-यात्रा जहाँ समाप्त होती है, अर्थ-यात्रा वहाँ से प्रारम्भ होती है और इसलिए सदा शब्दों में ही अर्थ खोजता रहा हूँ। मगर 'शब्द का संसार सारा अर्थ का अनुजात है' इस पंक्ति ने मुझे बाँध लिया। अचानक जैसे एक किरण फूटी। तो क्या इस पुस्तक में अर्थ को शब्द मिले हैं? इतिहास-कथा से क्या कुछ ऊपर है यह पुस्तक? मैं ठहर गया । तब से आज तक ऋषभायण के पृष्ठों पर ही ठहरा हूँ और अब आपसे यह कहने को आतुर हूँ कि इस पुस्तक में सचमुच केवल अर्थ हैं, केवल अर्थ और वे अर्थ जो मनुष्य के अन्तर्मन में व्याप्त अनर्थ को अवरोहण की दिशा में प्रस्थित करते हैं। 68 MINAIN ANTITITIONS तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पय में घृत की, सहज अस्मिता, मंथन से नवनीत निकलता । व्यंजन द्वय, सापेक्ष अकेला अभिव्यंजन के लिए मचलता ॥ एक तट पर अर्थ और दर्शन भी एकाकार हो जाते हैं। अर्थ में तब स्वतः ही दर्शन समा जाता है और दर्शन में सहज ही अर्थ प्रतिबिम्बित होने लगता है। इस रमणीक तट की नीरवता में बैठ कर जो लिखा जाता है, वह अन्तःस्थल की अतल गहराइयों से निकलता है और केवल स्वान्तः सुखाय होता है। ऋषभायण का प्रणयन भी मेरे मन में कोई संशय नहीं, स्वान्तः सुखाय हुआ है। अर्थ-विजड़ित, दर्शन - अनुप्राणित ऐसी अनन्य कृति किसी और पीठिका पर नहीं रची जा सकती । मैंने जब इस महाकाव्य को पढ़ना शुरू किया तब संभवतः मेरे मन में एक-दो बार इसकी समीक्षा लिखने के भाव उठे हों। मगर मेरे पठन ने जब अनजाने ही पारायण की सीमा में प्रवेश किया तब अचानक मुझे आभास हुआ कि इस ग्रन्थ में मेरी निमग्नता नितान्त स्वान्तः सुखाय है, अन्य किसी उद्देश्य से प्रेरित नहीं । स्वान्तः सुखाय कृति का स्वान्तः सुखाय पठन मेरे लिये तृप्ति के विरल पल रहे । सच तो यह है कि ऋषभायण के स्वरों ने मुझे इहलोक और परलोक दोनों के सुख की अनुभूति दी है। इसकी अन्तर्लय केवल अनुभूतिगम्य ही है। मगर - " अनुभव को उपलब्ध न वाणी, वाणी अनुभव - शून्य सदा । कैसे व्यक्त करूं अनुभव को, यह क्षण आता यदा कदा ।" अनुभूति अभिव्यक्ति चाहे और शब्द न मिले। मैं इस विकट स्थिति में रहा । मुझे कामायनी की एक पंक्ति याद आई - "मनु ! अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।" मेरा विकल मन शान्त हुआ। तो इस घड़ी जो मैं आपके साथ हूँ, अपनी सुखानुभूति को विस्तृत करने की इच्छा से अभिप्रेरित होकर ही । मूल है, शब्द अनुवाद । अर्थ सागर है, शब्द गागर । शब्दों का संसार सीमित है, अर्थ का असीमित | अर्थ को शब्द देने की कला सब नहीं जान पाते । मैं तो नहीं ही जानता । 1 केवल इतना जानता हूं कि आगामी पृष्ठों में, जो ऋषभायण की लघु-छाया रूप है, शब्द जो भी हों, आप उनमें वे अर्थ ढूंढ़ लेंगे, जो मनुष्य जीवन को अर्थ देते हैं और ऋषभायण का ह पृष्ठ जिनसे भीगा है । यह भी जानता हूं कि तब आप स्वयं को उस रम्य तट पर अनुभव करेंगे जहाँ अर्थ और दर्शन एकाकार होते हैं। " दिन में तारे छिप जाते हैं, तम में हो जाते ज्योतिर्मय । अग्नि अरणि में विद्यमान पर घर्षण-शून्य न होती तन्मय ॥" पृष्ठ 14 तुलसी प्रज्ञा जनवरी – जून, 2001 । * * * 69 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ब्रह्माण्ड की विशाल रंगभूमि पर अभिनय - रत दो नट - चेतन और अचेतन हैं । केवल दो नट-चेतन जीव और अचेतन पुद्गल । इन दोनों की क्रीड़ाओं ने जीवन - बेल रची। पृथ्वी, सलिल, कृशानु, समीरण, तरुगण और तिर्यंच (देहधारी) इस जीवन- बैल के विभिन्न पर्याय बने । तीर से बद्ध नीर की तरह पुद्गल-वेष्टित जीवों का अवतरण हुआ । सम्पूर्ण सृष्टि व्याप्त कुछ अणुओं ने मिल कर एक जीव को मनुष्य की देह प्रदान की। मनुष्य ने जब पहली बार अपनी आँखें खोली तो ऊपर आकाश को देखा। मन में जिज्ञासाओं का ज्वार उमड़ायह नीला नीला क्या है? अन्य जीवों से अलग, अनुसन्धान और अन्वेषण की दिशा में मनुष्य की अशेष यात्रा का यह प्रथम चरण था । शैशव काल सुखद होता है । मनुष्य जाति का शैशव काल भी सुखद था । हर दम्पति अपने शेष काल में एक युगल को जन्म देता और कुछ माह बाद पति-पत्नी दोनों एक साथ देह त्याग देते । नवजात द्रुतगति से बढ़ते और बड़े होकर पति-पत्नी बन जाते। लम्बे अन्तराल से क्षुधा - पूर्ति की आवश्यकता अनुभव होती। कल्पवृक्ष उसे पूरी कर देते। सीमित जनसंख्या, सीमित इच्छायें, सीमित आवश्यकतायें और सीमित संसार । न कोई समाज था, न नगर, न गाँव । न शासक, न शस्त्र, न अर्थ, न शोषण, न छलना, न आक्षेप, न अपराध, न दण्ड और न रोग, न चिकित्सा । सर्वत्र सहज सिद्ध संन्यास । यह उत्सर्पिणी काल था जब वस्तु-गुण अपने क्रमिक विकास के पथ पर होते हैं । समय ने करवट बदली। अवसर्पिणी काल का प्रारम्भ हुआ और उसके साथ उन वस्तुओं के गुण-धर्म में ह्रास का क्रम । कल्पवृक्ष सूख गये। उनके कार्पण्य से अभाव की सृष्टि हुई और मनुष्य के उपशांत मन में क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय हुआ । 'है उत्कट अनुभाव काल का, अघटित घटना घट जाती प्रखर चेतना सो जाती है, सुप्त चेतना जग जाती।' पृष्ठ 13 कल्पवृक्षों पर सब अपने-अपने अधिकार जताने लगे। स्वत्व हरण और कलह कुटिलता की बढ़ती वृत्ति से त्रस्त युगलों को सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव हुई। मुक्त पवन में श्वास लेने वाले युगल-समूह ने नेतृत्व की खोज की और विमलवाहन को प्रथम कुलकर के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने सुव्यवस्था हेतु नियमों का अंकुश लगाया। समय रथ आगे बढ़ा और उसके साथ यौगलिक युग अपने अवसान की ओर । कुलकर व्यवस्था ने भी सांध्य बेला देखी । आत्म-अनुशासन का पहला चरण विन्यस्त हुआ, तो राजतंत्र का दूसरा चरण आश्वस्त । कुलकर नाभि और पत्नी मरुदेवा । उत्तर रात्रि में मरुदेवा ने विलक्षण स्वप्न देखापीन - स्कन्ध वृषभ, स्वर्ग से उतर रहा विक्रमशाली सिंह, पद्मवासिनी लक्ष्मी और सुरभित सुमन-माला | स्वप्न में दिखे इन प्रतीकों के अनुरूप ओज-तेज युक्त हिरण्यकांतिमय देहयष्टि लिए ऋषभ का जन्म हुआ। शैशव को पार कर ऋषभ ने युवावस्था में पैर रखे। सहजात 70 तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमंगला और अपने भाई की अकाल-मृत्यु से यूथ-विलग हरिणी की तरह अकेली हो चुकी एक और कन्या सुनन्दा के साथ ऋषभ का विवाह हआ। पत्नी-द्वय की यह नवरचना विधिवत सम्बन्धों की पहली लय थी और युग-परिवर्तन का एक नया प्रभात।। सुमंगला ने युगल को जन्म दिया-पुत्र भरत और पुत्री ब्राह्मी । सुनन्दा-प्रसूत युगल था-सुत बाहुबली और सुता सुन्दरी । बहपत्नी-प्रथा और परिवार वृद्धि की इस पहली परछाई के साथ संतति-वर्धन का चक्र घूमा । सुमंगला कालान्तर में अर्धशतक युगलों की माँ बनी। एक ओर जन विस्तार, दूसरी ओर सूखते कल्पवृक्ष । सब यदि बाँट-बाँट कर खाते तो दण्ड-शक्ति आरोपित शासन आदमी के सर पर आसन न बिछा पाता | पर मनुष्य-मनुष्य में आचार-विचार की विषमता और आवेश-आक्रोश की बढ़ती वृत्ति ने राजतंत्र को निमंत्रण दिया। युगलों के आग्रह पर कुलकर नाभि ने ऋषभ को प्रथम नृपति के रूप में अभिषिक्त किया। जठर-वेदना से मुरझाये युगलों को राजा ऋषभ ने कृषि शिक्षा दी। खेती से उत्पन्न फल-पत्र-मूल आहार के विकल्प बने । अकस्मात लगे दावानल ने मनुष्य को अग्नि से परिचित कराया और अन्न को पकाने का माध्यम उसके हाथ लगा। क्षुधा-पूर्ति के साधन जुटे पर आवास की समस्या थी। तभी एक गगन-पथगामी धरती पर उतरा। सौधर्म लोक के उस अधिपति ने नगर-संरचना का मंत्र-मर्म समझाया। प्रासाद बने । गृह-पंक्तियाँ खड़ी हईं और युगलों ने नगरी में प्रवेश किया। अब छत के नीचे जो था, वह धरती थी और उसके ऊपर जो था वह आकाश । अद्वैत की कोख से अनजाने ही द्वैत का जन्म हुआ। दूध से दही प्राप्त होता है। दही मक्खन की लालसा उत्पन्न करता है। इच्छाओं का अपना चक्र है। एक बार गतिशील होने के बाद वह रुकता नहीं। कृषि ने अर्जन का अध्याय खोला। अर्जन ने रक्षक -श्रेणी की अपरिहार्यता सामने रखी। कुंभकार, लोहकार, बुनकर आदि इस क्रम में जुड़े। अब शब्द-सिद्धि और विद्या-वृद्धि की ओर ऋषभ के चरण बढ़े। शिक्षा के क्षेत्र में नारी को पुरुष के समकक्ष स्थान मिला । नारी को शिक्षा का अधिकार नहीं। ऋषभ की विस्मृति से कालान्तर में यह मिथ्यामति विषय-बेल फैली और दीर्घकाल तक नारी ने अज्ञान के तमस की व्यथा झेली। उन्होंने भरत को शब्द-शास्त्र पढ़ाया, ब्राह्मी को लिपिन्यास की शिक्षा दी और सुन्दरी को संख्या-ज्ञान की दीक्षा | बाहुबली ने मानव-मणि-पशुरक्षण का ज्ञान प्राप्त किया। फिर बन्धु-द्वय और भगिनी-द्वय ने मनुपुत्रों के बीच विद्या का विस्तार किया। उसके साथ परिवार-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था और दण्ड-व्यवस्था विकसित हुई। एक चरण विन्यस्त होता है तो दूसरा आश्वस्त । वसन्तोत्सव का दिन। सुरभित उपवन में मनुष्यों का मेला | पुष्प चयन करती बालायें और हास-परिहास में निमग्न तरुण । मगर मन का साम्राज्य अद्भुत है। भावनाओं की गति का तंत्र-वितान बड़ा गूढ़ है। सुख की सबकी अलग-अलग परिभाषा सत्य को भी भ्रमित रखती है। अपने में आस्थित, ऋषभ के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 20016 WW 71 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में उस दिन दूसरा ही मेला लगा था। यह निर्ग्रन्थ की जागृति का मेला था, भोग से योग की ओर मुड़ने के चिन्तन का मेला था, स्वयं को सिद्ध और बुद्ध बनाने हेतु श्रमण-पथ पर अग्रसर होने के संकल्प का मेला था। _ऋषभ ने पुत्रों के बीच राज्यों का वितरण किया। भरत अयोध्या (विनीता) के राजा बने । बाहबली ने बहली-अंचल का शासन संभाला। राज्यभार स्वीकार करते समय भरत ने राजनीति-संबोध की याचना की। ऋषभ ने राज्य-संचालन के प्राण तत्व को निरूपित कियाशासक जनता से निग्रह शक्ति उधार लेता है। उसे जनता की पीड़ा के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। शासक शोषक न बने और न शासन व्यवसाय | सबको न्याय मिले। दर्बल पर सबल अत्याचार न कर पाये । सत्ता का अभिमान शासन को मलिन करता है। अजितेन्द्रिय शासक अंकहीन शून्य की तरह अर्थहीन और विफल होता है। संयत शासक धरती पर पुण्य-वर्षा करता है। निग्रह और अनुग्रह का संतुलन शासन को विपदा से मुक्त रखता है। अर्थलोलुप सचिव अनर्थ का कारण बनता है। यह उद्बोधन उस समय भरत के लिए था, आज भारत के लिए है। ऋषभ अभिनिष्क्रमण हेतु उद्यत हए। उनके अतीन्द्रिय ज्ञान से आविर्भूत और उनके उपकारों से कृतज्ञ जनता उनके गृहत्याग की बात सुनकर अपने भविष्य के प्रति आशंकित हुई। लोगों ने संन्यास न लेने हेतु प्रार्थना के स्वर में उनके समक्ष अपनी युक्ति रखी भोग मानव की प्रकृति है, फिर वहाँ संघर्ष क्यों? है समंजसता प्रकृति में फिर अहेतु अमर्ष क्यों? अनय अविनय प्रभु-चरण के प्रति नहीं संभाव्य है, फिर लिखा क्यों जा रहा यह त्याग का नव काव्य है? सर्ग 6, पृ. 95-96 ऋषभ ने उत्तर दियाभोग की सम्मोहिनी से चक्षु की द्युति रुद्ध है, आवरण को दूर करने, चेतना प्रतिबुद्ध है। इक्षु रसमय अनासेवित, सरसता सप्राण है और सेवित विरस बनता, मात्र त्वक् निष्प्राण है। भोग भी आपात में प्रिय, मधुर मनहर कांत है, विरसता क्रमशः बढ़ाता, पाक उसका क्लांत है। त्याग की है विरल प्रतिमा, आदि में रसमुक्त है, दीर्घकालिक सेवना से, अतुल रस-संयुक्त है सर्ग 6, पृ. 96-97 72 MINS INITIATI V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन ज्ञान-रश्मियों ने नया आलोक बिखेरा। कच्छ और महाकच्छ आदि चार हजार लोग ऋषभ के साथ दीक्षित हए। नंदिकर सिद्धार्थ नामक स्निग्ध हिम-उद्यान प्रथम दीक्षा स्थल बना। ऊर्ध्व कायोत्सर्ग की मुद्रा में ऋषभ ने उस दिन एक अनूठे अपवर्ग की नींव रखी बद्ध अंजलि, प्रणत मस्तक, सिद्ध की अभिवंदना, विमलता ज्यों विमलता की, कर रही अभिनंदना। परम सामायिक निरन्तर, अब मुझे स्वीकार्य है, आचरण सावद्य अविकल, सर्वथा परिहार्य है। उच्चतम यह गगनचुम्बी, शिखर शीर्ष समत्व का, हो रहा है घटित सहसा, ग्रंथिभेद ममत्व का। चेतना की विमलता ने, कमलदल को छू लिया, आत्मवर्चस्-वेदिका पर, जल उठा अविचल दिया। सर्ग 6, पृ. 101-102 विनीता से प्रस्थान की घड़ी आई। जनता धैर्य खो बैठीजा रहे हो नाथ! हमको छोडकर अज्ञात में भेद हम कर पा रहे थे, रात और प्रभात में। चरण-सन्निधि प्राप्त कर प्रभु ! प्रात जैसी रात थी, दूर पा प्रभु-चरण-युग को, रात जैसा प्रात भी। सर्ग 6, पृ. 103 भरत, बाहुबली और उनके अट्टानवे भाई | माँ मरुदेवा, पत्नी-द्वय सुमंगला और सुनन्दा व पुत्री-द्वय ब्राह्मी और सुन्दरी । सबकी एक ही मनोदशा । सब विवश और विकल भावना का उत्स अक्षय, शब्द-सरिता बह चली, सजल नयनों से हुई, अभिषिक्त पूर्ण वनस्थली । चाहता है भरत कहना, किन्तु जलधि अथाह है, और बाहुबलि न कोई खोज पाया राह है। माता भी मरुदेवा स्तंभित, मौन मूर्ति-सी खड़ी रही, पत्नी द्वय के मानस-कंपन से आकम्पित हुई मही। विदुषी ब्राह्मी और सुन्दरी, गद्गद् स्वर में बोल रही, रागसूत्र के महाग्रंथ का, पहला पन्ना खोल रही। सर्ग 6, पृ. 104-106 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NTITIY AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIV 73 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ ममता के धागों को तोड़ चुके थे। रागमुक्त, मोह संवेदना से परे वे आत्मसाक्षात्कार हेतु अज्ञातवास के लिए चल पड़े धर्म के आकाश में रवि का नवोदय हो रहा, जागरण उस परम पद का, आज तक जो सो रहा। ध्यान कायोत्सर्ग मद्रा, मौन अन्तर्याप्त है, दिव्य आभा दिव्य आत्मा, लग रहा वह आप्त है। दिवस बीते जा रहे वह अग, अचल, अश्रांत है, भूख की जय, प्यास की जय, अन्तरात्मा शांत है चाह नहीं है, राह वहीं है, सत्य कहीं अस्पष्ट नहीं, शुद्ध चेतना के अनुभव में, प्रिय-अप्रिय का कष्ट नहीं। आत्मलीनता के मन्दिर में बाहर का विस्मरण हुआ, आत्मा में परमात्मा का, अनजाना-सा अवतरण हुआ। खड़े रहे छह मास, श्वास की गति लययुत अतिमंद हई, सक्रिय है चैतन्य, प्राण की बाह्य वृत्ति निस्पन्द हुई । सर्ग 6, पृ. 110, 115 लम्बी साधना और तप के बाद अन्तःदर्शन हुआ। चिन्तन में एक नया उच्छवास आया-- यह शरीर पुद्गल से परिचित, उपचित होता पा आहार, अपचित होता अनाहार से, पुद्गल का पुद्गल से प्यार। आत्मा की उपलब्धि अनुत्तर, हो शरीर धारण का अर्थ, इस शरीर की संरक्षा के हेतु अशन अतिशेष समर्थ। भोजन से तनु, तनु से होगा, धर्मतीर्थ का अथ अनुवृत्त, धर्मतीर्थ से वृत्त मनुज की, संस्कृति का वह हो इतिवृत्त । केवल कृश करना वपु को है, प्रस्फुट ही ऐकांतिक वाद, पोषण और तपस्या में ही, अनेकान्त-संभव संवाद। सर्ग 6, पृ. 116 धर्मचक्र प्रवर्तन का कार्य अभी शेष था। छह मास की तपस्या के बाद ऋषभ भिक्षा हेतु जनपद पर्यटन करते रहे | पर भिक्षुक और भिक्षा दोनों शब्द अब तक अश्रुत थे। लोग आरोहण हेतु अश्व और गज प्रस्तुत करते, मुक्ता-थाल व मणि-निचय की भेंट स्वीकार करने 74 AM SAMI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का आग्रह करते। स्निग्ध, मधु भोजन और जल भरे पात्रों की भी कमी नहीं थी पर मुनिधर्मोचित भोजन उपलब्ध नहीं हुआ। ऋषभ विहार करते-करते हस्तिनापुर पहुंचे। एषणायुत दान की विधि वहाँ भी कोई नहीं जानता था। पितामह के पदार्पण की बात सुनकर पौत्र श्रेयांस रोमाञ्चित हो उठा। पुलकितमना वह परिवार को लेकर प्रभु की सन्निधि में पहुंचा । श्रद्धा से शीश झुकाया। फिर दृष्टि प्रभु के चेहरे पर ठहर गई नयन सुस्थिर, पलक ने अनिमेष दीक्षा व्रत लिया, मुक्तिदाता की शरण में, क्यों निमीलन की क्रिया ? देखता अपलक रहा, पल-पल अमृत आस्वाद है, रूप ऐसा दृष्ट मुझको, आ रहा फिर याद है। तर्क और वितर्क कर, मन से परे वह हो गया, अचल निर्मल चेतना के, गहन पथ में खो गया। स्मृति उतर आई अमित, आलोकमय दिग्गज हआ, जन्म का संज्ञान पाकर, शरद का नीरज हुआ। सर्ग 6, पृ. 129 श्रेयांस को पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। ऋषभ तब चक्रवर्ती राजा थे और वह उनका सारथी। उस समय ऋषभ के पिता तीर्थंकर थे। उनकी उपनिषद में श्रेयांस ने मुनिवर्य-चर्या का सुनिष्ठा से पालन किया था। जातिस्मरण ज्ञान के इन क्षणों में इक्षुरस से भरे घट लोग उपहार स्वरूप लेकर आये। श्रेयांस ने इस निरवद्य पेय को भगवान से ग्रहण करने की प्रार्थना की। भगवान ने श्रद्धाभावित उस रस-दान को श्रेयांस के हाथ से अपने कर-पात्र में लिया। अक्षय-तृतीया का वह दिन इस तरह तप-पारायण का महापर्व बना । श्रेयांस ने पूर्व रात्रि में श्यामल स्वर्णगिरि के पयस से अभिषेक करने का स्वप्न देखा था। वह सच हुआ। प्रभु का शरीर भी अब तप से श्यामल हो चला था। ऋषभ पद-विहार करते हए बहली देश आये। तक्षशिला नगरी के उद्यान में रात्रिप्रवास के बाद अजस्र विहार करते हुये उनका अयोध्या में आगमन हुआ। 'चैत्य वृक्ष तट तरु कमनीय, शाखा पल्लव अति रमणीय । छाया में प्रभु को स्थित देख, लिखा प्रकृति ने नव अभिलेख ।' नव अभिलेख ! तरु-मन की चैतन्यता और मनुष्य-मन की चैतन्यता दोनों मिले। सुतरु ऋषभ के लिए बोधि-उदय में निमित्त बना- निर्मल लेश्या, निर्मल चित्त ! ज्ञानसूर्य का अमल प्रकाश और आत्मा में चैतन्य निवास-वट-वृक्ष के नीचे तीन दिन के उपवास के साथ प्रभु श्रेणी-आरोहण की साधना में लीन हये तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 20017 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमाद का अनुभव नव्य, अंतश्चेतन कितना भव्य ! इन्द्रिय गण का प्रत्याहार, दृष्ट हुआ अभिनव संसार । क्रोध ! बंधुवर ! सुन लो मान ! खोजो अपना-अपना स्थान, माये ! देवि ! सुनो आह्वान, कृपया शीघ्र करो प्रस्थान। मित्र! लोभ ! जो आस्पद काम्य, वही बने सहसा विश्राम्य, त्यागो तुम सब मेरा साथ, स्वीकृति में उठ जाये हाथ । क्रोध मौन हो गया अरूप, अहंकार ने बदला रूप, माया का अस्तित्व विलीन, फिर भी लोभ रहा आसीन। देखा कोई मित्र न अत्र, चले गए हैं सभी परत्र, नहीं अकेले में उत्साह, पकड़ी उसने उनकी राह । सेनानायक मोह कराल, सारा उसका मायाजाल, शेष हो गया अंतर्द्वन्द्व, अंतर्जगत हुआ निर्द्वन्द्व । वीतराग चैतन्य विकास, दिग-दिगंत में पूर्ण प्रकाश, निस्तरंग अधुना जलराशि, कमल विकस्वर सूर्यविकासि । आवरणों का विलय अशेष, अंतराय का रहा न लेश, सकल स्रोत हुआ चित्-स्रोत, कण-कण से निकला प्रद्योत। रश्मिजाल की ज्योति प्रचंड, खंड हो गया आज अखंड, ज्ञेय हआ जो था अज्ञेय, मूर्त-अमूर्त सकल विज्ञेय। करामलवकत् सब प्रत्यक्ष, द्रव्य और पर्याय वलक्ष, शब्द-अर्थ-संबंध-विलोप, रहा नहीं कोई आरोप। ___ सर्ग 8, पृ. 141-144 दूसरी ओर प्रभु की केवलज्ञान उपलब्धि से अनभिज्ञ माँ मरुदेवा के चिन्ताकुल मन में अतीत की स्मृतियाँ उभर रही थी। सूर्य की प्रथम रश्मि के साथ राजा भरत पद-वंदन हेतु माँ मरुदेवा के सम्मुख आये | पूछा–माते! आप उदास क्यों हैं? रुक्ष स्वर में उपालम्भ देती हुई मरुदेवा बोली-तुम वैभव के मद से विमूर्च्छित हो । माँ की मनोदशा नहीं समझोगे। तुम्हारे पिता कहां हैं? कैसे हैं? उनके सुख-दुःख की खबर तुमने कभी ली? किस तरह अपनी ममता का रस घोल कर मैं उसे अपने हाथ से भोजन कराती थी और किस तरह तब प्रकृति का पवन और मेरे पंख का पवन दोनों मिलकर उसके मन को सहलाया करते थे। हाथी पर आरोहण करने वाला आज वह बिना पत्राण, अकेला तपते प्रस्तर खण्डों के बीच विचर रहा है। 76 AININNI II तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणोपरान्त मरुदेवा आत्मस्थ हुई। मन में क्षोभ के भाव उभरे। बोली- नहीं भरत, तुम्हारा कोई दोष नहीं । निठुर ऋषभ ने भी तो कभी याद नहीं किया। एक बार कभी छोटा-सा संवाद ही भेज देता । माँ के पोषण को विस्मृत कर, पंख उगते ही हंस-शिशु उड़ जाता है । मरुदेवा की आँखें सजल हो आईं। मगर ऋषभ उड़े नहीं थे, उन्होंने उड़ान भरी थी एक नये क्षितिज को छूने के लिये और माँ मरुदेवा की चिन्ता उन्हें भी उसी ओर ले जाने की भूमिका मात्र थी । महामाता से आशीष प्राप्त कर भरत अपने प्रासाद में आये । अनुत्तर दो कर्णप्रिय संवाद मिले । उद्यान-पालक यमक ने सूचना दी कि पुरिमताल के सकटानन में प्रभुवर ऋषभ पधारे हैं। देवों ने स्वर्ग से उतर कर समवसरण की अद्भुत रचना की है। दूसरी दिशा से प्रहरी शमन ने आकर बतलाया कि आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है और आयुधशाला दमक उठी है। राजा भरत अतिशय आनन्द और गौरवमय उल्लास के झूले में झूलने लगे । उसी समय पनिहारिन ने माता मरुदेवा को हर्ष और आश्चर्य मिश्रित स्वर में बताया कि भगवान ऋषभ के आगमन से आकाश अचानक आभामय हो चला है और सारे उद्यान हरे भरे हो गये हैं। माता मरुदेवा के नयन-कमलों में अपने पुत्र को देखने के लिये नव-उन्मेष जगा । तत्काल सारा क्लेश विदा हो गया । ऋषभ आ गया, ऋषभ आ गया, हर्षोत्फुल्ल माँ के अन्तर्मानस में उस क्षण केवल एक ही स्वर मुखरित था । क्षण प्रकृति की विलक्षणतम कृति है। अगला क्षण जिस सहजता से इस क्षण को अतीत में भेज देता है, उसी सहजता से वह अतीत को अपने चित्रपट पर सजीव कर देता है। एक क्षण यह, एक क्षण वह दोनों कितने विलग हैं उत्सुकता का एक-एक क्षण, वर्ष-वर्ष से अधिक प्रलंब, है अनुभव सापेक्ष सत्य यह, वही त्वरित है, वही विलंब । दर्शन की उत्कट अभिलाषा, स्मृति का चित्र अधूरा है, भूत बदलता वर्तमान में, तब बनता वह पूरा है। सर्ग 9, पृ. 152-153 राजा भरत प्रभु-दर्शन हेतु माता मरुदेवा को लेने आये । दृष्ट ने मरुदेवा को सीढ़ियों से उतरते देखा। मगर अदृष्ट ने उस घड़ी उन्हें उर्ध्वारोहण के पथ पर अग्रसर होते देखा। दृष्ट पर अदृष्ट के निबन्ध की कोई लिपि नहीं होती । वह सदा अगम्य रहता है । अवरोहण में आरोहणका क्षण ही अगोचर होता है। इन दुर्लभ क्षणों को कोई अनुवाद अभिव्यक्ति नहीं दे पाता । रत्न-विजड़ित शब्दों की आभा सुरक्षित भी मूल में ही रहती है— हर सीढ़ी के अवरोहण के साथ हर्ष का आरोहण, अवरोहण में आरोहण का, होता कोई-कोई क्षण | तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 A 77 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण के सम्मुख आए, बोला प्रांजलि भरत विनम्र, मां! देखो वह ऋषभ विराजित, विश्वश्री राजित कर कम्र। देखा मां ने विभु का वैभव, विस्मय का घन सघन हआ, स्वयं अकिंचन कांचन पीछे, लगता जैसे मगन हुआ। टूट गई अब भित्ति भ्रांति की, जो विकल्पना निर्मित थी, कष्ट-चित्र अंकित थे जिस पर, संशय लय को अर्पित थी। कैसी उज्ज्वल मुख की आभा ! कैसा है सिन्दूरी वर्ण ! दमक रहा है, चमक रहा है, हर शाखा का कोमल पर्ण । इतने दिन मैंने ढोया, अर्थहीन चिन्ता का भार, आकृति बोल रही है, दीक्षा कष्ट नहीं, मधुमय उपहार। हंत !मोहमय चिंतन मेरा, यह निर्मोह विरत आत्मज्ञ, वीतरागता में मन तन्मय, सदा सफल होता मंत्रज्ञ। तन्मयता से मिट जाता है, ध्येय और ध्याता का भेद, साध लिया पल में माता ने, चिन्मय से अनुभूति-अभेद । मरुदेवा ! तू जाग जाग री ! रही सुप्त तू काल अनंत, नींद गहनतम, गहरी मूर्छा, आओ पहली बार वसंत ! संबोधन निज को उदबोधन, अपना दर्पण अपना बिम्ब । माया का दर्शन विस्मयकर, नभ में रवि, जल में प्रतिबिम्ब। त्वरा त्वरा से चरण बढ़ाए, क्षपक श्रेणी का वरण किया, वीतराग बन बनी केवली, आत्मा का आभरण लिया। वपु ! अब तक तुम साथ रहे हो, गति वल्गन धावन संयुक्त, वाणी ! मन ! तुम दूर रहे हो, ध्वनि चिन्तन से सदा विमुक्त। वाणी का पहला स्पर्शन है, पहला दर्शन है मन का, मां बन पाई आदिनाथ की, योग मिला मानव तन का। लेती हूँ मैं आज विदाई, दाएं-बाएं अब न रहो, मन ! बोलो, बोलो तुम वाणी ! चिर-साथी तन ! इसे सहो। IMALINI TIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रकम्प अवस्था में मां, बंध- जाल से हुई विमुक्त, अब न बनेगी मकड़ी जाला, निज सत्ता में नियत नियुक्त | कहा ऋषभ ने मां मरुदेवा, 'सिद्धा सिद्धा', यह सिद्धि क्षण, संप्रदाय से मुक्त धर्म की, भाषा से आभाषित कण-कण । सर्ग 9, पृ. 154-156 हाथी पर आसीन अवस्था में ही मरुदेवा ने सिद्धि प्राप्त कर ली । मरुदेवा की देहयष्टि कर सब प्रभु की सन्निधि में पहुँचे । प्रभु की अन्तरवाणी प्रस्फुटित हुई और अध्यात्म के क्षितिज पर सबने अभिनव ज्ञान - रश्मियों की अनूठी लालिमा-देखी देह और विदेह तत्व दो, नश्वर देह अनंत विदेह, देह जनमता, मरता है वह, अमृत अजन्मा सदा विदेह । सुनो सुनो तुम कान ! सजग हो, निर्झर का नूतन संदेश, छिपा हुआ है अपना आश्रय, आकर्षित कर रहा विदेश । आत्मा सत्यं शिवं सुंदरं, आत्मा मंगलमय अभिधान, उपादान है परमात्मा का, संयम है उसका अवदान । सूक्ष्म तत्व है, इसीलिए वह कहीं गम्य है, कहीं अगम्य, किन्तु चेतना सर्वविदित है, सहज रम्य प्रति व्यक्ति प्रणम्य । पांच इन्द्रियां, पांच विषय हैं, मूर्तिमान यह विश्व वितान, अमूर्त यह चेतन आत्मा, करना उसका अनुसंधान । महासिंधु की सलिल राशि में, उठती- गिरती सहज तरंग, पुनर्जन्म के नियति-चक्र में, आत्मा के नानाविध रंग । तैल खींचती रहती बाती, आकर्षण का सूत्र महान, हर प्रवृत्ति आकर्षित करती, पुद्गल बनता कर्म-विधान ! कर्म, क्रिया का, पुनर्जन्म का, आत्मा से संबंध विशेष, इन चारों पर आधारित हो, मानव का आचार अशेष । मानवीय आचार-संहिता का आधार अंहिसा है, शांति भंग, दुःख-बीज वपन कर, हंसने वाली हिंसा है। सजल जलद की जलधारा से, स्नात हुए सारे निष्णात, दूर अमा की सघन तमिस्रा, हुआ प्रभास्वर प्रवर प्रभात । तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 सर्ग 9, पृ. 157-159 79 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I दृष्ट पर अदृष्ट के निबन्ध को कोई नहीं पढ़ पाता । ऋषभ ने मनुष्य के लिये अहिंसा की आचार-संहिता लिखी, चक्र-रत्न ने हिंसा का अध्याय खोला। एक अचेतन शस्त्र ने युद्धों की विभीषिका को मनुष्य की नियति में ढ़ाल दिया । चक्र-शक्ति से उत्साहित भरत के मन में दिग्विजय का मीठा सपना लहराया। विश्व विजय हेतु सेना का प्रयाण हुआ। एक के बाद एक सब राज्य आत्म समर्पण करते गये। उसके साथ भरत की राज्य विस्तार की लालसा भी बढ़ती गई । हिमगिरि - रे-भाल के उत्तर व दक्षिण में ऋषभ के पालित पुत्र नमि और विनमि दोनों के अपने-अपने राज्य थे। भरत ने उनके पास पत्र भेजा - पद तले अगर भूमि चाहते हो तो सिर पर चक्रवर्ती की छाया स्वीकार कर लो। नमि-विनमि के पास विद्या का बल था । वे नहीं झुके । बारह वर्षों तक युद्ध चला पर जय और पराजय दोनों के पल्ले रीते रहे। इस धरती पर युद्ध किस ग्रह का अभिशाप है, यह सचमुच अन्वेषणीय है । अन्ततः विद्याधर भ्राताओं ने संधि का प्रस्ताव भेजा । नमि ने भरत को असीमित उपहार दिये । विनमि ने भगिनी को उसके साथ प्रणय सूत्र में बांधा । भरत वापस अयोध्या लौटे। 1 मंत्रीश्वर ने राजा भरत का चक्रवर्ती सम्राट के रूप में अभिषेक करने हेतु समारोह का आयोजन किया। राजभवन का वैभवशाली स्फटिकोपम आलय स्वल्प समय में सजाया गया। भरत सिंहासन पर आसीन हुये । आगन्तुक नृप और श्रेष्ठिगणों की उस सभा में सम्राट भरत का एक भी सहोदर उपस्थित नहीं था । महिमामय आयोजन में बंधुगण का कोई सहयोग नहीं? सब निरुत्तर और मौन । दूत अट्टानवे नृप-भ्राताओं के पास पहुंचे। उन्हें सविनय संदेश दिया- सम्राट भरत को वसुधेश के रूप में स्वीकार करो। यदि नहीं तो फिर रणभूमि ही विकल्प है। बंधुगण ने सहचिन्तन कर उत्तर दिया — हमें राज्य - लक्ष्मी पिताजी का वरदान है, भरत का दान नहीं । जो राजा प्रणत हुये हैं, वे बलहीन हैं, मगर हम लड़ने को तैयार हैं। भरत ही अपनी तृष्णा को उपशांत करे। यही काम्य है और यही इष्ट है । राजदूतों को विदा कर भ्रातागण ऋषभ प्रभु से निर्देश लेने हिमगिरि की ओर प्रस्थित हुये । चरण कमलों में प्रणत होकर समवेत स्वर में बोले -भरत द्वारा प्रस्तावित उभय विकल्प सेवा अथवा समरांगण । साम्राज्य विस्तार भरत का संकल्प है और हमारा संकल्प है सेवा केवल उसकी जो निर्विकल्प है। प्रभुवर ! आपने त्याग-धर्म का उपदेश दिया है, मगर भरत का मन रुग्ण है। हमें राह दिखलायें । बतलायें, ऐसी स्थिति में हमारे लिये क्या करणीय है ? प्रभु ऋषभ ने देखा, दोनों ओर से ऐसे प्रबल आग्रह का प्रतिफल केवल युद्ध होगा। उलझन तब सुलझेगी जब ये सब संबुद्ध होंगे। बोले- संबुज्झह किं नो नो बुज्झह । क्षणभंगुर राज्य के आकर्षण में तुम सब प्राज्य को विस्मृत कर रहे हो। उस राज्य को प्राप्त करो जो अनश्वर है, अक्षय है, अव्यय है, शाश्वत है | 80 ANN तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत ! वह भी कुछ है क्या? अज्ञात वस्तु का अलौकिक रंग होता है। शाश्वत पद की नई कल्पना ने विकल्पों से आकुल राजाओं के मन में नई उमंग का संचार किया। प्रभु की स्निग्ध, मधुर, मृदु वाणी फिर कानों में गूंजी मेरा राज्य विराट् अलौकिक, जहां न इच्छा का लवलेश, युद्ध और संघर्ष विवर्जित, नहीं क्लेश का कहीं प्रवेश। ममता, समता से परिवृत्त है, नहीं दृष्ट सुख-दुःख का द्वंद, रात दिवस का चक्र नहीं है, सारी घटनाएं निर्द्वन्द्व । सब ज्ञाता, सब द्रष्टा कोई, नहीं हीन, ना कोई दीन, सलिल सुलभ सबको, ना कोई प्यासी है पानी में मीन। इस सुराज्य में बन जाता है, जो अबंधु वह सहसा बंधु, लोकराज्य की महिमा देखो, कैसे बनता बंधु अबंधु? ललचाता है पुष्प किन्तु वह पल में ही मुरझा जाता, चिरजीवी हैं चुभन जगत में, कांटा जागृति बन जाता। परम अस्त्र है त्याग अनुत्तर, प्रश्न न कोई रहता शेष, भोग शेष की गंगोत्री है, जग में केवल त्याग अशेष । ___सर्ग 12, पृ. 200-202 राजाओं की अतंश्चेतना जागृत हुई। बद्धांजलि वे सब प्रभु-चरणों में समर्पित हुए सोच लिया हम नहीं लडेंगे, नहीं झकेगा पावन शीश, पथ आलोकित हो सन्मति से, ईश ! मिले वैसा आशीस। निर्विकल्प हम भगवन ! केवल आत्म-साधना एक विकल्प, आत्मा की गरिमा के सम्मुख, राज्य हमें लगता है अल्प। आत्मा का साक्षात् करेंगे, दृढ़ निश्चय है, दृढ़ संकल्प, पूर्ण समर्पण ही होता है, कल्पवृक्ष चिन्तामणि कल्प | भूमि ने देखा, अंबर ने देखा जड़-चेतन संघर्ष, आखिर जय की वरमाला ने, देखा चेतन का उत्कर्ष । सर्ग 12, पृ. 202-203 अट्टानवे नृप-भ्राता दीक्षित हो । साथ ही बहिन सुन्दरी भी । घटनावली के इस पटाक्षेप पर सभी ने सुख की सांस ली। मगर युद्धों की आदमी की नियति पर पटाक्षेप नहीं हुआ। भरत अयोध्या लौटे। वहां जनता के मन में विजयोल्लास की उत्ताल उर्मियाँ नृत्य कर रही तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NI MI MITIAN 81 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। मगर सेनापति सुषेण मौन खड़े थे। भरत बोले-विजय और उन्माद एकार्थक हैं, पर तुम सफलता के शिखर को छूकर भी जैसे अनासक्त हो । क्यों? सुषेण ने जवाब दिया मैं विजय की आसक्ति से मुक्त नहीं, उससे युक्त होकर ही यहाँ आया हूँ। चक्र नगर के बाहर अचल है। शत्-शत् यत्नों के उपरान्त भी शस्त्रागार की शोभा नहीं बढ़ा रहा । इसका एक ही अर्थ हैसमर-भेरी फिर बजेगी। भरत ने पूछा-विजय के अभियान में कौन-सा कोना बचा है ? उत्तर मिला मंत्रिवर बोला प्रणत सिर, ज्ञात किन्तु आवाच्य है, ज्ञेय का विस्तीर्ण सागर, अल्पतम ही वाच्य है। मौन है सर्वार्थ साधन, नीति का निष्कर्ष है शांतिपूरित सब दिशाएं, प्यास का उत्कर्ष है। सर्ग 14, पृ. 222 भरत ने आश्वासन देते हुये बतलाने का फिर आग्रह किया अभय देता हूँ कहो सच, भूमि ही आधार है, गगन-यात्रा का निसर्गज, पंख को अधिकार है। कटुक औषध प्रिय नहीं पर, क्या न हितकर निंब है? चन्द्रमा का बिंब नभ में, सलिल में प्रतिबिंब है। सर्ग 14, पृ. 223 मनुष्य की मति और गति पर नियति का नियंत्रण है या युक्ति का, कोई नहीं जानता । जो शब्द श्रेय का संदेश देते हैं, वे ही प्रेय में प्रीति जगा देते हैं। भरत और सुषेण के मध्य इस छोटे से संवाद ने ममत्व को अहं से आवृत्त कर दो भाइयों को युद्ध-भूमि में लाकर खड़ा कर दिया मंत्रीसत्य कहना चाहता पर, प्रेम में विश्वास है, बन्धुता में विघ्न बनना, कुटिलता का पाश है। नयन-युग में द्वन्द्व हो, यह स्वप्न ही आतंक है, निज अनुज के सामने, भुजदण्ड केवल पंक है। भरतबाहबली है अजित, मंत्री ! क्यों यही तात्पर्य है? बंधुवर से युद्ध करना, क्या नहीं आश्चर्य है? 82 MIIII INITIALV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ-पुत्रों में कलह हो, मान्य मुझको है नहीं, चक्र रूठे, रूठ जाए, बन्धु तो वह है नहीं। सर्ग 14, पृ. 224 मंत्रीमौन रहना श्रेय है यह, देव ! पहले कह चुका, वेगमय है सलिल धारा, तीर बन मैं रह चुका । शांति का मैं पक्षधर हूँ, किन्तु उसका अर्थ है, एकपाक्षिक बंधुता का, अर्थ सिर्फ अनर्थ है। स्नेह की सरिता प्रवाहित, एक ओर अशेष है, फूल परिमल रहित अवरज, दर्प का आवेश है। देश और विदेश में यह बात अति विख्यात है, भरत से भी बाहुबली का, बाहुबल अवदात है। जनपदों को जीतने में, शक्ति का व्यय क्यों किया? क्या जलेगा चक्रवर्ती, पीठ का स्नेहिल दिया? बाहबलि को जीतने का, स्वप्न क्यों देखा नहीं, शेष सब नृप बिन्दु केवल, एक है रेखा यही। सर्वजित् की पद-प्रतिष्ठा, देव ! आज अपूर्ण है, पूर्ण का संकल्प हो यह, सुरभि वासित चूर्ण है। स्तोक-सा वक्तव्य देकर, मौन मंत्री हो गया, अर्थ का गांभीर्य देकर, शब्द नभ में खो गया। भरततर्क है बलवान केवल, भावना का द्वन्द्व है, शब्द से व्यवहार चलता, कौन फिर निर्द्वन्द्व है? बाहबलि की नम्रता में, उचित ही संदेह है, उचित है आरोप तेरा, एकपक्षी स्नेह है। ज्येष्ठता का भूमि-नभ में, सर्वदा सम्मान हैं, अनुज के व्यवहार में तो, झलकता अभिमान है। प्रणत है षट्खण्ड भूपति, अनत केवल भ्रात है, रात कैसी सब दिशाओं में प्रभास्वर प्रात है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 MINS MY 83 त Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध करना अनुज से यह, धर्म-संकट स्पष्ट है, अनुज आज्ञा को न माने, क्या नहीं यह कष्ट है पाश दोनों ओर, इससे मुक्त होना श्रेय है, हित बड़ा है इस जगत में, प्रेय आखिर प्रेय है। सर्ग 14, पृ. 225-227 सुवेग नाम्ना दूत मति-सम्मति प्राप्त कर बाहुबलि के राज्य बहली देश पहुंचा | पूर्णिमा की अमल ज्योत्स्ना से जैसे आप्लावित सारा प्रान्त सुख-समृद्धि से पूर्ण था। सबके मुँह पर बाहबली की यशोगाथा थी। प्रहरी ने दूत को बाहबली के समक्ष प्रस्तुत किया। मातृभूमि से आगत दूत को देखकर बाहुबली के स्मृति पटल पर बचपन उभर आया । अग्रज भरत के साथ की एक-एक बाल-क्रीड़ायें याद आईं। मन में शत-बंधुओं का सुखद वृत्त-चित्र उभरा। पिता की गोद में बिताये क्षणों को स्मरण कर उनका मन हर्ष विभोर हो गया। अतीत के मोहपाश से मुक्त हो बाहबली वर्तमान में लौटे। अयोध्या, भरत एवं प्रजाजनों की कुशल-क्षेम पूछी। निपुण दूत ने यथाअवसर अपने आगमन के उद्देश्य को स्वर दिये भरत ने की विजय यात्रा, देव ! सबको ज्ञात है, विजय-उत्सव बंधुजन को, हो रहा अज्ञात है। ज्ञात होता तो भरत से दूर सब रहते नहीं, क्या विनीता पहुँच कर, दो शब्द मधु कहते नहीं? अनुज का कर्तव्य अग्रज, के प्रति प्रणिपात है, हंत ! अविनय की प्रतिष्ठा में पुरोधा भ्रात है। नीति से प्रतिबद्ध होता नृपति, न च परिवार से, मुकुट में है पुष्प कोमल, कर निभृत असिधार से । नीतिमय संदेश नृप का, देव ! अतिशय स्पष्ट है, मानता हूँ स्पष्ट की श्रुति, अनकहा-सा कष्ट है। मुकुट-मणिवत शीश पर, श्री भरत की आज्ञा रहे, सार है वक्तव्य वह जो, स्वल्प में सब कुछ कहे। नृपति की तेजस्विता का, आवरण परिवार है, सुत स्वजन का मोह, मधु से लिप्त असि की धार है। चक्रवर्ती चक्रवर्ती, भूप आखिर भूप है, सिंधु का विस्तार अपना, कूप आखिर कूप है। 84 INITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धैर्य है सम्राट का जो, सह रहा है आपको, सह न सकता शक्ति-विकलित, नर हुताशन ताप को । देव ! प्रार्थी हूँ क्षमा का, कर्णकटु यदि कह गया, विनय की अनुशासना में, पृष्ठगामी रह गया । बाहुबली ने उत्तर दिया— दूत ! वाक्पटुता तुम्हारी, दे रही आहह्लाद है, ज्येष्ठ भ्राता के अहं का, अलग ही आस्वाद है। ज्येष्ठ में यदि ज्येष्ठता हो, विनय बहुत प्रशस्य है, ज्येष्ठ गुरु-गुणविहीन हो तो, विनय में वैरस्य है। तात से हमने पढ़ा है, पाठ निज अस्तित्व का, और स्मृति पर उभरता है, पाठ वह कर्तृत्व का । सर्ग 14, पृ. 237-240 बढ़ रहे हैं चरण पथ पर, दूत ! वे कैसे रुकें? नय - परिष्कृत सिर अनय के सामने कैसे झुके ? सर्ग 14, पृ. 240-241 दूत सुवेग ने अयोध्या लौट कर सम्राट भरत के समक्ष बहली के मानस को रखाहै जागरूक जन, श्रम में गहरी निष्ठा, स्वातंत्र्य प्रेम की प्रतिमा प्राप्त प्रतिष्ठा । स्वाधीन चेतना का पलड़ा है भारी, परतंत्र शब्द से चिढ़ता हर नर-नारी ॥ जैसा शासक जनता भी वैसी होती, दीपक से दीपक की प्रगटी है ज्योति । मोती में पानी स्वामी ! दीख रहा है, हर शिक्षु गौरव की गाथा सीख रहा है । संकेत साफ है अनुज नहीं आएगा, अभिमान व्यूह को भेद नहीं पाएगा । दोनों के सम्मुख एक विकल्प बचा है, इस अहंकार ने समर निवेश रचा है । संशय से दोनों ग्रस्त हुए हैं भाई, प्रायः होती है संशय-जन्य लड़ाई। श्रद्धा ने हिम के कण-कण को जोड़ा है, संशय ने मन कण-कण को तोड़ा है । सर्ग 15, पृ. 245 भरत को एक क्षण के लिये अपनी भूल का भान हुआ - मैं अगर वात्सल्य सलिल की धारा बहा देता तो विनय - बेल का स्वयं ही अभिसिंचन हो जाता। सौहार्द भाव से बँधा बन्धु दौड़ा-दौड़ा चला आता । मगर अब ? ऋषभ ज्ञान - रश्मियों ने तिमिरावृत्त जन को पथ - आलोक दिया है। क्या उसी का यशस्वी वंश आज युद्ध के तमस को निमन्त्रण देगा? और फिर तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 - 85 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबली का शौर्य ? उसके अपराजेय बल की बात भी अब कैसे किसी को बतलाऊँ? द्विविधा के द्वन्द्व ने भरत की चेतना को अवाक् कर दिया। मौन की भाषा ने युद्ध में अपना अर्थ • तलाशा। रणभेरी बजी। दोनों सेनायें आमने-सामने आ खड़ी हुईं। एक का अपनी चक्रशक्ति में विश्वास, दूसरे का अपने बाहु-बल में । अतिशय आवेश के साथ भरत की सेना ने बाहुबली की सेना पर आक्रमण किया। बाहुबली - तनय सिंहरथ ने आगे बढ़कर अपनी सेना के पलायन को रोका। उनके सिंहनाद से भरत की सेना भयभीत हुई तो सेनाधीश सुषेण सामने आये मगर विद्याधर अनिलवेग ने अपने विद्याबल से भरत की सेना को अवश कर दिया। दोनों योद्धाओं के बीच फिर वाणी के महासमर से उभय पक्षों में नये आवेश का संचार हुआ अनिलवेग बोला, सेनापति ! भरत- - सैन्य में तुम हो वीर, किन्तु नहीं देखा तुमने है सागर का परवर्ती तीर। दुर्बल जन को किया पराजित, यही विजय क्या सेनानाथ ! किया नहीं उपयोग शक्ति का, चले शून्य में दोनों हाथ ॥ 86 सर्ग 16, पृ. 256-257 सुषेण ने उत्तर दिया मौन करो अब अनिलवेग ! तुम, बहुत अनर्गल किया प्रलाप छलना की वेतरणी में रे ! कैसे धुल पाएगा पाप ? तुम क्या जानो चक्री का बल, और चक्र की शक्ति असीम । पारिजात का तुम्हें पता क्या, बहलि-धरा पर केवल नीम ॥ दोनों पक्षों में फिर प्रखर संघर्ष आरम्भ हुआ। हार और जीत का अनिमेष अभिनय चलता रहा। अनिलवेग और सिंहकर्ण ने अपने विद्याबल से प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया । अपनी सेना को पलायन उन्मुख देख भरत कोपानल से सुलगने लगे। उन्होंने अपने दिव्य शक्तिमय चक्र से अनिलवेग को मार डाला। इस दृश्य को देख विद्याधर रत्नारि क्रोधित होकर पवनवेग से अपनी विद्या-साधित गदा से चक्रीसेना को मथने लगे। हत्या करने वाला अपराधी माना जाता है, मगर युद्धभूमि में शत्-शत् -घाती वीरों का छत्र बन जाता है। व का विधान अज्ञेय है मगर आदमी का विधान भी तो ज्ञेय नहीं । दूसरे दिन भरतपुत्र सूर्ययशा और शार्दूल ने अपनी सेना की अग्रपंक्ति के ध्वंस में लगे विद्याधर-द्वय सुगति और मितकेतु को ललकारा। घात और प्रतिघात के बीच अनेक उतारचढ़ाव आए। अन्ततः शार्दूल के हाथों सुगति और सूर्ययशा के हाथों मितकेतु धराशायी हुए । नियति के अनगिनत दाँव हैं। कालचक्र के गिरि-गह्वर में छिपे भेदों को कहाँ कोई जान पाता तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 सर्ग 16, पृ. 257 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? इतिहास के इस पृष्ठ ने ऋषभ-वंश के पहले पौत्र सूर्ययशा को अपने चाचा बाहुबली के समक्ष ला खड़ा किया। रणभूमि में वात्सल्य और पितृत्व के इस मिलन ने युद्ध को नया मोड़ दिया। सूर्ययशा ने कहा चाचाजी ! ये सैनिक सारे, बेचारे करुणा के पात्र, हम सब रहते सदा सुरक्षित और अरक्षित इनका गात्र । विनयकांक्षी पूज्य पिताश्री ! अहं अश्व आरोही आप, अन्य सभी निर्दोष अहेतुक, सहते हैं इस रण का ताप । सर्ग 16, पृ. 266-67 सूर्ययशा की युक्ति भरत और बाहुबली दोनों के गले उतरी । युद्ध दोनों भ्राताओं तक सीमित हुआ । उभय पक्ष की सेनाओं ने दर्शक बनकर अपने-अपने राजाओं की विजय कामना की। मगर विजयश्री ने जो अब तक संशय- संकुल थी, अब संशय-मुक्त होकर बाहुबली को वरमाला पहना दी। दृष्टि-युद्ध से मल्ल - युद्ध तक अस्त्र-शस्त्र रहित पाँचों विकल्पों में भरत पराजित हुए। पराजय की लज्जा ने क्रोधाग्नि को ऊर्जा दी। अन्तःस्थल में जग प्रतिशोध की आग ने भरत की समग्र चेतना को आच्छन्न कर दिया । आवेशाकुल हो उन्होंने अनुज की ओर चक्र फेंका। देवों में भय व्यापा और धरती पर कोलाहल । मगर नियति के अगम-अगोचर छोर की कथा अकथ है। चक्र ने प्रणत भाव से बाहुबली की प्रदक्षिणा की और उनके दक्षिण हाथ में विराजित हो गया। अब क्या होगा ? भरत चिन्तित हुए । मगर बाहुबली प्रति-प्रहार किया तो चक्र ने उसी तरह विनय - -नत होकर भरत की प्रदक्षिणा की और उनके हाथों में पूर्ववत आरूढ़ हो गया । मर्यादा के अतिक्रमण से कुपित बाहुबली हाथ उठाए, मुष्ठि ताने भरत की ओर दौड़े। मगर उनके मन में बैठे देवों ने उनकी राह रोक ली। बाहुबली के अन्तर्चक्षु खुले हंत ! हंत ! आवेश, क्लेश के आवरणों का सरजनहार । बंधु-बंधु के बीच कलह का यही बीज है, यही प्रसार ॥ सर्ग 18, पृ. 288 उनका मानस बदला, चिन्तन बदला और संसार बदल गया। अब उनके तरकश में त्याग के तीर थे और दृष्टि में थी संन्यास की समरभूमि । मुनि बाहुबलि । सुस्थिर गात्र, मौन वाणी, आजानु - स्पर्शी भुज-युगल । अ-मन-मन और अ-तन तन । केवल ऋषभ के पार्श्व से आते संदेश कंपनों की अनुभूति । ध्यान मुद्रा में अवस्थित मुनि बाहुबली के समक्ष भरत प्रणत हुए । मूक लेकिन मनोभाव चेहरे पर अंकित थे— है किया अपराध मैंने, युद्ध भाई से लड़ा है, विजय का वरदान लेकर, यह हिमालय- सा खड़ा है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 AV 87 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे क्षमासिंधो ! क्षमा दो, अब क्षमा की ही शरण है, किस दिशा के छंद लय में, बढ़ रहा आगे चरण है। सर्ग 18, पृ. 291 बाहुबली के चरण प्रभु ऋषभ की सन्निधि में पहँचने को उद्यत हए । मन के एक कोने में नृप-पद जनित अहं का अंश अवशेष था-वहाँ अठावने पूर्व दीक्षित अनुजों को वंदन करना होगा। कैसे कर पाऊंगा? क्षेत्र दूर सही, मन में तो प्रभु हैं-सोचा और उनके चरण मुड़े । जंगल के एकान्तवास में बाहुबली अब निस्पन्द होकर ध्यान-मग्न हो गये। अचल-अडोल देह हरीतिमा से ढ़क गई। कंधों पर खग-कुल ने अपने नीड़ बना लिए । कर-पद वल्ली का आलम्बन हुए। भगवान ऋषभ ने ब्राह्मी और सुन्दरी से कहा-एक वर्ष से सघन साधना में लीन, सर्वज्ञ-पद का सहज अधिकारी तुम्हारा भाई बाहुबली अहंकार के तट पर अटका है। उसे जागृत करो, बोधि दो। भगिनि-युगल निर्दिष्ट जगह पर पहुँची मगर वहाँ उन्हें केवल वृक्ष दिखा। दूसरे ही क्षण उनकी दृष्टि लता-आच्छादित अपने भाई के आभामंडल पर पड़ी। आलोक रश्मियों का अनुपम वलय जैसे विद्युल्लेखा ! यही तो है ऋषभ-तनुज ! ऐसा तेजपुंज और किसे सुलभ है? परिपार्श्व में आकर भगिनी-द्वय ने अपने भाई को संबोधित कियाचैतन्य अनश्वर है, अहंकार नश्वर । तुम अहंकार के हाथी पर आरूढ़ हो। उतरो वहाँ से । बाहुबली के कानों में साध्वी-बहिनों के स्वरों की अनुगूंज होती रही बंधो! उतरो, गज से उतरो, उतरो अब, भूमि की मिट्टी का अनुभव होगा तब । गज-आरोही प्रभु-सम्मुख पहुँच न पाता, आदीश्वर ईश्वर समतल का उद्गाता ।। इस अहंभाव ने भाई ! पथ रोका है, इस भवसागर में मार्दव ही नौका है। क्या शिला शिला को पार लगा पाएगी? चट्टान नहीं अंकुर उगा पाएगी । सर्ग 18, पृ. 294 मुनि बाहुबली की अन्तःचेतना कम्पित हुईमैं जंगम हँ फिर कैसे अचल बना हूँ, मैं आत्मा हूँ फिर कैसे स्तंभ बना हूँ? मैंने अन्तर में रची स्तंभ की माया, फिर बाह्य जगत में स्तंभ बनी यह काया ।। मैं उस दुनिया का जिसमें स्तंभ नहीं है, मैं उस दुनिया का जिसमें दंभ नहीं है। आत्मा का दर्शन पहले ही हो जाता, अभिमान नहीं यह पथ में आड़े आता ।। सर्ग 18, पृ. 295 अचानक जैसे मलयज का एक झोंका आया और बाहबली के अन्तस्तल में दिव्य सुरभि फैल गई। अहं-मुक्ति के साथ अन्तिम अवरोध विलीन हुआ। निर्मल, निर्मलतर, 88 AII TIMI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मलतम परिणामों की धारा बही। प्रभु-दर्शन हेतु जैसे ही चरण उटे, सब दर्शन एक साथ पथ मे चले आए। बाहुबली ने शाश्वत पद को प्राप्त कर लिया। युग बीते । संवत्सर बीते। काल कभी विश्राम नहीं लेता। क्या अपने स्वार्थ हेतु? नहीं। हर क्षण के साथ एक नया क्षण उगता है, इस आशा में कि जो बीते क्षण को नहीं थाम सके, वे इस क्षण को थामें, पहचानें । भरत के जीवन में ऐसा ही सार्थक क्षण उगा। स्नान करते समय अनामिका में पहनी मुद्रिका (अँगूठी) गिर पड़ी। अनामिका का सौन्दर्य तत्क्षण विलीन हो गया । स्नानागार ने भरत के समक्ष चिन्तन का एक विराट पट खोल दिया। उन्होंने अंगूठी फिर पहनी, अँगली की श्री लौट आई। फिर निकाली तो अँगुली जैसे पुनः मुरझा गई। सत्य की गाथा संकेतों की भाषा में मुखर होती है। जो नेत्र-गम्य नहीं, बोधि ने उसे देख लिया पुनः निकाली, पुनरपि पहनी, हुआ सत्य का साक्षात्कार, पर-पुद्गल से तन की शोभा, तन भी पुद्गल का आकार । आत्मा हूँ मैं, आत्मा में ही होगा मेरा अविचल धाम, आत्मा की अनुभूति अनुत्तर, सुन्दर सुन्दरतम अभिराम । मूल्य बिम्ब का नैसर्गिक है, क्या है मूल्यहीन प्रतिबिम्ब? सबकी अपनी-अपनी महिमा, कटुक, किन्तु हितकर है निम्ब । देख रहा है दर्पण को नृप, दिखा सहज अपना प्रतिबिम्ब, प्रेक्षा करते-करते उज्ज्वल, प्रगटा परम पुरुष का बिम्ब । आत्मा का साक्षात् हुआ है, उदित हुआ है केवलज्ञान, सहज साधना सिद्ध हुई, अनासक्ति का यह अवदान । छूट गया साम्राज्य सकल अब, नहीं रहा जन का सम्राट् ! टूट गए सीमा के बंधन, प्रगट हुआ है रूप विराट। सर्ग 18, पृ. 300-301 भरत ने केवलज्ञान प्राप्त किया और प्रभुवर ऋषभ की सन्निधि में पहुंचे। क्षण अस्त होते रहे, उगते रहे। एक क्षण आया। नया नभोमणि, नया प्रभात । प्रभु ऋषभ देह से विदेह की ओर प्रस्थित हुए। अष्टापद की पावन भूमि, छह दिन का अनशन, पर्यंकासन की मुद्रा-ऋषभ सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। नित्य नहीं कोई भी देही, है सारा संयोग अनित्य, स्वामी का निर्वाण हुआ है, कौन बनेगा अब आदित्य? * * * तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANI IW 89 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभायण भारतीय संस्कृति के आदि सर्ग की दिव्य परिक्रमा है। ऋषभ-वृत्त प्रागैतिहासिक काल के ऐतिहासिक काल में रूपान्तरण का इतिहास है। ऋषभ अकर्मयुग से कर्मयुग में प्रवेश की संधि-बेला के संवाहक बने । साथ ही उन्होंने आत्म-दर्शन के द्वार खोले। इतिहास में ऐसा घटना-बहुल जीवनवृत्त विरल है। मगर उनका जीवन-चरित्र ऋषभायण का पार्श्वभाग है। उसके केन्द्र में ऋषभ की चेतना है। यह महाकाव्य अन्तरंगतः ऋषभ की ऊर्जा के अलौकिक स्पंदनों का अनुवाद है। _इतिहास में दर्शन होता है, दर्शन कभी इतिहास नहीं होता, अतीत नहीं होता | दर्शन चिरंतन है और इस पद्यकृति में उस चिरंतन दर्शन का निदर्शन है। इस ग्रन्थ को पढ़ते समय मेरी मनःस्थिति खिलौनों की दुकान में खड़े बालक की-सी रही। बाँहों में जितने समा सके उतने खिलौने ले लिए। माँ अब हाथ थामे लौट चलने का आग्रह कर रही है। पैर घर की ओर उठ रहे हैं, पर आँखें पीछे की ओर देखती दुकान में सजे खिलौनों पर टिकी हैं। ऋषभायण का जो कुछ इन पंक्तियों में आया है केवल वही उसका नवनीत नहीं। नवनीत उसका हर पृष्ठ है, हर पद्य है। जिन पृष्ठों को मैं इन पंक्तियों में नहीं सजा सका उस सीमा तक मैंने आपको साहित्य के उस लालित्य से वंचित रखा है जिसे हर लेखनी कागज पर नहीं उगा सकती। उन दिव्य संदेशों से भी वंचित रखा है जो क्षितिज के उस पार से आते हैं और उस दर्शन से भी वंचित रखा है जिसे सुरक्षित रखने के कारण अतीत शाश्वत है। पद्य का गद्य में अविकल रूपान्तरण संभव नहीं। कहना मुझे यह चाहिए कि पद्य का गद्य में रेखानुवाद अवरोहण की क्रिया है। मगर अवरोहण में भी आरोहण का कोई-कोई क्षण होता है। ऋषभायण की इस अनुकृति में अगर आपको वह क्षण दिख पाया तो यह क्षण मेरे लिए आरोहण का क्षण होगा। पुस्तक - ऋषभायण लेखक - आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन - आदर्श साहित्य संघ 15 नूरमल लोहिया लेन कलकत्ता-700007 90 IIIIIIII I NDI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराशर स्मृति में अहिंसा स्मृति साहित्य में मनुस्मृति वैदिक धर्म या ब्राह्मण परम्परा का पथ प्रदर्शक और प्रतिनिधि ग्रंथ है। जिसमें वर्णधर्म तथा आश्रमधर्म पर विशिष्ट सामग्री के साथ ही खाद्यअखाद्य, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। पराशर स्मृति में कलियुग में चारों वर्णों के साधारण धर्म तथा धर्मज्ञानियों द्वारा जो करणीय है, उस सूक्ष्म और स्थूल धर्म का विस्तार से उल्लेख है । - डॉ. बच्छराज दूगड़ अहिंसा प्रकृति की वादियों में ही अठखेलियां करती है। पराशर स्मृति में पराशर ऋषि के आश्रम का वर्णन करते हुए कहा गया है नानावृक्षसमाकीर्ण फलपुष्पोपशोभितम् । नदीप्रस्रवणोपेतं पुण्यतीर्थेरलङ्कृतम् ॥ 6 ॥ मृगपक्षिनिनादञ्च देवतायतनावृतम् । यक्षगन्धर्वसिद्धैश्च नृत्यगीतैरलङ्कृतम् ॥ 7 ॥ वृक्षों और लताओं से भरे हुए, फलों और पुष्पों से अलंकृत, नदियों और झरनों से युक्त, पवित्र तीर्थों से सुशोभित पशु-पक्षियों की आवाजों से समृद्ध, देवताओं के निवासों से घिरे हुए यक्षों, गन्धर्वों और सिद्धों के द्वारा नृत्य और गीतों से मंडित बदरिकाश्रम था अर्थात् उनका आश्रम प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का ऐसा सजीव स्थल था जहां अहिंसा पल्लवित और पुष्पित होती थी । चूल्हा, महर्षि पराशर ने गार्हस्थ्य में हिंसा के पांच स्थल कहे हैं- ओखली, चक्की, घड़ा और झाडू। यहां यह विचारणीय है कि ऋषि ने जैनों के समान अग्नि और जल जीव माना है या नहीं ? जहां तक जल के जीव होने का प्रश्न है, जल के घड़े को वध स्थल मानने से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि जल को जीव के रूप में स्वीकृति दी गई है। अग्नि के तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 । 91 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव होने पर शंका है कि चूल्हे में जो भी डाला जाए वह भस्म हो जाता है, इस दृष्टि से चूल्हे को वधस्थल कहा गया है या यहां अग्नि निरन्तर प्रज्ज्वलित होते रहने के कारण वधस्थल कहा गया है। यदि प्रथम दृष्टि है तो वहां अग्नि के जीव होने पर शंका है जबकि दूसरी दृष्टि होने पर अग्नि को जीव मानकर उसकी निरन्तर हिंसा होने के कारण वह वधस्थल है। नित्यकर्म या जीविकोपार्जन हेतु जीवों को पकड़ना या उनकी हत्या को हिंसा के अन्तर्गत समाहित करना हिंसा की सूक्ष्मदृष्टि है। इसे लौकिक हिंसा मानकर अहिंसा के रूप में इसकी स्वीकृति ऋषि पराशर ने नहीं दी है। स्मृति में यह स्पष्टतः कहा गया है-जाल बिछाकर जीवों को पकड़ने वाला मछेरा, बहेलिया, चिड़ीमार और कुछ न देने वाला किसान, ये पांचों समान पाप के भागी हैं। वृक्षों को काटने वाला, भूमि का भेदन कर और पशुओं एवं कीड़ों को मारकर किसान द्वारा भूमि का जोते जाना हिंसा के अन्तर्गत समाहित है। वृक्षों की कटाई और पशुओं और कीड़ों की भूमि जोते जाने के दौरान हिंसा तो स्पष्टतः हिंसा है ही किन्तु विचारणीय यह है कि ऋषि ने भूमि के भेदन को भी हिंसा क्यों माना है? निश्चय ही सर्वज्ञानी ऋषि मिट्टी को भी जीव मानते हैं जो जैनों के समकक्ष है। प्रो. सी.एल. वकील ने अपनी पुस्तक इकोनॉमिक्स ऑफकाउ प्रोटेक्शन में कहा है--- हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिट्टी, वनस्पति, पशु और मानव का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार मानव में जीवन है, पशु और वृक्ष आदि सजीव है, उसी प्रकार मिट्टी भी सजीव हैं। कोट्याकोटी अतिसूक्ष्म आर्गनिज्म मिट्टी में सदा क्रियारत रहते हैं। ऋषि ने कई कर्मों एवं व्यवसायों को निषिद्ध माना है। इसका आधार भी यह है कि इन कर्मों को करने से अथवा ऐसे व्यवसाय करने से हिंसा अधिक होती है जैसे तिल और रस को विक्रय योग्य नहीं माना है। लवण, मधु, तेल, दही और घृत आदि के विक्रय का सीमित प्रावधान रखा गया है। सम्भवतः इसका आधार यह रहा है कि तेल एवं अन्य रस प्राप्त करने में अधिक हिंसा के साथ अधिक क्रूरता का भाव भी निहित होता है। मद्य और मांस के विक्रय को भी प्रतिबन्धित किया गया है। क्योंकि ये दोनों ही हिंसा के जनक हैं। किसी भी कर्म अथवा व्यवसाय द्वारा प्रकृति, पशु अथवा वनस्पति के सम्पूर्ण दोहन को निषिद्ध करते हए कहा गया है बाग में माली की तरह एक-एक पुष्प को चुनें, कोयला बनाने वाले की तरह उसका मूलोच्छेद न करें। ऋषि ने अति भारारोपण अथवा अति उपयोग द्वारा पशुओं के शोषण को हिंसाजन्य कहकर उसे निषिद्ध किया है। उन्होंने अशक्य, निर्बल पशुओं के उपयोग को भी निषिद्ध किया है। स्मृति में कहा गया है कि भूखे, प्यासे और थके हुए बैल को न जोतें। विकलांग, रोगी और नपुसंक बैल से न हल चलाए, न गाड़ी में जोतें।' उन्होंने पुष्ट, स्वस्थ एवं दृढ़ अंगों वाले बैल को भी आधे दिन तक ही चलाने का निर्देश किया है। दो बैलों वाले हल को दिन के चौथाई भाग, चार बैलों वाले हल को दोपहर तक, छः बैलों वाले हल को तीन प्रहर तक एवं 92 AMITING INITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ बैलों वाले हल को सारा दिन चलाए जाने का निर्देश इस बात का द्योतक है कि पशुओं का शोषण पापकृत्य है। ऋषि ने दुर्बल एवं अशक्य बच्चों और बूढ़ों पर अनुग्रह रखने का स्पष्ट निर्देश दिया है। यद्यपि मोह अथवा लोभ के कारण, भय के कारण बिना सोचे-समझे अनुग्रह करने पर पाप का भागी कहा गया है। गाय को पशुओं का प्रतिनिधि मानते हुए यह कहा गया है-गर्मी, वर्षा, सर्दी अथवा तूफान में अपनी सामर्थ्य के अनुसार जब तक गाय का बचाव न कर दिया जाये, स्वयं का बचाव न करें। बछड़े द्वारा गाय का दूध पीते हुए किसी को न बताएं। गाय के जल पी लेने पर स्वयं जल पीएं तथा उनके विश्राम कर लेने पर स्वयं विश्राम करें। गाय की रक्षार्थ जो अपने प्राणों का त्याग करता है, जघन्यतम पापों से मुक्त हो जाता है। यद्यपि यहां गौ-रक्षार्थ उपयुक्त बातें कही गई हैं किन्तु आधुनिक काल में विचार करने पर यह कहना तर्कसंगत होगा कि पशुरक्षा हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए आवश्यक है। हमें अपने प्राणों की कीमत पर भी पशुओं की रक्षा करनी चाहिए | गाय की हत्या के साथसाथ उसको किसी भी तरह से प्रताड़ित करना, उसे अन्न-पानी न देना निकृष्ट पाप माना गया है। उचित मात्रा से अधिक गाय का दोहन, उचित मात्रा से अधिक बैल का हल और गाड़ी चलाने में उपयोग, उसके नासिका भेदन अथवा उसके स्वभाव के विपरीत नदी और पर्वतों में उपयोग को निषिद्ध किया गया है। रोधन, बन्धन, भार तथा प्रहार, दुर्गम स्थानों में हांकना और जोतना पशुओं के वध के छह निमित्त स्मृतिकार ने बताए हैं। ऐसे किसी कृत्य से पशु की मृत्यु को निकृष्ट माना गया है। पशु-वध के निमित्त पशु धन को बेचने वाला भी पाप को प्राप्त होता है। यहां यह द्रष्टव्य है कि चिकित्सा के लिए उन पर की जा रही शल्य क्रिया के दौरान अथवा मरे हुए गर्भ को निकालने के लिए गाय जकड़ने के दौरान अथवा सम्यक उपचार के दौरान पशु की मृत्यु पापकृत्य नहीं है। आध्यात्मिक पुरुष हिंसा से सर्वथा उपरत रहने का प्रयास करते हैं। ब्राह्मण जो कि अध्यात्म विद्या के संवाहक थे, इसलिए ऋषि ने उनके लिए कृषि आदि के द्वारा आरम्भसमारम्भ का निषेध किया। अहिंसा के लिए संविभाग को आवश्यक माना गया है। ऋषि ने उत्पादन के पश्चात उसके संविभाग की व्यवस्था कर आर्थिक समानता पर बल दिया है क्योंकि आर्थिक विषमता हिंसा की जनक है। अहिंसा की प्रतिष्ठा श्रम की भूमि पर ही हो सकती है। ऋषि ने स्वयं के श्रम से उत्पन्न हुए अनाज के द्वारा ही महायज्ञों का विधान कर श्रम की प्रतिष्ठा की है।" प्राणी हत्या के प्रायश्चित्त का वर्णन, जिसे मनुस्मृति में छोड़ दिया गया है, पाराशर स्मृति में किया गया है। यहां उपयोगिता और अपवाद के आधार पर पशु हत्या के पश्चात् प्रायश्चित्त का वर्णन है। अनजाने में हुई हत्या और जानबूझकर की गयी हत्या में अन्तर करते हुए उनके प्रायश्चित्त में भी अन्तर किया गया है। मनुष्य आदि की हत्या को भी प्रतिबन्धित करते हए उनके प्रायश्चित्त का विधान पाराशर स्मृति में किया गया है। यहां प्रायश्चित्त व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था स्पष्टतः हावी रही है। आत्म हत्या को भी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITAMINS 93 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसाजन्य गलत प्रवृत्ति ठहराते हुए यह कहा गया है कि जो व्यक्ति मान के कारण, अधिक क्रोध के कारण, स्नेह अथवा भय के कारण स्वयं को फांसी पर चढ़ाता है वह घोर अन्धकार में रहता हुआ साठ हजार वर्षों तक नारकीय पीड़ा भोगता है।19 ___ आत्म रक्षा के निमित्त हिंसा स्वीकार्य है अथवा नहीं? इस प्रश्न पर भी पराशर स्मृति में विचार किया गया है। स्मृति में यह कहा गया है कि देश के टूटने पर, विदेश में होने पर, रोगों एवं विपत्तियों में अपने शरीर की रक्षा प्राथमिक कर्तव्य है। आपातकाल आने पर शौच और आचार की चिन्ता न करके पहले स्वयं का उद्धार आवश्यक है। उसके पश्चात् धर्माचरण करने का निर्देश स्मृतिकार ने किया है।20 देश रक्षार्थ युद्ध में वीरगति प्राप्त करना योग से युक्त संन्यासी की मृत्यु के समान माना गया है। यहां यह स्पष्ट है कि योद्धा का धर्म युद्ध के समय स्वरक्षा के साथ अपने दुश्मनों पर विजय प्राप्त करना है। अतएव लोकधर्म की दृष्टि से इसे उपयुक्त माना गया है, क्योंकि इससे निवृत्ति के पश्चात् धर्माचरण आवश्यक है। अनजाने में हुई हिंसा के लिए पाप का निश्चय न हो जाने तक भोजन न करने का निर्देश ऋषि ने दिया है। 2 हिंसा हुयी है अथवा नहीं हुई है- ऐसी संशय की स्थिति में भी जब तक संशय की निवृत्ति न हो, तब तक बिना प्रमाद किए भोजन न करने तथा कृत्य को छुपाने का प्रयत्न न करने का निर्देश ऋषि ने किया है।23 पति-पत्नी, भाई-बान्धव आदि पारिवारिक सम्बन्धों में पारिवारिक हिंसा न हो, इस हेतु ऋषि ने कुछ व्यवस्थाएं सुझायी हैं। पति द्वारा पत्नी का त्याग, पत्नी द्वारा रोगी, दरिद्र और मूर्ख पति का अपमान, बड़े भाई के होते छोटे भाई का विवाह आदि को दुष्कर्म माने गए24 जबकि पति के गुम हो जाने पर, मर जाने पर, संन्यास लेने पर, नपुंसक होने पर और पतित होने पर आदि स्थितियों में दूसरे पति का विधान स्मृतिकार ने किया है। इसी तरह कुबड़े, मूर्ख, विकलांग, नपुंसक बड़े भाई के रहते छोटे भाई के विवाह को भी दोषमुक्त माना गया है। पति के मरने पर बिना पुनर्विवाह किए ब्रह्मचर्य का पालन तथा पति के जीवनकाल में उसका अनुगमन उत्तम माना गया है। भ्रूण हत्या को निकृष्टतम मानते हुए इसे ब्रह्महत्या से भी अधिक जघन्य स्वीकृत करते हुए इसके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त को स्मृतिकार ने स्वीकार नहीं किया है।27 वर्तमान मानव अधिकार कानून में युद्ध, विप्लव अथवा अन्य संकटों के समय स्त्री, बच्चे और वृद्धों पर आक्रमण न करना तथा उनका बचाव मानव अधिकारों के अन्तर्गत माना गया है। पराशर स्मृति में ऋषि ने विप्लव में, युद्ध के समय में, अकाल में, जनसंहार के समय, बन्दी बनाए जाने के समय अथवा आतंककाल में स्त्री की रक्षा और उसकी देखभाल को कर्त्तव्य माना है। 94 IIIIIIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लहसुन, रवीस, बैंगन, गांजा, प्याज, वृक्ष का गौंद आदि को ब्राह्मण के सेवन योग्य नहीं माना गया है । सम्भवतः इनका निषेध इसलिए किया गया है, क्योंकि इनके सेवन से बहुजीवी हिंसा होने का आधार सम्भवतः रहा हो। इस प्रकार पराशर स्मृति में अहिंसा का व्यावहारिक किन्तु सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध है। संदर्भ 1. 2. वही 2/12 3. वही 2/15 पाराशरस्मृति 2/13 4. वही 2/7 5. वही 1/64 6. वही 1/60 7. वही 2/3 8. वही 2/4 9. वही 2/9 10. वही 6 / 55-56 11. वही 8/40-43 12. वही8/26-28 13. वही 8/29-30 14. वही 8 / 43 44 तुलसी प्रज्ञा जनवरी -जून, 2001 | 15. वही 2/11 16. वही 2/17 17. वही 2/5 18. वही 8 / 1 19. वही 4/1-2 20. वही 7/42-44 21. वही 3/38 22. वही 8/4 23. वही 8 /5-6 वही 4 / 15, 16, 30 आदि 24. 25. वही 4 / 31, 28 आदि 26. वही 4/32-33 27. वही 4/19, 20 अध्यक्ष, अहिंसा एवं शान्ति अध्ययन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं 95 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरणीय चिन्तन आचार्य महाप्रज्ञ के साहित्य में -प्रो. नलिन शास्त्री आचार्य महाप्रज्ञ वर्तमान युग के एक ऐसे क्रान्तिकारी विचारक, जीवन-सर्जक और आचारनिष्ठ संत हैं जिनके जनकल्याणी विचार जीवन की आत्यान्तिक गहराइयों, अनुभूतियों तथा साधना की अनन्त ऊँचाइयों एवं आगम प्रामाण्य से उद्भूत हो मानवीय चिन्तन के सहज परिष्कार में सतत् सन्नद्ध हैं। उनके उपदेश हमेशा जीवन-समस्याओं/सन्दर्भो की गुत्थियों के मर्म का संस्पर्श करते हैं, जीवन को उसकी समग्रता में जानने और समझने की कला से परिचित कराते हैं। आपका चिन्तन-फलक देश, काल, सम्प्रदाय, जाति, धर्म-सबसे अलग हंटकर प्राणी-मात्र को समाहित करता है। एक युगबोध देता है, नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है, वैश्विक मानव की अवधारणा को ठोस आधार देता है जहां दूर-दूर तक कहीं भी दुरूहता नहीं है, जो है, वह है, भाव-प्रवणता, सम्प्रेषणीयता और रत्नत्रयों के उत्कर्ष से विकसित हुआ उनका प्रखर तेजोमय व्यक्तित्व, जो बन गया है करुणा, समता और अनेकान्त की त्रिवेणी को अन्तर्लीन करता वह क्षीर-सागर जिसमें अवगाहन करने की कोमल अनुभूतियाँ हैं शब्दातीत। आचार्यश्री महाप्रज्ञ की सर्जना यात्रा नव चिन्तन के बोध को सर्वदा अभिहित तो कराती ही है, ज्ञान, आनन्द तथा शक्ति के त्रिकोण का आध्यात्मिक साक्षात्कार भी कराती है और वह भी पूरी सहजता के साथ। यही कारण है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति आचार्यश्री का चिन्तन समसामयिक चिन्तन धारा से अलग है और मनुष्य तथा पर्यावरण के बीच गहरी आत्मीयता की पहचान कराता है। वे मानते है कि पर्यावरण का संकट धरती के दोहन की मानवीय संकीर्ण दृष्टि ने उद्भूत किया है और इससे उबरने के लिये नीति/आचार के तानेबाने में रची-बसी चेतना को विकसित करना अपरिहार्य होगा, क्योंकि यही चेतना जीवन-शैली और तकनीकी ज्ञान प्रभावित करती हैं। 96 AIII IIIIIIIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ से करें अथ एक उलझे छोर की तलाश एक मुश्किल काम है। बहुत सी समस्याएं परस्पर गुम्फित हो गयी हैं। दो विपरीत ध्रुव हैं-एक है प्रकृति के संग मैत्री, प्रेम, करुणा और साहचर्य की उदात्त भावना का और दूसरा है उसके पूर्ण दोहन का-उसे मनुष्य का अनुचर मानने का, उससे टकराव का | कैसे संरक्षित होगा वह पर्यावरण जो समस्त जीवों के विकास एवं जीवन-क्रियाओं के लिये आवश्यक सारी स्थितियों एवं प्रभाव के निर्माण से बनता है, जबकि हम पिछले डेढ़-दो-सौ सालों से चली आ रही प्रकृति के अधिकाधिक दोहन और उससे निरन्तर टकराव की पाश्चात्य अवधारणा को विकास की अहम शर्त मानते है। सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् लिण्टन के. काल्डवेल' ने बड़ी प्रासंगिक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि पर्यावरण संरक्षण का संकट मानस और नीति-बोध के संकट काल की बहिर्गत प्रव्यक्ति है। इसके अर्थबोध की अवधारणा में अब कोई ऐसी गलतफहमी नहीं होनी चाहिये जिससे मात्र यह समझा जाय कि यह विलुप्त हो रही वन्य-प्रजातियों, मानव-निर्मित कुरूपताओं और प्रदूषण से जुड़ा एक मसला है। ये इसके अहम हिस्से अवश्य है पर मुख्य रूप से यह संकट हम सब जीवों से जुड़ा है और इस परिज्ञान से ज्यादा जुड़ा है कि जदोजेहद में हमारे कार्यकलापों की सीमारेखा नीतिबोध की सीमाओं में रहनी आवश्यक है। इसी भावना की सम्पुष्टि करते हुए विख्यात पादरी श्रद्धेय जे.सी. जैक्सन ने बड़ी मार्मिक अपील की है- "वह समय अब आ गया है, जब हमें यह समझना अनिवार्य हो गया है कि पर्यावरण का संरक्षण सबसे अनिवार्य/अपरिहार्य और सस्ती विद्या है तथा ऊर्जा का न्यूनतम प्रदूषित रूप है। हमें नजदीक आना होगा और नयी दिशाएं तलाशनी होंगी। हमें अपने समाज को बदलना होगा—एक ऐसा समाज जहां सारे लोग प्रकृति के साथ ऐक्य की भावना से रहें, पारस्परिक ऐक्य के साथ सारी मानव-जातियां रहें, सारे देशों में ऐक्य की भावना रहे...। हमें हर कीमत पर अपनी उपभोक्तावादिता को घटाना होगा, पुनउपयोग, पुनर्चक्रीकरण और संरक्षण की जुगत को मजबूत करना होगा अन्यथा हमारा विनाश सुनिश्चित है।" इन दोनों ही टिप्पणियों से यह तथ्य उभर कर आता है कि संरक्षण का पूरा विधान मानसिकता के नीतिबोध से जुड़ा हआ मसला है, जो जीवन-शैली में पौर्वात्यआध्यात्मिकतावादी एवं सह-अस्तित्व के मूल्यों को बिना जोड़े पूरा नहीं हो सकता। आकलन करना होगा हमें संरक्षण की बहुआयामी समस्या के साथ अहिंसा, दया, करुणा और सहअस्तित्व के ताने-बाने रचे मानवीय मूल्यों के सिद्धान्तों का, तभी तो उभर कर आयेगी एक साफ, प्रेरक तस्वीर जिसमें दर्ज होंगे संरक्षण के समग्र सूत्र। पुढो सत्ता : एक मौलिक चिन्तन ____ आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने एक मौलिक चिन्तन प्रतिपादित किया--पुढो सत्ता प्रत्येक प्राणी की एक स्वतन्त्र सत्ता है। चाहे वह छोटा पौधा हो, नन्ही सी कोपल ही क्यों न हो, छोटा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITY Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा पर्ण हो-सबकी स्वतन्त्र सत्ता है। आचार्यश्री कहते हैं-मैं इस विश्व में अकेला नहीं हैंकेवल मेरा ही अस्तित्व नहीं है; सब अलग-अलग और स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने परिपार्श्व में जीव और अजीव दोनों की ही सत्ता से बने पर्यावरण में श्वास ले रहा है। मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति सभी में जीव हैं और उनके अस्तित्व के अस्वीकार का मतलब है अपने अस्तित्व को स्वीकार करना । इस संसार में रहने वाली प्रत्येक चेतन सत्ता अचेतन की ओढ़नी ओढ़े हए है। जीव सिर्फ जीव को ही नहीं, अजीव को भी प्रभावित करता है। निष्कर्ष यह है कि दूसरों के अस्तित्व, उपस्थिति, कार्य और उपयोगिता को स्वीकार करने से ही पर्यावरण के संरक्षण और सन्तुलन की बात सोची और समझी जा सकती है, क्योंकि उसके सभी घटक जीव और अजीव उपयोगी है, परस्पर सम्बद्ध हैं और पारस्परिक प्रभाव रखते हैं। अहिंसा बनाम पर्यावरण आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने दूसरी बुनियादी बात कही है कि अहिंसा का नया नाम है पर्यावरण का संरक्षण। आप मानते हैं कि अहिंसा सामञ्जस्य का सूत्र है और पर्यावरण संरक्षण की क्रियान्विति की तकनीक है । जिन जीवों की हिंसा किये बगैर भी जीवन-यात्रा चल सकती है, उनकी अनावश्यक हिंसा पर्यावरण के संतुलन का क्षय करती है और पदार्थों का भी अनावश्यक उपयोग/उपभोग पर्यावरण पर दबाव बढ़ाता है, जिससे असन्तुलन बढ़ता है। आचार्य श्री मानते हैं कि इच्छा और भोग तथा सुखवादी एवं सुविधावादी दृष्टिकोण ने हिंसा को बढ़ाया है। पदार्थ सीमित हैं, उपभोक्ता अधिक हैं और इच्छाएं असीम हैं। अहिंसा का अर्थ है इच्छाओं का संयम करना, अपने विवेक की कैंची से उनमें काट-छाँट करना । जो इच्छा पैदा हो, उसे उसी रूप में स्वीकार न करना, प्रत्युत् उसका परिष्कार करना । हिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को मार डालना नहीं है, वरन वह तो है दूसरे जीवों के अस्तित्व को नकारना और पदार्थ के भी अस्तित्व को अस्वीकार करना । अहिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को नहीं मारना मात्र नहीं है, प्रत्युत् यह तो है छोटे से छोटे जीव और छोटे से छोटे पदार्थ-परमाणु तक के अस्तित्व को स्वीकारना, उनका सम्मान करना और उनके साथ छेड़-छाड़ नहीं करना। आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं कि अहिंसा आत्मोपम्य का पहला सिद्धान्त है। वे मानते हैं कि पदार्थ के अपरिग्रहण का सिद्धान्त अहिंसा का उच्छ्वास है, प्राणतत्व है और यही अहिंसा का सम्यग्दर्शन है। हिंसा की बाढ़ केवल आध्यात्मिक दृष्टि से अवांछनीय नहीं है, पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से भी अवांछनीय है। इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों ही दृष्टियों से अवांछनीय है। अतः यह निष्कर्ष निष्पादित किया गया है कि अहिंसा का सिद्धान्त मात्र आत्मशुद्धि का नहीं, पर्यावरणशुद्धि का भी है। इसे और पुख्ता करने के लिये उन्होंने आगम प्रामाण्य 'आयतुले पयासु' यानी प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझने 98 A niym TITITITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111--112 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अनुभूति को आधार बनाया है ताकि हिंसा के विचार ही हमारे चिन्तन- फलक से दूर हो जायें, क्योंकि सारा लोक तो जीवों से भरा है। चिन्तन की बारीकियों को स्पष्ट करते हुए आपने जीव संयम और अजीव संयम दोनों सिद्धान्तों को आख्यायित करते हुए यह स्पष्ट किया है कि यही अहिंसक फलसफा पर्यावरण के संरक्षण का प्राणतत्व है । " मनुष्य और वनस्पति: दोनों हम साथी - वनस्पतियों के बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है, किन्तु मनुष्य के बिना वनस्पतियाँ सकती हैं। यौगलिक युग के समस्त जीव कल्पवृक्षों पर आश्रित है । पर उसके बाद मनुष्य ने साथ रहना सीखा गांव बसाये, मकान बनाये । मनुष्य ने पहला मकान बनाया 'अंग' वृक्ष से और नाम पड़ा अगार । उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं। पेड़ों की छालों से तन ढंकने के स्थान पर कपास से कपड़े बनाने की कला उसने सीखी। भोजन के लिये कन्दमूल के स्थान पर वह कृषि करने लगा। मनुष्य विकसित तो हो गया पर उसके विकास का सारा दारोमदार वनस्पति जगत पर निर्भर था। वह जब शहरों में भी आया तो उसने बाग बगीचे लगाये, पेड़ लगाये रास्तों पर यानी कुल मिला कर वह अपनी प्राणशक्ति वनस्पति के साथ चलाता रहा + आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने दोनों के बीच अद्भुत समानता का अहसास किया है: -- वनस्पति वनस्पति भी जन्मती है मनुष्य बढ़ता है वनस्पति भी बढ़ती है वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है मनुष्य चैतन्ययुक्त है मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है। वनस्पति भी छिन्न होने पर क्लान्त होती हैं। मनुष्य आहार करता है मनुष्य अनित्य है। वनस्पति भी आहार करती है। वनस्पति भी अनित्य है। वनस्पति भी अशाश्वत हैं । मनुष्य अशाश्वत है। मनुष्य उपचित और अपचित होता है। वनस्पति भी उपचित और अपचित होती हैं। मनुष्य विविध अवस्थाओं को प्राप्त हैं । वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है । - मनुष्य मनुष्य जन्मता है इस तुलनात्मक सारणी का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि वनस्पति दूसरे जीवों की अपेक्षा मनुष्य के अधिक समीप हैं । वनस्पतियाँ जीवन - दायिनी हैं, उन पर मनुष्य की अधिकांश आवश्यकताएं निर्भर करती हैं, अतः मनुष्य के मानस में यह विचार पुष्पित- पल्लवित होना चाहिये कि यह हमारा उपकार करने वाला जगत है । यदि कोई क्रूरता, अनायास या सायास हो जाय तो इनसे क्षमा मांगना मनुष्य का दायित्व है । वनस्पति जगत के प्रति करुणा, सहयोग, सहृदयता, कृतज्ञता और क्षमायाचना का भाव हमारे मन में होना चाहिए। पेड़ों के काटने का मतलब है हिंसा और अपने सहयोगी का तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 + 99 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विनाश। वनस्पति और मनुष्य दोनों के अस्तित्व परस्पर जुड़े हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने अपने चिन्तन के निष्कर्ष का सूत्र प्रतिपादित किया है - ''मैं अकेला नहीं हूँ, वृक्षों के साथ जी रहा हूं।" इसके अतिरिक्त आचार्यश्री आचारांग के सूत्रों का भी स्मरण कराते हैं-''कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है या दूसरों से कराता है या करने की अनुमति अनुमोदित करता है, वह हिंसा उसके स्वयं के लिये अहितकर होती है। आपने महावीर की इस क्रान्तदृष्टि को युगीन संदर्भ दिया है और एक नया अर्थ-बोध भी दिया है।" पृथ्वी से प्रेमः पृथ्वीकाय का रक्षण ___ आचारांग के सूत्रों की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने रेखांकित किया है कि मेधावी पुरुष हिंसा के परिणामों का परिज्ञान करते हुए स्वयं पृथ्वी शस्त्र का समारंभ न करें, दूसरों से उनका समारंभ न कराएं और उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करें। यह भी आग्रह किया गया है कि नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रियाओं में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार के अन्य जीवों की हिंसा करता है। आज खनिजों के लिये पृथ्वी का बहत ज्यादा दोहन किया जा रहा है। इन प्रवृत्तियों से मात्र पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा नहीं हो रही है प्रत्युत् वातावरण के अन्य घटकों का असंतुलन भी पैदा हो रहा है और भूकम्प जैसी अप्रत्याशित आपदाएं हमें संकटग्रस्त कर रही हैं। आप महावीर की वाणी को जन-जन तक पहुंचाते हुए कहते हैं-सर्व सर्वेण सम्बद्धम् अर्थात् सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। विश्व में जो कुछ है उसे उसी तरह रहने देना, उसके साथ छेड़छाड़ नहीं करना व्यावहारिक धरातल पर अहिंसक प्रयोग है जिसकी आज नितान्त आवश्यकता विकास का सीमांकन विकास मानव का स्वभाव है और वह अनवरत रूप से चल रहा है। विकास का मानवीय चेहरा और पर्यावरण, दो तटबन्ध हैं, जो टूट गये हैं। आर्थिक महत्वाकांक्षा ने मानवीय मूल्यों और पर्यावरण दोनों की ही उपेक्षा की है। विकास की प्रक्रिया की मूल आधार बनी है गति । इस गतिशीलता ने विकास और निर्माण की गति को आगे बढ़ाया है और आदमी ने अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं का एक विशाल संसार रच डाला है। आचार्यश्री ने इस समस्या के समाधान के लिये जो मार्ग सुझाया है, वह स्वयं में अद्भुत है, अचूक है। यह है सीमाकरण' का विधान | कोई भी पदार्थ असीमित नहीं, इसलिये उनका सीमित उपयोग/उपभोग आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है। उपभोग का संयम यह सूत्र जितना धर्मशास्त्रों का है, उससे कहीं अधिक पर्यावरण शास्त्र का है, जिसके लिये आख्यायित किया गया है भोगोपभोग के संयम का व्रत उपभोग के संयम द्वारा एक संतुलित जीवनशैली जिसका दार्शनिक आधार है अणुव्रत का चिन्तन । 100 AIIIIIIII W तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतुलन का सूत्र अधिक से अधिक हड़प जाने की विद्रूपता के समक्ष आचार्यश्री के चिन्तन की अपरिग्रही दृष्टि संरक्षण की दिशा में सकारात्मक रुख दिखाती है । स्वकेन्द्रित मनोवेगों से संचालित होना और 'यह सिर्फ मेरा है' का भाव ही तो परिग्रह की रचना करता है और स्वार्थ का यह दृष्टिकोण उपलब्ध संसाधनों का दुरुपयोग कराता है। अतः स्वतः सीमांक - उपभोग का सीमांकन, परिग्रह का सीमांकन संतुलन की बुनियाद है। पर्यावरण संरक्षण के लिये संतुलन के महत्त्व की पहचान करते हुए आचार्यश्री ने कहा— "सृष्टि में संतुलन है। कभी-कभी लगता है, यह प्राणी दुःख देने वाला है। इस प्रतीति के आधार पर कुछ लोग उसे समाप्त भी कर देते हैं। चिड़ियों को अर्थहीन मान कर उन्हें समाप्त कर दिया गया है। फलतः खेती की उपज कम हो गयी है। हर जीव-जन्तु का सृष्टि में होने का अर्थ है । यह अर्थ भी सृष्टि सन्तुलन की व्याख्या करता है। सार्थक में व्यर्थ की कल्पना ही सृष्टि को बिगाड़ रही है। हम व्यर्थ की अवधारणा से मुक्त होकर सार्थकता को समझने का प्रयत्न करें, सृष्टि संतुलन अपने आप हो जाएगा ।"11 आचार्य महाप्रज्ञ ने उदात्त जीवन मूल्यों के माध्यम से एक परिष्कृत और शालीन जीवन-शैली को आख्यायित किया है जो कहीं से भी, किसी के लिये भी आक्रामक नहीं है, सबको सबके साथ ले चलने की जुगत रचती है और सहज, अनायास पा लेती है अपना मुकाम, जिसका नाम है पर्यावरण संरक्षण । सन्दर्भ : 1. लिण्टन के. काल्डवेल. 1991 इन्वायरॉन्मेण्टल साइन्स स. जी. टाइलर मिलर में वैड्सवर्थ पब्लिशिंग हाऊस बेलमाण्ट, कैलिफोर्निया, पृ. 1 2. श्र. जे. से. जैक्सन. 1991, वही पृ. 2 3. आचार्य महाप्रज्ञ 1996 पर्यावरण : समस्या और समाधान पृ. 1. जैन विश्वभारती, प्रकाशन 4. आचार्य महाप्रज्ञ 1999 कैसी हो इक्कीसवीं सदी पृ. 149 5. वही A 6. वही पृ. 132 7. वही पृ. 133 8. आचार्य महाप्रज्ञ 1999 सुबह का चिन्तन, पृ. 148 जैन विश्वभारती प्रकाशन 9. आचार्य महाप्रज्ञ 1996 पर्यावरण: समस्या और समाधान पृ. 3 जैन विश्वभारती प्रकाशन 10. आचार्य महाप्रज्ञ 1999 कैसी हो इक्कीसवीं सदी पृ. 124 जैन विश्वभारती प्रकाशन 11. आचार्य महाप्रज्ञ: 1999 सुबह का चिन्तन पृ. 249 जैन विश्वभारती प्रकाशन महाविद्यालय विकास परिषद् मगध विश्वविद्यालय, बोधगया - 824234 [आचार्य महाप्रज्ञ का साहित्य एवं चिन्तन विषय पर आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद में प्रस्तुत आलेख] तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 101 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखण्ड मानवता का आन्दोलन-अणुव्रत -प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र जिनधर्म के 24वें तीर्थङ्कर भगवान महावीर ने द्विविध धर्म का प्रवचन किया हैआगारिक एवं अनागारिक । अगार का अर्थ होता है घर (गृह), अतः संज्ञा से ही सुस्पष्ट हो जाता है कि आगारिक धर्म का विधान घर वालों अथवा गृहस्थों के लिये था । इन गृहस्थों को ही श्रावक भी कहा गया है। अतएव आगारिक धर्म को ही श्रावक धर्म एवं श्रावकाचार भी कहा गया है। इस धर्म में द्वादश व्रतों की सर्वोपरि प्रतिष्ठा है जिनका परिपालन प्रत्येक गृहस्थ का अनिवार्य कर्त्तव्य है। जैन-धर्म के प्रतिष्ठित ग्रंथ द्वादशाङ्गी का सातवाँ अंग 'उवासकदसाओ' इसी श्रावक धर्म की व्याख्या करता है। ब्राह्मणग्रंथों में भी वानप्रस्थियों के दो सम्प्रदायों की चर्चा मिलती है - शालेय तथा यायावर। शालेय वानप्रस्थी शाला अथवा आश्रम बना कर किसी स्थान पर स्थायी रूप से रहते थे जबकि यायावर वानप्रस्थी निरन्तर सञ्चरणशील थे। 'चरैवेति' ही उनके जीवन का मूलमंत्र था। इस प्रकार, वैदिक परम्परा में जहां धर्माचरणलीन वानप्रस्थियों के लिये भी शाला अथवा अगार का विधान है वहां आर्हत परम्परा में साधु-साध्यिवों के लिये अगार का विधान कत्तई नहीं है। साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका ये चार प्रमुख अंग हैं जिनशासन के । इसी समन्वित रूप को धर्मतीर्थ भी कहा जाता है। इनमें भी साधु-साध्वियों की अपेक्षा श्रावक-श्राविकाओं के आचार का अधिक महत्त्व है। संभवतः इसलिये कि अनागार की स्थिति भी अगार के अनन्तर ही आती है | महाकवि कालिदास भी गृहस्थ धर्म को समस्त आश्रमों की आधारशिला मानते हैं। श्रावकाचार-परम्परा जैनधर्म के श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य एवं प्रतिष्ठित है। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, हरिभद्र, अभयदेव, समन्तभद्र, 102 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमदेव, अमितगति आदि श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा श्रावकाचार के सन्दर्भ में प्रभत सामग्री लिखी गई है। परन्तु आचार्यों की यह परम्परा वहीं नहीं समाप्त हो जाती। वह परम्परा तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु (18वीं शती ई.) तक आती है। आचार्य भिक्षु ने बारह व्रत की चौपाई शीर्षक से श्रावकाचार प्रतिपादक ग्रंथ लिखा । श्रावकाचार-प्रतिपादन की चरम परिणति मिलती है आचार्य तुलसी-प्रणीत श्रावक सम्बोध में जिसकी रचना 20वीं शती में हुई है। ___भारतीय धर्म, संस्कृति एवं साहित्य के इतिहास में गुरु एवं शिष्य के अनेक ऐसे युग्म हुए हैं जिन्होंने समन्वित रूप से महान् लोकोपकार के कार्य किये। वैशम्पायन-याज्ञवल्क्य, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर, अभिनवगुप्त- क्षेमेन्द्र, हेमचन्द्र-रामचन्द्र, रामकृष्ण परमहंसविवेकानन्द आदि युग्म उस परम्परा के पावन प्रतीक हैं। तेरापंथ के नवम एवं दशम आचार्य, आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ इस गुरुशिष्य परम्परा की नवीनतम कड़ी है जिन्होंने अपने अणुव्रत आन्दोलन द्वारा राष्ट्र कल्याण एवं विश्वशांति की स्थापना की दिशा में विलक्षण योगदान दिया है। इतना ही नहीं, भारतीय समाज में भी अपनी संशोधित एवं नवीकृत श्रावकाचार-पद्धति द्वारा एक अद्भुत आकर्षण पैदा कर दिया है-इच्छारहित सरल-जीवन व्यतीत करने के लिये। आचार्य महाप्रज्ञ अपने गुरु आचार्य तुलसी की आध्यात्मिक चेतना, अन्तः प्रज्ञा एवं कवित्वप्रतिभा के सुयोग्य उत्तराधिकारी तो हैं ही, वह मौलिक चिन्तन एवं क्रान्तदृष्टि के भी धनी हैं। यही कारण है कि आचार्य तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत आन्दोलन आज प्रगतिपथ पर आरूढ़ है। अणुव्रत के विषय में कुछ कहने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है। वस्तुतः भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ ने चतुर्याम धर्म का प्रवचन किया था। यही धर्म साधुओं एवं गृहस्थों दोनों को मान्य था । इस धर्म की पूर्ण अर्थात् सांगोपांग आराधना करने वालों में साधु एवं साध्वियों थीं जबकि इसके अंशाराधक श्रावक एवं श्राविकायें थी। कालान्तर में भगवान् महावीर ने साधुओं एवं गृहस्थों के लिये पृथक् धर्मों की स्थापना की। एक बार भगवान् महावीर अस्थिक ग्राम के यक्ष-मन्दिर में रुके। रात में उन्होंने दस महास्वप्न देखे जिनमें चतुर्थ स्वप्न था-दो रत्न मालायें। प्रातः जब उन्होंने जनसमूह के समक्ष स्वप्नों का विवरण प्रस्तुत किया तो भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी उत्पल ने प्रश्न किया दो रत्नमालाओं के रहस्य के विषय में। भगवान् महावीर ने उन्हीं दो रत्नमालाओं का रहस्य विशद करते हुए बताया कि वे द्विविध धर्म की प्रतीक हैं-आगारिक तथा अनागारिक । तभी से भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिष्ठापित चतुर्याम धर्म के स्थान पर आगारिक एवं अनागारिक धर्म का प्रचलन हुआ। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AT MIN 103 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार भगवान् महावीर ने ही श्रमणों तथा श्रावकों के लिये पृथक् आचार व्यवस्थित किया । भगवान् महावीर जानते थे कि श्रमण अपने नियमानुपालन एवं कठोर तप आदि के कारण सामान्य गृहस्थों की तुलना में अधिक शक्तिमान् है । उनकी आचरणक्षमता भी गृहस्थों अथवा श्रावकों से अधिक है । फलतः श्रमणों को महाव्रती तथा गृहस्थों को अणुव्रती कहा गया। इस प्रकार महाव्रत पर्याय बन गया अनागारिक धर्म तथा अणुव्रत आगारिक धर्म का । महाव्रतियों अर्थात् श्रमण श्रमणियों के लिये रत्नत्रय की सिद्धि से मोक्ष का विधान बताया गया। ये रत्नत्रय हैं— सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र | अणुव्रतियों अथवा श्रावकों के लिए भगवान् महावीर ने बारह व्रतों का विधान किया। यही बारह व्रत जिनशासन में श्रावकाचार के मेरुदण्ड माने जाते हैं। चूंकि श्रावक गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले, साथ ही साथ श्रमणोपासक भी होते हैं अतएव वर्तमान तेरापंथ-सम्प्रदाय में श्रावकाचार पर ही अधिक जोर दिया गया है। विशेषतः अणुव्रत आन्दोलन के सूत्रधार आचार्य तुलसी एवं दशमाचार्य महाप्रज्ञजी ने गृहस्थों के धर्माचरण को विशेष महत्त्व दिया है। क्योंकि गृहस्थों के घरों में यदि धर्मदेशना एवं धर्माचरण प्रतिष्ठित होंगे तो उन घरों से आने वाले श्रमण एवं श्रमणियाँ स्वतः आत्मदीप्त होंगे। और यदि वे अनागारिक धर्म में दीक्षित नहीं भी होते, गृहस्थ ही बने रहते हैं तो भी स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकने में समर्थ होंगे। श्रावक का मूल अर्थ हैं - शास्त्रों को सुनने वाला परन्तु आचार्य तुलसी ने इस शब्द के अभिप्राय में विस्तार करते हुए बताया कि श्रावक का अर्थ है श्रावकाचार का परिपालक व्यक्ति। इस प्रकार आचार्य के मन्तव्यानुसार श्रावक को शास्त्रों का श्रोता होने के साथ ही साथ, आगारिक द्वादशव्रतों का पालक भी होना चाहिए । जैन-धर्म प्रारम्भ से ही अत्यन्त व्यावहारिक रहा है। धर्म-साधना एवं जीवन में पवित्रता जैन-धर्म के ये दो प्रमुख अंग हैं। इनमें से प्रथम की चरितार्थता तो सम्भव है साधुसाध्वियों से तथा दूसरे की गृहस्थों से । आचार्य तुलसी तथा महाप्रज्ञ - दोनों ही जैन धर्म - दर्शन एवं जीवनाचार पद्धति के तलस्पर्शी ज्ञाता एवं व्याख्याता हैं तथापि दोनों आचार्य इस बिन्दु पर सहमत प्रतीत होते हैं कि युग के परिवर्तन से धार्मिक देशनाओं के सिद्धान्त एवं व्यवहार में भी परिवर्तन होता है। दोनों ही आचार्य अत्यन्त उदारवादी हैं तथा जैनधर्म की मान्यताओं को वर्तमान कालखण्ड के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हैं । सम्भवतः इसी दृष्टि से आचार्य तुलसी श्रावकाचार के परम्परया प्राप्त द्वादश व्रतों को यथावत् स्वीकार करते हुए भी, उसको युगानुकूल बनाते हुए मात्र नौ बिन्दुओं में उपन्यस्त करते हैं "खाद्यों की सीमा वस्त्रों का हो परिसीमन, पानी-बिजली का हो न अपव्यय धीमन् । यात्रा परिमाण, मौन, प्रतिदिन स्वाध्यायी, हर रोज विसर्जन अनासक्ति वरदायी । हो सदा संघ-सेवा सविवेक सफाई, प्रतिदिवस रहे इन नियमों की परछाई ॥" तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 104 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिष्ठित यह नौ-सूत्री श्रावकाचार कितना युगानुकूल एवं प्रासंगिक हैं, यह सहृदयों द्वारा बड़ी सरलता से जाना और समझा जा सकता है। दोनों ही आचार्य अणुव्रत के महान् पक्षधर हैं। अणुव्रत क्या है? वस्तुतः श्रावकाचार के सन्दर्भ में उपदिष्ट द्वादशव्रतों में से प्रथम पांच को ही आचार्य तुलसी अणुव्रत कहते हैं। इन पांचों में भी प्रथम व्रत है अहिंसा जो जिनशासन की धुरी है। इस अहिंसा को ही जैनाचार्यों ने 'अहिंसा परमो धर्म' : कहकर प्रतिष्ठित किया है। अहिंसा क्या है? आचार्य तलुसी एवं महाप्रज्ञ की दृष्टि में संकल्पपूर्वक निरपराध प्राणी की हत्या न करना ही अहिंसा है। आज कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों में यही तो हो रहा है। आतंकवादियों द्वारा सारी हत्यायें संकल्पपूर्वक की जा रही है, साथ ही साथ ये हत्यायें अपराधियों की नहीं, प्रत्युत् निरपाधियों की हो रही है। यह हिंसा का नग्न ताण्डव है। यदि यह हिंसा बन्द हो जाय तो आतंकवाद स्वतः समाप्त हो जायेगा। आचार्य महाप्रज्ञ इस हिंसा के नौ प्रमुख कारण मानते हैं-लोभ, भय, वैर-विरोध, क्रोध, अहंकार, क्रूरता, असहिष्णुता, निरपेक्ष चिन्तन तथा निरपेक्ष व्यवहार | इस प्रकार की हिंसा को मैत्री, क्षमाभाव, विनम्रता, करुणा, साम्प्रदायिक सद्भाव, सापेक्ष व्यवहार, अभयप्रशिक्षण तथा शरीर एवं पदार्थ के प्रति अमूर्छाभाव के प्रशिक्षण से ही समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से दोनों ही आचार्यों ने अहिंसा से जुड़े समस्या एवं समाधान दोनों पक्षों पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के व्यक्तित्व में अद्भुत समन्वय है चिरन्तन एवं नूतनता का। एक ओर तो वह प्राचीन सुप्रतिष्ठापित जैनागम के पारदृश्वा आचार्य हैं और दूसरी ओर जैनधर्म की प्रासंगिकता एवं युगानुकूलता के भी समर्थ व्याख्याकार | यदि आचार्य तुलसी एवं महाप्रज्ञ का अवतरण न होता तो निश्चय ही जिनशासन एवं आर्हत दर्शन रूढ़ियों में ही बंधे रह जाते। परन्तु तेरापंथ के माध्यम से आज जैसी प्रासंगिकता, नवीनता, उदग्रता, ताजापन तथा व्यावहारिक क्षमता जैनधर्म में आई है, वैसी अन्य धर्मों या सम्प्रदायों में नहीं दिखती। जहां आज इस्लाम शरीयत की स्थापना में लगा है वहीं तेरापंथ श्रावकाचार तथा अनेकान्त की अभिनव व्याख्या तथा स्थापना में लीन है ताकि विश्वशान्ति की स्थापना हो सके। जैनधर्म अध्यात्म की ऊंचाई तक पहंचने के लिये व्रत-सोपान को अनिवार्य मानता है। साधना की क्रमिक परिपक्वता के साथ ही साथ व्यक्ति ऊपर उठ पाता है। सबकी आचरण क्षमता भी एक जैसी नहीं होती। जो क्षमता श्रमण में होगी, वही श्रावक अथवा श्राविका में भी हो, भला यह कैसे संभव है? फलतः आचरणक्षमता के आधार पर मनुष्यों की तीन श्रेणियां सम्भव हैं - अव्रती, व्रताव्रती, व्रती। । अधर्मी, धर्माधर्मी, धर्मी। । असंयमी, संयमासंयमी, संयमी। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 WILY 105 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें व्रताव्रती, धर्माधर्मी तथा संयमासंयमी को मध्यममार्गी माना गया है। संभवतः यही स्थिति श्रावकों की होती है जबकि श्रमण एवं श्रमणी पूर्णतः व्रती, धर्मी एवं संयमी होते हैं। आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ-दोनों ही श्रावक-धर्म के तीन प्रमुख वैशिष्ट्य निर्दिष्ट करते हैं-श्रद्धाशीलता, विश्वास-पात्रता तथा प्रयोगधर्मिता। ये तीनों ही शब्द वृहद्व्याख्या-सापेक्ष हैं। परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि प्रत्येक नागरिक श्रद्धाशील हो, विश्वसनीय हो तथा प्रयोगधर्मी हो (प्रगतिवादी) तो निश्चय ही राष्ट्र स्वर्ग बन जाये। अपने ऋषभायण महाकाव्य में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं नहीं भूख से पीड़ित कोई, कोई नहीं दरिद्र, सबको ही आवास सुलभ है, नहीं कहीं भी छिद्र। मन में व्याप्त नहीं सन्ताप, सम्यक् गतियुत शोणितचाप। ऊंच नीच का भेद नहीं है, सब नर एक समान, भेद व्यवस्थाकृत है केवल, सबका सम सम्मान। सूरज में है जो सौन्दर्य, चन्द्रमा भी है उतना वर्य। यद्यपि यह सन्दर्भ भगवान् ऋषभ के सर्वोदयी उदात्त-साम्राज्य स्थापना का है परन्तु अणुव्रत आन्दोलन का लक्ष्य भी, न केवल भारत में प्रत्युत् समग्र विश्व में एक ऐसे ही साम्राज्य की स्थापना है। ___ आचार्य उमास्वाति ने कहा है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उत्तराध्यायनसूत्र में भी ज्ञान, दर्शन, चरित्र एवं तप को मोक्षमार्ग बताया गया है। इसी तरह भगवतीसूत्र में ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना तथा चरित्राराधना को मोक्षमार्ग निर्दिष्ट किया गया है। इसी को रत्नत्रय कहते हैं। श्रावक की न्यूनतम अर्हता है- सम्यक् दर्शन, जिसका तात्पर्य है आत्मा की त्रैकालिक सत्ता में आस्था रखना। इस आस्था के भी तीन प्रमुख स्रोत हैं-देव, गुरु तथा धर्म । देव का अर्थ है जैन धर्म में प्रतिष्ठित चौबीस तीर्थङ्कर | गुरु का अर्थ है अनागारिक महाव्रत में पारंगत देशिक | धर्म का अर्थ है अहिंसा, संयम और तप । यदि श्रावक रत्नत्रय का अधिकारी न भी हो तो मात्र इस सम्यक दर्शन की सिद्धि से ही वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है अपने पुरुषार्थ से । यद्यपि जैनधर्म में भी परमात्मपद प्राप्ति को ही मोक्ष माना है। परन्तु यहां परमात्मा का अर्थ ईश्वर से नहीं प्रत्युत् आत्मस्वरूपोपलब्धि से है। ___ आचार्य तुलसी श्रमणसंघ एवं जिनशासन के समन्वित रूप को धर्मतीर्थ कहते हैं। संघ को परिभाषित करते हुए आचार्यश्री कहते हैं लिङ्गभेदाच्चतुर्भेदो द्विधाऽयं व्रतभेदतः। आचार्योऽधिपतिर्यत्र स संघः संघ उच्च्यते॥- संघषट्त्रिंशका | 106 AIIIIIIII IIIIII IIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु (श्रमण) साध्वी (श्रमणी) श्रावक एवं श्राविका ये संघ के चार प्रमुख अंग हैं। इसी प्रकार महाव्रत एवं अणुव्रत भी संघ के दो प्रमुख स्तम्भ हैं। आचार्य तुलसी द्वारा संघठित एवं प्रवर्तित तेरापंथ नामक यह संघ अहिर्निश लीन है - समाज, राष्ट्र एवं विश्व के समुन्नयन में। तेरापंथ के दोनों ही आचार्य उद्भट विद्वन्मनीषी एवं सहृदय कवि रहे हैं। आचार्य तुलसी ने संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में विशाल साहित्य-संरचना की। महाश्रमणी कनकप्रभाजी ने आचार्यश्री के कर्तृत्व का सांगोपांग विवेचन किया है। आचार्य तुलसी ने दो सिद्धान्तग्रंथ (तत्त्वविद्या, जैनसिद्धान्तदीपिका) एक योगग्रंथ (मनोनुशासनम्) एक अनुशासन ग्रंथ (पञ्चसूत्रम्) तथा दो जीवनवृत्त (श्री कालू यशोविलास तथा सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति) लिखे। जीवन के अन्तिम दशक में आपने बोध (आचार-बोध, संस्कारबोध, व्यवहारबोध) प्रबोध (तेरापंथप्रबोध) तथा सम्बोधग्रंथ (श्रावकसंबोध) लिखे । मात्र 12 वर्ष की अल्पवय में आचार्य तुलसी का कवित्व जाग्रत हो उठा था। वह सन्त भी थे, साहित्यकार भी। परन्तु उन्होंने अपने सन्त-व्यक्तित्व को सदैव गरिमामण्डित रखा। पूज्य आचार्य महाप्रज्ञ सच्चे अर्थों में सिद्धसरस्वतीक आचार्य हैं। हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं में वह शताधिक सिद्धान्त एवं सरस काव्यग्रंथ प्रणीत एवं प्रकाशित कर चुके हैं। उन्होंने देववाणी संस्कृत को यदि अश्रुवीणासरीखा ललित गीतकाव्य दिया है तो राष्ट्रभाषा हिन्दी को ऋषभायण जैसा श्रेष्ठ महाकाव्य। वह गहन चिन्तक, उदार संघशास्ता एवं सर्वधर्मसमन्वयी सहिष्णु धमाचार्य-सब कुछ हैं। ऐसे कल्पतरुकल्पदेशिक के श्रीचरणों में मेरी विनम्र प्रणामाञ्जलि अर्पित है। आचार्य महाप्रज्ञजी अणुव्रत को अखण्ड मानवता का आन्दोलन मानते हैं और मैं हृदय की सम्पूर्ण निष्ठा के साथ आचार्यश्री को इस युग का एकमात्र अखण्ड महामानव मानता हूं। शिमला विश्वविद्यालय, शिमला-5 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AI WWWII 107 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म और जाति स्मृति - साध्वी जतनकुमारी कनिष्ठा' हर चेतनाशील प्राणी में अपने अस्तित्व को जानने की जिज्ञासा रहती है कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूँ? कहां जाऊंगा? हर भारतीय आस्तिक दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। आत्मा को एक शाश्वत सत्य के रूप में मानता है। कर्मलिप्त आत्मा का जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म होना निश्चित है। जन्म-मृत्यु की यह परम्परा तब तक चलती रहती है जब तक मोक्ष नहीं होता। जीव अपने प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्मांतर करता है, पुनर्जन्म कर्मसंगी जीवों के ही होता है। आयुष्य कर्म के अनुसार जीव नानाविध गतियों में भ्रमण करता है। पुद्गल परमाणु जीव में ऊंची-नीची, तिरछी-लम्बी और छोटी-बड़ी गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं। कभी नारक, कभी तिर्यंच, कभी मनुष्य और कभी देव बनता है। राग और द्वेष से कर्मों का बंध होता है और कृतकर्म ही इस जन्म-मरण की परम्परा का निमित्त बनता है। भगवान महावीर ने कहा है अग्निग्रहीत क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं। 'कष्' का अर्थ है संसार । जो आत्मा को संसारोन्मुख बनाता है वह कषाय है । कषाय रस से भीगे हुए वस्त्र पर मजीठ का रंग लगता है और टिकाऊ होता है, वैसे ही क्रोधादि से भीगे हुए आत्मा पर कर्म-परमाणु चिपकते हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने पैर में चुभन वाले कांटे को पुनर्जन्म में किये हुए प्राणी-वध का विपाक बतलाकर पूर्वजन्म-पुनर्जन्म को स्वीकृत किया। आस्तिक दार्शनिकों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि के लिये कुछ हेतु प्रस्तुत किये गये हैं(1) नवजात शिशु के अन्दर भी हर्ष, भय, शोक आदि के संस्कारों का होना पुनर्जन्म की स्मृति है। 108 AIIIIIIIIII MITI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) स्तन-पान की इच्छा का अभिव्यक्तिकरण होना-यह पुनर्जन्म में किये हए आहार के अभ्यास का परिणाम है। (3) हंसना-रोना आदि वृत्तियों का होना। इन सब वृत्तियों का होना पूर्वाभ्यास का परिचायक है। बालक की बहुत कुछ वृत्तियां भी पूर्वजन्म की स्मृति का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। शारीरिक विकास के अभाव में बहत बातें अनभिव्यक्त वैसे ही रहती हैं, जैसे सामग्री के अभाव में बीज में अंकुरण-पल्लवन आदि का अभाव। जिस प्रकार युवक का शरीर बाल्य शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है उसी प्रकार से बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद होने वाली अवस्था है। नवजात शिशु को जो सुख-दुःख का अनुभव होता है वह भी पूर्वभव के अनुभवों का फल है। जीवन का मोह और मृत्यु का भय उसके पूर्व बद्ध-संस्कारों का परिणाम है अन्यथा इन वृत्तियों का होना असंभव हैं। दर्शनशास्त्र के नियमों से भी इसकी सच्चाई स्पष्ट है और तर्कशास्त्र का यह नियम है कि दुनिया में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो अव्यक्त असत् है वह सत् बन जाये 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' अभाव से भाव तथा भाव से अभाव नहीं होता, तब जन्म और मृत्यु, नाश और उत्पाद यह क्या है? मात्र पर्याय का परिवर्तन, अतः पदार्थ मात्र में परिवर्तन अवश्यंभावी है जिससे वह पूर्वावस्था को छोड़कर नई अवस्था में चला जाता है पर उसका अस्तित्व सर्वथा नष्ट नहीं होता। जीव एक शाश्वत तत्त्व है। उसकी सत्ता त्रैकालिक है। वह हर काल में जीव ही रहता है। फिर भी उसकी अवस्थाएं बदलती रहती हैं। बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण है जन्म और मृत्यु । संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है, वह उसका उद्भव है। जन्म लेने वाला हर प्राणी एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता है, वह उसका तिरोभाव है। मृत्यु के बाद वह फिर जन्म ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया का फलित यह है कि जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी जीव की सत्ता विद्यमान है । वह जन्मता है, मरता है। वह यायावर की तरह एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाता है। गीता के शब्दों में - जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को पहनता है वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर प्राणी नये शरीर को धारण करता है। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कहा है कि आत्मा सदा अपने लिये नये वस्त्र बुनती है तथा उसमें एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है जो ध्रुव रहती है और अनेक बार जन्म लेती है। नवीन पाश्चात्य दार्शनिक शॉपन हार के शब्दों में पुनर्जन्म निःसंदिग्ध तत्त्व है। उनके शब्दों में जो कोई पुनर्जन्म के विषय में पहले पहल सुनता है, उसे भी वह स्पष्ट रूपेण प्रतीत हो जाता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITINY WINNY 109 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक युग के अनेक वैज्ञानिकों, परामनोवैज्ञानिकों, विशेषज्ञों एवं भूतविद्या के शीर्षस्थ जानकारों ने मृत्यु के बाद जीवन के अस्तित्व को अनेक प्रमाणों से प्रमाणित किया 'थामस हक्सले, राबर्ट मायरा और डॉ. जे.बी.राइन जैसे पश्चिमी वैज्ञानिकों ने आत्मा के अविनश्वर रूप और मृत्यु के बाद जीवन की स्थिति में अपना विश्वास प्रकट किया है। आचार्य डॉ. जे.बी.राइन के अनुसार मनुष्य का मन शरीर के साथ खत्म नहीं होता। कुछ स्थायी भी रहता है, पुनर्जन्म के अस्तित्व को अस्वीकारने वाले मुख्यतः दो हेतु हैं: 1. पुनर्जन्म है तो हमें उसकी कुछ न कुछ स्मृति अवश्य होनी चाहिये। 2. यदि दूसरा जन्म है, आत्मा की गति और आगति है तो हम क्यों नहीं देख पाते हैं? स्मृति का जहां तक सवाल है, इसे अपनी बाल्यावस्था से समाहित कर सकते हैं। बचपन की यादें हमें युवावस्था में याद नहीं हैं। बहुत सी घटनावलियाँ विस्मृत हो गई हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपने बचपन को अस्वीकार करते हैं। वर्तमान जीवन में यह स्थिति है, तो पूर्वजन्म की विस्मृति में आश्चर्य ही क्या? __ नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा- अमूर्त पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। इस आगम वाक्यानुसार यह स्पष्ट है कि चर्मचक्षुधारी प्राणी अमूर्त का साक्षात्कार नहीं कर सकते। तब हम अरूप आत्मा को कैसे देखें? शरीर से उसके निर्गम प्रवेश को कैसे पहचान पायें? सूर्य प्रकाश में नक्षत्र नहीं दिखाई देते, तो क्या नक्षत्रों को नकार दिया जाये? ज्ञान-शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत् पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होता। जाति स्मृति क्या है? आगमों में पिछले जन्मों की याद के लिये जाति-स्मरण अथवा संज्ञी-ज्ञान आदि का प्रयोग हुआ है। जाति का मतलब जन्म से है और स्मृति का मतलब याद से है। अतः जिस ज्ञान से पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है, उसे जाति स्मृति ज्ञान कहते हैं। जाति स्मरण एक ऐसी अनूठी फिल्म है जो व्यक्ति को पूर्ववर्ती एक जन्म से नौ समनस्क जन्मों तक घटित घटनावलियों की रील कुछ क्षणों में दिखा सकती है और आचारांग वृत्ति के अनुसार संख्येय जन्मों तक की भी घटनाएं। यह इस ज्ञान की अद्भुत क्षमता एवं अतुलनीय विशेषता है। जैन दर्शन में पांच प्रकार के ज्ञान माने गये हैं :1. मतिज्ञान (अभिनिबोध) 2. श्रुत-ज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनः पर्यव ज्ञान 5. कैवल्य-ज्ञान । प्रथम दो विकल्प प्रत्येक प्राणी में पाये जाते हैं किन्तु ज्ञान का क्षमोपशम सब प्राणियों 110 AIIIIII TITTWITTIY तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में समान रूप से नहीं रहता है, तारतम्य रहता है। तारतम्य का आधार है आवरणों की अल्पता और बहलता | अतः संख्या समान होने पर भी विकास की अपेक्षा से अन्तर रहता है। क्वान्टिटि सम होने पर भी क्वालिटी में बहुत बड़ा अन्तर रह सकता है। मतिज्ञान के चार प्रकार हैं- 1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. धारणा प्रकारान्तर से स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान भी मतिज्ञान के ही प्रकार हैं। धारणात्मक ज्ञान का नाम संस्कार है, उसके उद्बोध अर्थात् जागरण से (तत्) शब्द वाच्यमति ज्ञान को स्मृति कहा जाता है। अतः जातिस्मृति उसका एक प्रकार है। जाति स्मरण के दो प्रकार है- 1. निसर्गज और 2. निमित्तज।। ___ मति के आवश्यक आवरणों का विलयीकरण होने से जन्मान्तर के संस्कारों का सहज ही स्मरण हो जाता है, यह नैसर्गिक जाति स्मृति है और बाह्य-प्रेरणा से प्रेरित होने पर पूर्व संस्कारों का स्मरण होना निमित्तज जातिस्मृति है। - पूर्वजन्म का संज्ञान किया जा सकता है, इस शक्यता के प्रतिपादन में तीन हेतुओं का उल्लेख है:- 1. स्व-स्मृति 2. पर-व्याकरण 3. दूसरों के पास सुनना। गुरुदेव श्रीतुलसी ने इन्हीं निमित्त बीजों को अत्यंत सरस सुबोध भाषा में अभिव्यक्त किया है : स्वयं स्वयं की जाति स्मृति से अथवा ज्ञानी के मुख से सुनज्ञात हुआ संस्मरणशील मैं, सुख का, दुःख का वरणशील मैं, दिग् दिगन्त संचरणशील मैं, मैं उपपात मरणधर्मा हूं, कृतकर्मा हूं, मैं अतीत में था, अब हूं, भविष्य में बना रहूंगा, सोऽहं सोऽहं का संज्ञानी वही प्रत्यभिज्ञा सन्धानी ॥ आधुनिक परामनोवैज्ञानिकों ने पूर्वजन्म की सहज स्मृति से संबंधित अनेक घटनावलियों का संग्रह किया है और कर रहे हैं। जैन सिद्धान्त और जैन साहित्य में इस प्रकार की अनेक घटनाओं का उल्लेख है। 1. स्वस्मृति-कपिल (दासी) पत्नी की इच्छापूर्ति के लिये दो मासा सोना लाने रात्रि में निकल पड़ा। आरक्षकों ने इसे चोर समझकर पकड़ लिया और प्रातः राजा प्रसेनजित के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने रात में अकेले घूमने का कारण जानना चाहा। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NI TI IMW 111 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिल ने सच-सच बता दिया । उसकी सरलता और सत्यता से प्रभावित नृप ने उसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा। कपिल ने कहा- मुझे सोचने के लिये कुछ अवकाश चाहिये । राजा - जैसे तुम्हारी इच्छा । कपिल — एकान्त शान्त वनिका में जा बैठा । चिन्तन चला। दो मासा से करोड़ों तक बढ़ा परन्तु मन नहीं भरा। दो मासा कयं कज्जं, कोडि-ओवि न निट्यिठयं । कपिल का चित्त आन्दोलित हो उठा, चिन्तन का प्रवाह मुड़ा, मन विरक्ति से भर गया और चिन्तन की गहराई में डुबकियां लगाते-लगाते उसे जाति-स्मृति ज्ञान हो गया और कपिल स्वयंबुद्ध बन गया । सुश्रुत संहिता में यह निर्दिष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति पूर्वजन्म में शास्त्रों के अभ्यस्त होते हैं तथा उनका अन्तःकरण शास्त्रज्ञान से भावित होता है, उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है। 2. पर व्याकरण-आप्त पुरुषों द्वारा पूर्वजन्मों की स्मृति करवाने से भी जाति - स्मृति की प्राप्ति हो जाती है । इस सन्दर्भ में चूर्णिकार एवं वृत्तिकार ने गौतम स्वामी का नाम उल्लेख किया है : --- 112 भावितं पूर्वदेहेषु सततं शास्त्र बुद्धयः । भवन्ति सत्वभूयिष्ठाः पूर्वजाति स्मराः नराः ॥ गौतम ने भगवान महावीर से पूछा भंते! मुझे कैवल्य ज्ञान क्यों नहीं हो रहा है? भगवान ने कहा—गौतम ! तेरा मेरे प्रति अत्यधिक अनुराग है, इसीलिये । गौतम ――― - मेरा यह स्नेह किस कारण से है ? भगवान ने कहा — गौतम ! तुम्हारा मेरे साथ लम्बे समय तक संसर्ग रहा है। तुम मेरे चिर परिचत हो, इस वाणी को सुनकर गौतम को विशिष्ट दिशा गमन में किस दिशा से कहां से आया हूं? आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ । 3. दूसरों के पास सुनना - बिना पूछे ही किसी अतिशय ज्ञानी के द्वारा स्वतः निरूपित तथ्य को सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान प्राप्त कर लेता है 'अन्येषामन्तिके श्रुत्वा' अर्थात् तीर्थंकर के अतिरिक्त जो अन्य केवली, मनः पर्यवज्ञानी, अविघज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नव-पूर्वी, आठ पूर्वी, आदि से लेकर आचारधर, सामायिकधर, श्रावक या कोई सम्यग् दृष्टि से सुनकर पूर्वजन्म का स्मरण होना । पूर्वजन्म के स्मृति के निमित्तकों का विश्लेषण आचारांग भाष्य में इस प्रकार मिलता हैः(1) मोहनीय कर्म का उपशम । (2) अध्यवसानशुद्धि (लेश्या शुद्धि) (3) ईहा-अपोह-मार्गणा - गवेषणा तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नाया-धम्म कहाओ' में भी इन चार कारणों का उल्लेख किया है (देखे-1/90) उपशान्त मोहनीय राजर्षि नमि के जाति-स्मृति ज्ञान का निमित्त उपशान्त मोह था। विशेष जानकारी के लिये उत्तरज्झयणाणिं का नवमा नमिपव्वज्जा अध्ययन पठनीय है। अध्यवसान-शुद्धि-काकतालीय न्याय के अनुसार बहुत बार ऐसा भी होता है कि ज्ञान को आवृत्त करने वाले कर्म परमाणुओं की अवधि पूर्ण होने वाली है अथवा कर्म पुद्गल उदयावलिका में प्रविष्ट होते हैं, उस समय एक ऐसा झटका लगता है, संतदर्शन अथवा संभाषण के तत्क्षण उसे अतीत का साक्षात्कार हो जाता है। पूर्वजन्म के स्मरण की एक विशेष पद्धति है। कोई व्यक्ति पूर्व परिचित व्यक्ति को देखता है, तत्काल चैतसिक संस्कारों में हलचल होती है, वह सोचता है कि इस प्रकार का आकार मैंने कहीं देखा है? ईहा, अपोह, मार्गणा और अन्वेषणा के द्वारा चिन्तन आगे बढ़ता है। बलभद्र के प्रिय मृगापुत्र को सुसंयत, संयमित, नियमित, शीलसमृद्ध और ज्ञान आदि विशिष्ट गुणों से अन्वित मुनि के दर्शन से तथा अध्यवसायों की पवित्रता होने से जाति स्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार भृगु पुरोहित के दोनों पुत्रों को भी संतों की सन्तता दर्शन से संज्ञी ज्ञान हुआ। इहा-अपोह-मार्गणा-गवेषणा... ___ राजकुमारमेघ मुनिमेघ बन गया। मुनि जीवन की प्रथम रात्रि मेघ मुनि को सोने के लिये दरवाजे के बीच में स्थान मिला। रातभर साधुओं के गमनागमन से वह नींद नहीं ले सका। अंधेरे में साधुओं के पांवों से मेघ का शरीर बार-बार स्पर्श होता रहा। एक ओर राजकुमार का कोमल शरीर, दूसरी ओर कठोर धरती पर शयन, साधुओं की आपाधापी से निद्रा में विक्षेप । मेघमुनि अधीर हो गये। सूर्योदय के साथ ही घर जाने का निर्णय ले लिया। अपने निर्णय की क्रियान्विति के लिये भगवान के उपपात में पहुंचे । भगवान ने उसको सम्बोधित कर उसका मन उसके सामने खोल-कर रख दिया। उसे पूर्वजन्म की स्मृति कराई। पीछे मुड़जुड़ जोग स्यूं, कर अतीत ने याद । तो सारी कटुता कटै, मिटै वितण्डावाद । लेश्या अध्यवसाय योगशुभ, ईहापोह-गवेषण । करता अन्तर यात्रा पायो, जाति स्मृति सम्प्रेषण | देख सुमेरूप्रभ मेरूप्रभ निजभव विस्मय भय हो । जातिस्मृति के आवारक कर्मों का क्षयोपशम होने से जाति स्मृति ज्ञान समुत्पन्न हआ। मेघ को अपना पिछला हाथी का भव साफ-साफ दिखाई दिया। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001AN WILLY 113 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा जाति स्मृति सनिमित्तक और अनिमित्तिक भी होता है। कुछ मनुष्यों को तदावरणीयकर्मों का क्षयोपशम होने से जातिस्मृति ज्ञान होता है, वह अनिमित्तक है और जो बाह्य निमित्त उपलब्ध होने पर चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह प्राप्त होता है, वह सनिमित्तक है। "चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के दरबार में एक नट आया, उसने अभ्यर्थना की, मैं आज मधकरी गीत नामक नाट्य प्रस्तुत करना चाहता हूं। चक्रवर्ती ने स्वीकृति दी। नाटक आरम्भ हुआ। कर्मकरी ने फूल मालाएं चक्रवर्ती को उपहृत की। उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। गीत सुनते ही चक्रवर्ती के मन में विकल्प उठा— मैंने कहीं ऐसा नाटक देखा है। चिन्तन की गहराई में जाते ही ब्रह्मदत्त को जाति स्मृति का ज्ञान हो गया। ऐसा नाटक सौधर्म देवलोक के पदमगुल्म विमान में देखा था। आचार्य यशोविजयजी ने योग बिन्दु में जातिस्मरण की प्राप्ति के नौ कारण बतलाये हैं ब्रह्मचर्येण तपसा, सद्विद्याध्ययनेन च। विद्यामंत्र विशेषण, सतीर्थसेवनेन च ॥ पितृ सम्यगुपस्थानात्-ग्लान भैषज्यदानतः । देवादि शोधनाच्चैव, भवेज्जाति स्मरः पुमान् ।। (1) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य की साधना करने से आन्तरिक विकारजन्य संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। शांत चैतसिक धरातल जातिस्मरण के लिये उपयुक्त होता है। (2) तपश्चर्या-भोजन करने से भीतर का यंत्र संचालित होता है। फलतः आन्तरिक स्थिरता खत्म हो जाती है। तप से कर्म क्षय होने से जातिस्मरण हो जाता है। (3) आत्म-विद्याध्ययन-सत् साहित्य के अध्ययन व अनुशीलन से आत्मा में स्थिरता एवं निर्मलता प्रगट हो जाती है, इसलिए निर्मल चित्त में जातिस्मृति हो जाती है। (4) मंत्र-विद्या के विशेष प्रयोग : मंत्रों की आराधना से अन्तर चक्र सजग हो जाते हैं। चक्रों के सजग होने से भी जातिस्मरण हो जाता है। (5) तीर्थसेवा : तीर्थ प्रवचन का सम्यक् आसेवन करने से आत्मा अन्तर्मुखी हो जाती है, इसलिए जातिस्मृति होना संभव है। (6) पिता की पर्युपासना-माता-पिता को आध्यात्मिक सहयोग देने से भी जातिस्मृति हो सकती है। (7) रोगी को औषधदान देने से, रोग से संत्रस्त व्यक्ति को आरोग्य का आश्वासन देने से वह आर्त्ततामुक्त होता है, इस निमित्त से भी जातिस्मृति हो जाती है। 114 TWITTIIIII IIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) देव पूजा-अर्हत् प्रतिमा को आत्मा में प्रतिष्ठित करने से भी जातिस्मृति ज्ञान हो जाता है। (9) आत्म-शोधन-आत्मचिन्तन करते-करते भी अतीत का साक्षात्कार होजाता है। मनु स्मृति में जातिस्मृति के कई कारण निर्दिष्ट हैं वेदाभ्यासेन सततं, शौचेन तपसैव च । ___ अद्रोहेण च भूतानां, जाति स्मरति पौर्विकीम् ॥ 1. वेदाभ्यास 2. पवित्रता 3. तपस्या और 4. मंगल मैत्री भविष्य पुराण में जाति स्मृति की उपलब्धि के लिये जातिस्मृति व्रत का उल्लेख है। महाभारत में जातिस्मरण तीर्थ का वर्णन है। पिछले जीवन की साक्षात अनुभूति के लिये जातिस्मरण हृद में स्नान करना बतलाया है। जातिस्मर हृदे स्नात्वा, भवेज्जाति स्मरोनरः।। सेत माहात्म्य में लिखा है--शिव की साधना से वारन को जन्मान्तर का ज्ञान हो गया था। इसीलिये उन्होंने कहा तपस्य आराध्य गिरीशं, तत्प्रसादात्पुरातनम्। अतीतं भावी विज्ञानमस्ति जन्मान्तरोपि च || शिव की आराधना एवं तपस्या से मुझे अतीत अनागत का ज्ञान हो गया। भागवत स्कन्ध में लिखा है राजानृग ने श्रीकृष्ण से कहा—मुझे गिरगिट के जन्म में भी जन्मान्तर की याद थी। इसका कारण आपके दर्शन की तीव्र आकांक्षा थी। योगसूत्र में जाति-स्मृति का विस्तृत विवेचन है। विशेष ज्ञाताओं के रूप में तीन व्यक्तियों के नाम हैं (1) ऋषिजैगषिव्य को सम्पूर्ण भावों का ज्ञान था। . (2) ऋषि कौशिक को सात पूर्वजों के अनेक जन्मों की याद थी। (3) सुमति पुत्र को लाख पूर्व भवों का ज्ञान था। श्रीमदायचन्द ने अपनी जीवनी में लिखा है कि सात वर्ष की आयु में मृत व्यक्ति की अन्तिम क्रिया देख मेरे मन में गहरी ऊहापोह हुई और जातिस्मरण का ज्ञान पैदा हो गया। आज भी ऐसे अनेक प्रयोग किये जाते हैं, करवाये जाते हैं जिससे व्यक्ति पूर्वाजित संस्कारों को दोहरा देता है। आटो-सजेशन, आटो रिलेक्शेशन एवं अनेलिसिस आदि प्रयोगों से अतीत में पहंचा दिया जाता है। सबको पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, इसका कारण तेंदुलवेयालिय प्रकीर्णक में स्पष्ट निर्दिष्ट है : तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 NITIONSITY INNINNNNNNY 115 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाइंसरइ न अप्पणो॥ जन्म और मृत्यु के समय प्राणी को जो दुःख होता है, उस दुःख से संमूढ़ होने के कारण व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं हो पाती। मूर्छा में स्मृति लुप्त प्रायः हो जाती है, .इसीलिये जन्मान्तर का बोध नहीं रहता तथा विशिष्ट निमित्तकों के अभाव में भी पूर्वजन्म के विद्यमान संस्कारों को नहीं उभारा जा सकता। अन्यथा हम पूर्वजन्म में घटित समस्त घटनावलियों को भली-भांति देख सकते हैं, जान सकते हैं। __ परामनोविज्ञान की जितनी भी घटनाएं हैं-वे वैयक्तिक होती हैं, अतः कोई नियामकता नहीं बनती है। फिर भी इसका अपना मूल्य है। पशुओं तथा पेड़ पौधों में परासामान्य मनोविज्ञान का अस्तित्व पाया जाता है। अमेरिका में एक संस्था का निर्माण किया गया है वहां परासामान्य का परीक्षण किया जाता है। उसमें एक पूर्वजन्म की स्मृति है, हजारों घटनाएं प्रमाणित सिद्ध हुई हैं। जहां पूर्वजन्म-पुनर्जन्म का अस्तित्व भी स्वीकार नहीं किया गया है वहां भी ऐसी घटनाएं घटित हुई और वह सत्य सिद्ध हुई। थाईलैण्ड में भी ध्यान के माध्यम से पुनर्जन्म की स्मृति करवाई जाती हैइन सूत्रों से भी पूर्वजन्म की स्मृति स्वतःसिद्ध है(1) स्वभाव की विलक्षणता-बिना प्रशिक्षण प्राप्त क्षमताएं। (2) कलात्मक ज्ञान-बिना प्रशिक्षण विविध कलाओं का ज्ञान। (3) भाषात्मक ज्ञान-बिना प्रशिक्षण विविध भाषाओं का ज्ञान । (4) अतीन्द्रिय बोध-इन्द्रियों की सहायता के बिना पदार्थों का सहज बोध । जातिस्मृति ज्ञान वास्तव में विस्मृति से स्मृति में आने का एक सबल उपक्रम है। इस ओर विशेष अनुसंधान की अपेक्षा है। सतत अनुसंधान से कई अतीन्द्रिय तथ्य सामने आने की सम्भावना है। डॉ. जरड प्याटलर ने लिखा है-योग विधियों के द्वारा आप ज्ञान के क्षेत्र में एक वास्तविक नई राह निकालने में सफल हो सकते हैं। आयु परावर्तन एजरिग्रेशन की पद्धति का प्रयोग आज कल मानस रोगों के लिये अमरीकी चिकित्सा विधि में खुलकर हो रहा है। यह जानने के लिये कि रोग की जड़ में कोई मानसिक ग्रंथि कारणभूत है या नहीं? रोगी को सम्मोहन द्वारा गहरी नींद जैसी अवस्था में सुला दिया जाता है और बाद में उसके अतीत की स्मृतियां उबुद्ध की जाती है। इस अवस्था में वर्तमान ही नहीं, पिछले जन्मों की भूली हई यादें भी ताजी हो जाती हैं। इस प्रयोग ने 116 ANILITI LILAILY MITITITII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म का विरोध करने वाले डॉ. अलेक्जेंडर केलन जैसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों की भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त में श्रद्धा जागृत कर दी। जाति स्मृति का मुख्य फल है असत् से निवृत्ति और सत् में प्रवृत्ति तथा श्रद्धा की प्रगाढ़ता। इस ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति पूर्ववर्ती जन्म की घटनाओं के आधार पर इस निश्चय पर पहुंच जाता है कि चारों गतियों में परिभ्रमण करना, विविध प्रकार के कष्टों का प्रतिसंवेदन करना कर्म का परिज्ञान नहीं होने के कारण ही होता है। यह जानकर वह परिज्ञातकर्मा बनने का प्रयत्न करता है। संदर्भ: 1. अर्हत्वाणी पद्य संख्या 44 रचयिता - आचार्यश्री तुलसी 2. दसवेंआलियं, अध्ययन 88 गाथा 39 3. गीता-अध्याय-1 श्लोक 11 4. आयारो श्रु 1, अ 1, उ.1 सूत्र 3 का भाष्य 5. अर्हत्वाणी-पद्य संख्या-44 6. उत्तरज्झयणाणि-अ 8 आमुख पृष्ठ संख्या 19 7. सुश्रुत संहिता, शरीर स्थान 21561 8. आयारो वृत्ति पत्र 20 9. आयारो भाष्य पृष्ठ 21 10. उत्तरज्झयणाणि-अ. 9 गा 1,2 11. उत्तरज्झयणाणि अ. 19 गा. 5 से 8 तक 12. छदमस्थ री छोल 13. उत्तरज्झययाणि-अ 13 आमुख पृष्ठ-311 14. आयारो-श्रु 1, अ 1, उ 1, सूत्र 8,9 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ATTITINITINITITIVITITISINITIN 117 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमीनार एवं संगोष्ठी राष्ट्रीय परिसंवाद अनेकान्त सिद्धान्त और व्यवहार (1-3 अप्रैल, 2001) विश्ववंद्य तीर्थंकर महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक महोत्सव के पावन प्रसंग पर जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, (राजस्थान) द्वारा अनुशास्ता पूज्य आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के प्रेरक सान्निध्य में अनेकान्त : सिद्धान्त और व्यवहार इस विषय पर राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन गंगाशहर, बीकानेर (राज.) में 1-3 अप्रैल, 2001 में किया गया। इस संगोष्ठी में 6 शैक्षणिक-सत्र आयोजित हुए जिनकी अध्यक्षता क्रमशः प्रो. भोपालचन्द लोढ़ा, कुलपति, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं, प्रो. अरुण के मुखर्जी, कलकत्ता, प्रो. महावीरराज गेलड़ा, जयपुर, प्रो. तुषार के. सरकार, कलकत्ता, तथा प्रो. दयानन्द भार्गव, लाडनूं ने की। विभिन्न सत्रों में देश के लब्धप्रतिष्टित मनीषियों ने शोध-पत्रों का वाचन किया जिसका विवरण इस प्रकार हैक्र.सं. प्रतिभागी शोध आलेख 1. प्रो. तुषार के. सरकार, कलकत्ता अनेकान्त, स्याद्वाद, नयवाद 2. श्रीमती एस.रघुनाथन, दिल्ली । Fatless cream and decaffeinated coffee-A layman view of Anekant डॉ. नेमिचन्द जैन, इन्दौर The Applied Aspect of Anekantwad 4. प्रो. सागरमल जैन, शाजापुर भारतीय दार्शनिक चिन्तन में निहित अनेकान्त के तत्व साध्वी वर्द्धमान श्री व्यवहार में अनेकान्त डॉ. के.सी. जैन अनेकान्त का व्यावहारिक पक्ष 7. डॉ. अशोक कुमार जैन, लाडनूं सम्यक् व्यवहार में अनेकान्त दृष्टि की उपयोगिताः सूत्रकृतांग के सन्दर्भ में 8. प्रो. महावीरराज गेलड़ा, जयपुर Anekant : A Jain contribution to Scholartic Methodology 9. श्रीमती रंजना जैन, दिल्ली अनेकान्त का सामाजिक पक्ष 10. साध्वी आरोग्यश्रीजी 'शान्त सहवास में अनेकान्त की भूमिका' 11. डॉ. हेमलता बोलिया, उदयपुर वर्तमान समस्याओं के निराकरणार्थ अनेकान्त की उपयोगिता 118 AIIIIIIIIN INI TITI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-172 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 12. डॉ. जे.पी.एन. मिश्रा, लाडनूं Human Body - A natural Hower of Anekant principles 13. प्रो. रुण के. मुखर्जी, कलकत्ता अनेकान्तवाद और उसकी अभिव्यक्ति की शैली स्याद्वाद 14. प्रो. के.सी. सौगानी, जयपुर अनेकान्तवाद का तात्विक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण 15. प्रो. दयानन्द भार्गव, लाडनूं क्या वेदान्त में अनेकान्त किसी सीमा तक स्वीकार्य हो सकता है? 16. डॉ. सुदीप जैन, दिल्ली वैचारिक सहिष्णुता का सिद्धान्तः अनेकान्त 17. साध्वी शुभ्रयशाजी संवेगनियंत्रण में अनेकान्त की भूमिका श्री शुभू पटवा, गंगाशहर भगवान महावीर का अनेकान्त श्रीमती मंजु नाहटा, कलकत्ता चित्रों में अनेकान्तवाद 20. डॉ. एच.आर. दास गोड़ा, बैंगलोर अनेकान्त विलक्षणता 21. प्रो. गोपाल भारद्वाज, जोधपुर महावीर का अनेकान्त : कुछ पक्ष कुछ प्रश्न 22. समणी कुसुमप्रज्ञा नेतृत्व में अनेकान्त 23. डॉ. प्रद्युम्नशाह, लाडनूं अनेकान्त के सन्दर्भ में प्रो. एन. के. देवराज के प्रश्न एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के उत्तर 24. श्री हेमन्तकुमार डूंगरवाल, उदयपुर अनेकान्तवाद : एक समीक्षा __ इस संगोष्ठी में पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी, युवाचार्य महाश्रमणजी एवं साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी का सान्निध्य रहा । आचार्यश्री ने अनेकान्त दर्शन के सूक्ष्म तथ्यों को समझने के लिए समय-समय उसकी विशद व्याख्या की। अनेक दार्शनिक, सैद्धान्तिक, व्यावहारिक पक्षों से जुड़े प्रश्नों का सटीक समाधान हुआ। आपने कहा कि हम भगवान महावीर के जन्म कल्याणक महोत्सव को मात्र रैलियाँ एवं नारों में सीमित न करें। जन-जन में महावीर के दर्शन के विविध पक्ष जैसे अनेकान्त, अपरिग्रह और अहिंसा का व्यापक प्रशिक्षण मिले। संस्थान के कुलपति भोपालचन्द लोढ़ा जी ने इस अवसर पर अनेकान्त की सारगर्भित व्याख्या करते हुए इस संगोष्ठी को जैन विश्वभारती संस्थान द्वारा तीर्थंकर भगवान महावीर के 2600 वें जन्मकल्याण महोत्सव के प्रसंग पर देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आयोज्यमान अनेकान्त संगोष्ठियों की श्रृंखला में प्रारम्भिक अनुष्ठान बताया। इस संगोष्ठी की संयोजना में संस्थान के कुलसचिव डॉ. जगतराम भट्टाचार्य, डॉ. बच्छराज दूगड़ तथा डॉ. जिनेन्द्र जैन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा । कार्यक्रमों का संयोजन डॉ. मुमुक्षु डॉ. शान्ता जैन, डॉ. जे.पी.एन. मिश्रा, डॉ. जिनेन्द्र जैन, डॉ. अशोक जैन ने कुशलता पूर्वक किया । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 20010 N 119 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगोष्ठी एवं कार्यशाला आचार्य महाप्रज्ञ का साहित्य एवं चिन्तन (10-12 मई, 2001) आचार्य महाप्रज्ञ एक ख्यातनामा चिंतक, दार्शनिक,अध्यात्म योगी एवं लेखक हैं। आपके बहुमुखी चिन्तन ने समाज के हर क्षेत्र की समस्याओं का संस्पर्श कर समाधान के सूत्र दिये हैं। आपका चिन्तन आदर्श और व्यवहार का सुन्दर समन्वय है, जिसे संबंधित क्षेत्र में क्रियान्वित कर समस्याओं से संत्रस्त समाज एवं विश्व को त्राण मिल सकता है। ऐसे चिन्तन को जनोपयोगी एवं सर्वव्यापक करने की दृष्टि से अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग ने उनके साहित्य एवं चिन्तन पर 10-12 मई, 2001 को श्री डूंगरगढ़ में एक त्रिदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया। संगोष्ठी में महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ का पर्यावरणीय चिन्तन, आगम सम्पादन एवं साहित्य पर आधारित विशेष शोध पत्रों का वाचन हआ | संगोष्ठी में कम्पट्रोलर एवं ऑडीटर जनरल के मुख्य सचिव प्रो. एम.सी.सिंगी, पूर्व प्राचार्य एवं अर्थशास्त्री, प्रो. एस.सी. जैन, महाविद्यालय समायोजक प्रो. नलिन शास्त्री, शिमला विश्वविद्यालय के संकायाध्यक्ष प्रो. राजेन्द्र मिश्र, प्रसिद्ध चिन्तक एवं दार्शनिक नन्दकिशोर आचार्य, प्रो. दयानन्द भार्गव, सहायक निदेशक, गांधी संग्रहालय के डॉ. ए.डी. मिश्र, बीकानेर के परिमण्डल अधिकारी डॉ. ए.आर. नियाजी, प्रसिद्ध पर्यावरणकर्मी एवं स्वतंत्र पत्रकार शुभू पटवा सहित संस्थान एवं देश के 19 संभागियों ने भाग लिया। वर्तमान चिन्तन की सीमाओं को उजागर करते हुए महावीर के अर्थशास्त्र पर चिन्तन हुआ। चिन्तन में यह विचार उभर कर आया कि महावीर बढ़ते उत्पादन और तकनीकी विकास और आधुनिकीकरण के विरोधी नहीं थे। उन्होंने आर्थिक समस्याओं की जड़ें त्रुटिपूर्ण उत्प्रेरण एवं अभिप्रेरणाओं के प्रदर्शन में बतलाई है। वे इस ओर भी सजग थे कि ये स्थितियां आर्थिक चिन्तकों की संकीर्ण दृष्टि के कारण हैं जो अल्पकालिक चिन्तन करते हैं। महावीर ने पुनर्जन्म की अवधारणा द्वारा एक व्यक्ति को सुदीर्घ काल तक जोड़ा जिससे वह पोषणक्षम विकास के लिए अधिक उत्तरदायी हो सके। क्योंकि संसाधनों का दोहन उसके स्वयं की भविष्य की प्राप्तियों को सीमित करेगा। महावीर की इस दृष्टि ने व्यक्ति और समाज के बीच संबंधों को सामंजस्यपूर्ण किया। साथ ही महावीर ने भौतिक उपभोग पर भी स्वैच्छिक सीमाकंन किया। इससे संसाधन स्वतः उनके पास पहुंचेंगे जिन्हें इनकी आवश्यकता है। 120 AINITION NI TIN तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यावरणीय चिन्तन पर विमर्श के अनन्तर यह स्पष्ट हुआ कि पर्यावरण संरक्षण का संकट मानस और नीति बोध के संकट काल की बहिर्गत प्रव्यक्ति है। इसके अर्थबोध की अवधारणा में अब कोई ऐसी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए जिससे मात्र यह समझा जाये कि मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ है, शेष सब भोग्य है। पर्यावरण वन्य प्रजातियों, मानव निर्मित कुरूपताओं और प्रदूषण से जुड़ा एक मसला भी है। ये इसके अहम हिस्से अवश्य हैं पर मुख्य रूप से यह संकट हम सब जीवधारियों से जुड़ा है और इस परिहास से जुड़ा है कि जद्दो-जेहद में हमारे कार्य-कलापों की सीमारेखा नीति बोध की सीमाओं में रहनी आवश्यक है। आचार्य महाप्रज्ञ प्रत्येक प्राणी की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास करते हैं, मिट्टी, पानी, वनस्पति आदि सभी जीव हैं और उनके अस्तित्व को स्वीकार करना स्वयं के अस्तित्व को स्वीकार करना है, दूसरों के अस्तित्व उपस्थिति, कार्य और उपयोगिता को स्वीकार करने से ही पर्यावरण संरक्षण और संतुलन की बात सोची जा सकती है। संगोष्ठी में आगम एवं अन्य साहित्य पर भी सुरुचिपूर्ण एवं गम्भीर चिन्तन हआ। संगोष्ठी के निष्कर्ष के रूप में यह बात उभरकर सामने आई है कि अर्थशास्त्रीय चिन्तन में व्यक्ति को केन्द्र में रखकर सोचा जाए, क्योंकि उसे परिधि में रखने से ही आर्थिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सृष्टि में संतुलन है। दूर जीव जंतु का सृष्टि में होने का एक अर्थ है । यह अर्थ सृष्टि संतुलन की व्याख्या करता है। सार्थक में व्यर्थ की मान्यता सृष्टि संतुलन को बिगाड़ रही है। व्यक्ति हर प्राणी के स्वतंत्र अस्तित्व को केन्द्र में रखकर सरल, संयमपूर्ण एवं स्वैच्छिक सादगीयुक्त जीवनशैली अपनाये तो संतुलन स्थापित किया जा सकता है। अन्त में संगोष्ठी में महावीर का अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि विषयों पर स्वतंत्र संगोष्ठियों के आयोजन का निर्णय हुआ जिससे इन विषयों पर समग्र विचार ही नहीं बल्कि उन विचारों पर आधारित ढ़ांचा भी तैयार किया जा सके। कार्यशाला उच्च शिक्षा में मूल्यों का उन्नयन (15-16 मई, 2001) मूल्यविहीन शिक्षण की संकल्पना तो नहीं की जा सकती, किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यों की अवनति पर शिक्षा सम्बन्धी आयोगों एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति में चिन्ता व्यक्त की है और शिक्षा में वैश्विक एवं शाश्वत मूल्यों को समाविष्ट करने पर बल दिया गया है। उच्च-शिक्षा में मूल्यों के प्रोत्साहन देने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई योजनाएं बनाईं और उन्हें क्रियान्वित भी किया, किन्तु इन प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करणीय शेष है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIMIT INITII III 121 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्च शिक्षा में मूल्यों के उन्नयन हेतु एक कार्यशाला का आयोजन अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग द्वारा 15-16 मई को श्रीडूंगरगढ़ में हुआ । यह कार्यशाला अक्षय तृतीया प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा प्रायोजित थी । कार्यशाला में डॉ. ललित किशोर, पूर्व निदेशक, लोक जुम्बिश, रमेश थानवी, सुरेश पंडित, प्रो. महावीरराज गेलड़ा, प्रो. नलिन शास्त्री, डॉ. राधाकृष्णन, उच्च-अध्ययन संस्थान के एम. एल. जांगिड़, एस. जी. शर्मा, डॉ. सम्पत जैन, आई.आई.टी. दिल्ली के डॉ. संजीव जैन, प्रो. डी. आचार्य सहित संस्थान एवं देशभर के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । कार्यशाला में यह चिन्तन हुआ कि शिक्षा और जीवन को अलग नहीं करें। ऐसी शिक्ष अपेक्षित है जो जीवन से जुड़े। शैक्षणिक संस्थाओं का आपस में अलगाव तथा व्यक्ति जीवन और उसके आंतरिक चेतन से अलगाव उच्च शिक्षा के ज्वलंत मुद्दे हैं। इसके लिए सहयोग, परस्परता, परस्पर आदर, विविधता का आदर, स्व विकास, स्वयं में एवं परिवेश शांति के मूल्य अपेक्षित हैं। इन मूल्यों के संकट के अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा, अवसरवादिता, स्वार्थ, ज्ञान में हिस्सेदारी का अभाव, बहिर्मुखता, गर्व आदि प्रतीक हैं। संकट का कारण अप्रासंगिक पाठ्क्रम शिक्षा विरोधी प्रशासन, उबाऊ शिक्षण पद्धतियां, जागरूकता का अभाव आदि घटक हैं। मूल्यों के उन्नयन के लिए अभिभावक और शिक्षक के बीच केन्द्रीय अर्थपूर्ण संवाद, संकट से जुझने के लिए स्वयं को तैयार करना, संबंधों का विकास स्वयं सीखना आदि आवश्यक है । मूल्यों के विकास के लिए स्वाध्याय, समूह निर्णयों में सहभागिता, समूह शिक्षणशिविर, योग एवं ध्यान पर आधारित प्रयोग आदि - प्रविधियों का निर्माण आवश्यक हैं। ऐसे प्रयत्नों से विद्यार्थियों में मूलभूत परिवर्तन दृष्टव्य होंगे। जैसे- वे नियमित होंगे, सामाजिक एवं प्राकृतिक संकटों से जूझने की क्षमता वाले होंगे। सहयोग की प्रवृत्ति बढ़ेगी । कक्षाओं एवं पुस्तकालय में अधिक उपस्थिति होगी। शिकायतें कम होंगी। स्वतः शिक्षण, सृजनशीलता, नम्रता और संवेगशीलता का विकास होगा। कार्यशाला का उद्देश्य मूल्यों के उन्नयन हेतु प्रयोग विधि पर विचार कर सर्वसम्मति प्राप्त करना था। कार्यशाला इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल रही। संगोष्ठी एवं कार्यशाला दोनों कार्यक्रमों का सफल संयोजन डॉ. बच्छराज दूगड़ ने किया । 122 तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Economics of Mahaveer* - Prof. M.C. Singi Economics is a dynamic science and has been evolving continuously. It has, however, core concepts which have universal applicability. Every human society has to confront and answer three fundamental and interdependent questions. What commodities to produce, how shall they be produced and for whom shall these be produced? These have been the core of dynamic economic science. While these problems have been universal, their solutions have varied from place to place, person to person and from time to time. The question of what, how and for whom arises because of scarcity of resources. Even the concept of optimal utilization arises because of their finite nature. No society has reached as yet an utopia of limitless possibilities. Some of the resources, however, could increase over time and for others technology, innovation and ideas could increase production potential. But none-the-less appropriate allocation has remained central to economics. Market as the arbiter and allocative mechanism Some economists have visualized market as the institution, which solves this puzzle. Rational producers and consumers motivated by their self-interest strike the exchange. Modern day mainstream economist largely believes in this invisible hand. But there are others who consider the market as an imperfect institutions, impersonal and inhuman at times, because it weights individuals in terms of their material possessions. Collapse of the Soviet Union has, however, made these dissenting voices less louder and that of a minorty. Market is getting revisited now and a new rationale seems to be emerging. This reminds one of the famous worlds of Adam Smith. He said, "Every individual neither intends to promote the general interest nor knows how much he is promoting it. He pleads only his own security, his own AH Y511 97791-79, 2001 W |||||||||| M W 123 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gain. And he is in this led by an invisible hand to promote an end, which has no part of his intention. By pursuing his own interest he frequently promotes that of the society more effectively then when he really intends to promote it." Indeed in last two decades or so market has become the gospel and the Wealth of Nations the bible of modern economists. Achievements of these market-oriented economies are by no means meager. In nearly 225 years after Adam Smith wrote his Book, the per capita income levels has increased over hundred folds. Industrial and technological revolution has increased comfort levels to unprecedented heights. World has become a global village and geography has become a history Is this success an unqualified one ? Income is not an end in itself. The quantum growth is not all that one aspires for. In the over enthusiasm for quantum of growth in aggregate, attention given to its structure and quality has been rather scanty. For most people and for many countries, it has been a job less growth-stagnant employment; ruthless growth-deepening poverty; voice less growth-without any empowerment; rootless growth-growth with loss of identity and futureless growth-growth limiting options for future generations. J.K. Galbraith of Harvard, for over four decades has been challenging the consumers, firms and markets. He has said, “The idea that small firms are responsible for much of production, or that small investors bring forth the major inventions is a convenient myth designed to perpetuate the belief in the market system. The outcomes of the market are determined as much by the Madison Avenue as by the genuine needs. Ours is a society where roads crumble, bridges collapse while private sector lives high on hog." Why alternatives to market also failed to deliver Earlier Marx, Ricardo and Malthus in different ways attempted to show how the capitalist economy is on its way to an inevitable rendezvous with pervasive poverty. While both Ricardo and Malthus became economist of pessimism, Marx conceived of another ism". This was a new way of organizing production and exchange. Marx failed despite an emotional appeal to his concepts because he also could not devise any alternate motivating mechanism. It only changed the weighting diagram from material possession to nearness to power. It has no incentive mechanism and no safeguards against information asymmetry and moral hazard. Built essentially on hatred to a class, the socialism disintegrated rather quickly. 124 MIT 310h 111-112 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The criticisms of Marx and later insights of Keynes had some sobering impact on the blatant capitalism. State intervention to correct market failures, setting up of regulatory and market disciplining institutions, institution of social security interventions and capital transfers from rich to poor countires or to disadvantageous regions and groups came to be regarded as acceptable distortions in a free market. But even these virtuous interventions left the incentive mechanism and motivation paradigm rather unchanged. These, therefore, did not touch the core and remained peripheral. How is Mahaveer different ? Lord Mahaveer was not constrained by the other economists lack of comprehensiveness. Economics was a part of his concept of total way of life. Mahaveer did not oppose increasing production. Nor did he oppose the technology upgradation or innovation. He rightly visualized that the root of the economic problems lied in the faulty incentive system and its motivation paradigm. He was also aware that this has been due to narrow vision of the economic agents, which gets reinforced due to their shorter time horizon. Mahaveer linked the individual inter-temporally with himself through a generation of births and deaths. This made the individual more responsive to the sustainable growth because any exploitation would only limit his own endowments in future. It automatically corrected the incentive system and the motivation paradigm. This approach of Mahaveer harmonized the relation between individual and the society. Simultaneously, Mahaveer also proposed selfimposed restrictions on individual consumption. This naturally facilitated transfer of resources to production of essentials. There was also greater accumulation at the level of society, which improved general endowments reducing the deprivation at the level of individual and consumption inequalities. Mahaveer's diagnosis of ills of the society was not constrained by time, space and pace of development . It was universal and for all times to come. His economics was, therefore, neither the economics of greed or economics of pessimism. It was neither blatant capitalism nor proposal for a command society. There was no hatred and no class war. Development Ecnonomics is a jigsaw puzzle, said Albert Hirschman. But in any puzzle, once a central figure is placed properly, every other piece could fall automatically. Lord Mahaveeer, also identified that central DHA Y511 547-5757, 2001 AUWUWM W 125 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ figure, a self-imposed ceiling on personal consumption, and every thing else became clear. It solved the problem of what, how and for whom. It corrected the bias in the weighting diagram, which was the material possession in the capitalist system and nearness to power in the command economy. The economic development became sustainable, harmonizing the interest of present and future generations and more equitable. It is time when we revisit the Mahaveer. But before conclude, let me say, Mahaveer was not the first economist. Much before him, Lord Rishabh, brought into focus the ideas and objects. He taught the art of cultivation, of governance, of learning, of innovation and limitation. But he did not seek any "economic rent". He brought them into the domain of society, which improved endowments of every one. Mahaveer, also by linking individuals inter temporally and the self imposed restrain on personal consumption corrected the materialistic bias in the production and exchange mechanism. He shifted accumulation to the public domain. His approach, therefore, visualized sustained growth, more equitable growth and a new economics based on values. This was contemporary and continues to be relevant today. Paper presented in National Seminar on "Acharya Mahapajna Ka Sahitya Evam Chintan" (10-12 May, 2001) 126 A |||||||||| JIW JAHT 4511 310 111-112 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Moral and Personal values in Human Behaviour* www Behaviour is the responses made by an individual towards different stimuli. To modify the behaviour of an individual, education is the most important tool in the hands of a society. Rashmi Dhar Since ancient times, religion has been the basis of Indian education. In 1882 for the first time Hunter commision officially opposed the introduction of religions in education. Then by Indian Universities Commission in 1902, Calcutta University Commission (1917-1919) gave similar views. In 1938 under 'Vardha Plan' Gandhiji was of the opinion that the truth implicit in all religions should necessarily be imparted to the children. Religions should inspire and be infused into every kind of education. Religious and Moral instructions are of basic importance in the formation of character. In 1958 Dr. Radhakrishanan Commission suggested that in all educational institutions daily Morning Prayers should be conducted. Knowledge about lives and teachings of world famous religious leaders, special features of different religions and religious philosophy should be imparted in Higher Education. Sriprakasha Committee (1958) felt the need for moral and religious education. Religious and spiritual values should necessarily be developed. Separate text books for moral instruction should be prepared. The Kothari Commission (1964-66) has said that the inculcation of spiritual, moral and social values is essential for national development. Today, weakness of social and moral values in the younger generation is giving rise to many social and moral conflicts in our society. Knowledge and skill should be balanced, science and technology should be brought into relationship with morality and religion. The meaning of life should be understood. Human relation should be understood and the real truth should be widely published. Why we are not being successful in improving our social system by inculcating proper values among youth through higher education. तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 127 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To understand the meaning of Values, it can be said that values are those directing and controlling aspect of behaviour depending upon the importance given by individual to various social beliefs, ideals, theories and behavrioural measures. On the basis of values individual selects one a number of alternatives. Carl Roger believed that it is the quality of showing preferences by man. Allport emphasized that values play important role in making decision. Each and every activity of an individual has the impact of personal and social values. Values are those general and abstract qualities of an object which indicate towards its importance. Personal Values and social attitudes permit the individual a high degree of consistency in his behaviour. Attitudes and values are mediational states within the individual predisposing him towards certain courses of action and towards certain beliefs and evaluation. History has repeatedly demonstrated that a society is no stronger than the personal values system it embraces. When a child fails to acquire the personal values characteristic of the society in which he lives, he suffers social conflict directly or indirectly. The transmission of appropriate Personal Value is, therefore, an extremely important phase of educational guidance. To live harmoniously in a given society to different kinds of personal values are required to be developed in student. (i) Values that are related to the relative desirability of different goal objects and (ii) Values that pertain to the relative desirability or undersirability of stable patterns of behaviour. These two types of values define the essentials of civilized patterns of living. They determine the goal objects and style of life for which individuals strive. Personal Values should not be underestimated, they are powerful forces in an individuals behaviour. Parents and teachers have the responsibility for transmitting those goal - object values that have been proved to be most helpful and comforting to man during his cultural history. The Personal values that guide individual behaviour may be acquired to a greater extent by direct teaching. Two meanings can be attached to the term Value. The primary meaning is to prize/to esteem and secondary meaning is to appraise and to estimate. From these, two descriptions of values emerge. In the first sense it is the act of cherishing something, holding it dear and also the act of passing judgement upon the nature and amount of its value as compared with something else. It is what is desired. In second sense it means to evaluate or to estimate. It is 'What is desirable'. Desires are simple expressions of urges and it is a common fact that everything an individual desires is not desirable. These can be elevated to the level of desirable by Education which inculcates liking and intelligent likings in an individual. It is an established fact that individual makes distinctions. We like something and dislike others. We judge some actions good or others bad, some beautiful others harmful. It is the presence/absence of certain 128 AUD I T W W W THAT Y511 3106 111-112 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ properties or qualities on the basis of which we tend to assume why some articles are good/beautiful and others are bad or ugly. Whenever we choose to reform an act we do so because (1) we have decided that is the right thing to do, it is what we ought to do, it is a claim which we acknowledge or (2) we choose it because of all available alternatives, it is the best thing to do, it will lead to more satisfying consequences. Questions of 'right' and 'ought' are distinctly moral questions. Question of better and worse are not always moral questions but may be raised about any type of value aesthetic, economic, recreational or social. This means we ought to choose the greatest value in any field, that we have a moral duty to realise the maximum of value. Moral - ethical values are generalised guides by which individuals judge the reasonableness and appropriateness of their relationships with mankind. They include honesty, kindness, loyalty, fair play, respect for property of others, respect for human life. The manner in which a particular individual interprets these moral ethical values in his daily living determine his character. Self-determination, Self. -realization and Self-integration are dimensions of the good life. When the person chooses in accordance with these principles, he has the best chances of realizing the maximum of value. They refer to the form, that we give to our choices in weaving the fabric of life. It was found that "Ideal self of children is heavily influenced by association with adults who by their positions of prestige can secure 'the desirable things of life'. The inference is clear that schools, religious places and social serving agencies influence the ideals of youth by the presence and behaviour of teacher, religious leaders through their verbal teachings. The value of an act lies in the object or in the relation among objects in such a way that it can be known and judged. The proposition 'This appears beautiful' can never be false if the speaker is not deliberately lying. The source of value lies in the relation between the structures of things and the structure of human nature. Value education involves (1) Perspective (2) Deliberation. (1) Perspective is the value scheme the list of priorities that a man acts out in his life from hierarchy of values. Within each value area there can be a set of priorities and there can be set of priorities among the values areas. (2) Deliberation: It is the process of selecting among value alternatives. It uses knowledge already acquired knowledge of both fact and value. Value education has two components (1) Test outcome-refers to a behaviour sample that tells us whether the instruction just completed by the school has been successful (2) Life outcome-refers to a style of behaviours in which a person acts his daily activities in a distinctive way. Like secondary/sociogenic needs values are also learnt during ones life time. As we know education is the tool to modify an individual's behaviour, become the duty of education institutions to inculcate values in such a तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, د. 2001 129 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ manner that congenial atmosphere in the society should be maintained. In higher education when students enter the educational Institutions with mature mind, more emphasis should be given on life outcome of education (1) Such deliberative tasks should be included within the scope of instruction which assure that success in school will promote success in life. (2) Different disciplines should be taught in converging ways of describing and appraising life styles of value schemes. (3) Problems of society and self should be highlighted. (4) Personal values should be inculcated in such a manner that individual is able to derive maximum out of each value area keeping in a mind the moral and ethical code of our society. (5) Higher Education should guide the students to understand our own values and values pertaining in various cultures around the world, because in the modern era of rapid transportation and information technology people are exchanging ideas carrying out trade and working for world peace. (6) In teacher-education programmes pupil teacher should be trained in the use of different tests of values to assess economic, health body and recreational social moral, aesthetic, intellectual and religious values of students. During their course of study they should be made fully aware of the factors which influence the development of values among children. These factors are each child is the bearer of unique pattern of abilities, achievements and possibilities and secondly the child upon entry into the first grade is already well stocked with preferences, predispositions, and tastes due to the effect of home friends, movies, T.V., and comics on other story books. In brief, it can be said that in addtion to inculcation of social, moral and spiritual values, personal values should also be given emphasis in higher education. Studies have found that personal values relative desirability of different goal objects and relative desirability or, undesirability of fairly stable patterns of behaviour eg. being honest, going to a religious place, kindness, loyalty, fair play, respect for property of other and respect for human life can be imparted to an individual through verbal instructions. Self-determination, self realization and self-integration give boost to personal values because these motivate the individual for good and satisfied life. In higher education along with the knowledge of social values religious values, moral values and personal values, skill in all these value areas should also be inculcated within the students, by including these in the graduation, post graduation and teacher training courses and implementing it through effective instructional models. Paper presented in Work Shop on Promoting Values in Higher Educationä (15-16 May, 2001) 130 A || W W W TIGHT 451 310 111-112 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education and Religion Prof. Musafir Singh Asutosh Pradhan The relationship between education and religion is a complex one and somewhat difficult to delineate. It can be envisaged from varied angles each having its own implications, both positive and negative. One view is that religion has no place in education and should it be given a place, consequences for education itself and society at large would be dangerous and disastrous. The second view is that organised religions embody one of the noblest achievements of man and, therefore, it is imperative that they be taught as a major discipline in centres of higher learning. The third view is that religion is an indispensable aspect of human life, a great humanising and divinising force, and as such, it must be accorded a place of honour in the university curriculum not in its codified form but in its essential form. The fourth view may be that only such dimensions of religion should be made part of higher education as are consonant with and corroborated by the latest advances in modern science and are helpful in solving and resolving contemporary human problems and predicaments. We shall examine in some depth and detail each of these positions and highlight their front and flip sides. A. Religion as a baneful influence Those who are opposed to the introduction of religion in education find innumerable faults with it. To them religion is a great obstacle to the progress of knowledge as it commits its followers to truths which are taken as apodeictic and ultimate. The religionists maintain that revealed truths of scriptures are sacrosanct and to question them or to propound any doctrine incompatible with them is sacrilegious. This defeats the very aim of education which is to encourage open mindedness and relentless pursuit of truth without pre-conceived notions. The codified religions represent an atavistic throwback, they restrain and constrain the forward movement of the human spirit. They keep the human mind bogged down in a mystique IMG 4511 HHR-511, 2001 AU W 131 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of antiquated beliefs and crass superstitions, occultism, obscurantism and dogmatism. They destroy cognitive dynamism and breed bigotry and fanaticism. They divide mankind into warring camps and spawn communalism, fundamentalism and terrorism. They contain unsavoury historic memories, which tend to extinguish all hopes of harmony and peace in the present. Organised religions foster a culture of intolerance and hostility and preach expansionism by taking recourse to proselytisation through force, deceit, fraud, coercion and inducement. Traditional religions had no scruples in traducing and pillorving the science and are still the greatest anti-theses of scientific temper and scientific worldview. They work as inhibiting factors in the development endeavour by adulterating the mind with other-worldly picturisations. They debilitate and impoverish the human spirit by alienating all human powers and projecting them on to chimerical entities. They exhibit greater concern and commitment to the improvement of the next world than this world, to the betterment of an imaginary future than the concrete present. Religions dehumanise man by subordinating him to idols, ideas and symbols in the name of the supernatural and castrate him of his human essence. They have always aligned themselves with the ruling elite, have been its ideological mouthpiece and articulator of its class interest. Thus, religion, if allowed to permeate the educational ethos in these crude forms, the cause of education would suffer an irreversible damage. Modern education has emancipated man from the octopus-like hold of superstitions, antediluvian practices, cobwebs of false hopes and promises, inhuman indignities, injustices and all sorts of cruelties. Any religionisation of education would only buttress the cause of the ecclesiastical class that has mercilessly exploited the weaker and vulnerable sections of society, throughout history. However, this portrayal of religion, which is often the forte of the leftists and materialists, is not absolutely correct. Religion is a grandiose creation of man answering to many a dilemma intrinsic to his existential situation which we shall profile later. B. Religion/Theology as a Discipline It has taken umpteen centuries, even milleniums to build the edifice of religion and theology. Theology is the intellectual wing of religion, which is concerned with the articulation and justification of religious beliefs. Religion, both in its scriptural - normative form and anthropo-empirical form constitutes the warp and woof of social life. It contains a vast reservoir of knowledge and wisdom, which has served as a beacon light for mankind since the beginning of its history. This precious heritage cannot be relegated to the limbo of oblivion. Religion penetrates every pore of human existence, hence it cannot be dispensed with. Religion reigns and rules man's life from beginning to end and has become an integral part of it. It is responsible 132 A ll M y Cart 4511 310 111-112 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for social cohesion and solidarity by creating a universe of values and sentiments. No amount of anti-religious crusade, therefore, can exile religion from life. It has necessarily to be preserved, protected and propagated. There are seminaries, centres of theology/ashrams, which exclusively undertake these tasks. They delve deep into religious texts, provide new exegeses so as to empower them to meet the new challenges and sustain their relevance. There are also Institutes/Universities, which have full-fledged department/faculty of religion and theology, which not only teach but also conduct research stimulated by new advances in science and philosophy. Indian Constitution guarantees full freedom in matters of religion to establish religious institutions of one's choice with a view to studying, teaching, innovating and propagating religion. However, there is a dark side to this freedom to indulge in irrational, irresponsible pursuits, to popularise anachronistic beliefs and practices which definitely are antiprogress, anti-peace and even anti-national. It is the inescapable responsibility of government to checkmate these unhealthy developments so that our proud and positive achievements are not buried under their weight. Institutes/departments of religion rather should devote all their energy to highlight those facets of religion as a discipline which promote the ideals of tolerance, universal peace and understanding and human unity. In order to realise these goals, we have to identify and weigh the specific contribution of each component every codified religion has in some measure. Religion is a multi-layered phenomenon and not a monolithic structure. It has several components/sub-systems, which are organically related to and feedback upon one another and constitute a whole. Religion encompasses the full spectrum of human personality - its cognitive, affective and conative dimensions. Its cognitive domain includes i) some rudimentary science - cosmology ii) philosophy iii) mythology iv) symbology and affective domain, v) all varieties of devotional practices and the conative domain myriad rituals (karmakandas) which represent the external and most visible manifestations of the religious world-view. Besides these, there is a complex of institutions which, as if, house the religious spirit. Religion thus provides a holistic perspective which shapes the way of life, both individual and social. The mission of religion, no one would doubt, is to make life sublime, to lift it from animality to humanity and finally to divinity, to transmute it from the profane into sacred, from the mundane into transcendent. But sadly and tragically, the followers of religion, because of inherent human weaknesses, have mutilated and mauled the entire corpus of religion. It is not so much the cognitive domain which disturbs social tranquility; the villain of piece is rather the conative domain which triggers clashes and conflicts. Differences between cognitive structures of religions remain internal and abstract, they do not come out in the open in routine life, • तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 133 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ce. hence they do not provide the causal base for behavioural or institutional frictions. Even within a single religious system, there are many differing schools of thought which coexist peacefully and seldom precipitate tension situations. Institutions of higher learning will do well rather to encourage inspire different and diverse streams of thought, for, diversity and variety reflect the richness and creative elan of the human spirit. Adventures of ideas will always weave different strands of thought into one colourful cultural tapestry. It is the rituals, the external forms, which convert religion into religiosity, the elevating struggle of the individual spirit into degrading strife of group egotism. It is true that no religion can have a popular base without ritualistic formalities, but it is even more true that when essential truths of religion are lost sight of, religion decays and dies and all externalities turn into dead encrustation. Religion becomes a buoyant force, a powerful vehicle of peace and happiness only when people partake of its spiritual substance and not when they cling tenaciously to the observance of its inert and inertial customs and practices. It is, therefore, supremely important that university academia while teaching religion as a departmental discipline, lay greater emphasis on its ethico-spiritual contents than its outer paraphernalia. The department must emit light and fragrance to fill the whole environs and not foul odours that may vitiate its cultural ambience. C. Religon as an ethico-spiritual force Modern world inspite of its scientific and technological marvels and super affluence suffers from manifold affliction and it is enmeshed in a formidable predicament, its own unintended creation, out of which it is helpless to wriggle out. It is a confused and confounding world wherein man is overwhelmed by an acute feeling of meaninglessness and powerlessness. Its lebensraum has become a Bermuda Triangle constituted by three ineluctable forces of alienation, ennui and anomie. The ontological reductionism of materialistic science has deprived man of its spiritual centre and rooted him to the soil of carnal passions. Man has a body but he is not a corporeal being; he has material needs but he is not circumscribed by these needs. He is conditioned by his temporal and historical situation but he has the capacity to transcend all limitations. He is a denizen of the earth but he is endowed with extra-terrestrial powers. He is a being, which is not closed but ever dynamic and evolving. It is his aspirations and not his tissue needs that constitute his essence. His life is a ceaseless adventure to seek and realise the supreme values of truth, goodness and beauty. It is these values which give meaning to man's life. Without them life would become a rudderless boat drifting along the current of becoming without any aim or destination. Religion confers meaning upon life and gives it a direction by providing an explanatory framework for all existential questions 134 ll W TAI EU 310 111-112 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in the nature of 'Why'. Man, because of the imperatives of his nature, cannot survive in a disenchanted world brought about by the inexorable forces of technology and an exclusive paradigm of classical science. He can be beguiled by the allurements of material comforts vouchsafed by technology for a time but cannot be imprisoned permanently within the coils of consumerism. His indomitable spirit is destined to break loose of all shackles imposed by lower passions and pursuits. It is the dynamo of religion that furnishes man with the requisite power and energy to follow relentlessly his spiritual trajectory inspite of all odds and hazards. The present-day unenviable scenario of human condition is directly traceable to the fall of man from his primordial position. It is surprising that man despite thousands of years of historical evolution, still behaves like an anthropoid ape. The unprecedented spectacle of violence and cruelty perpetrated by man towards his own fellow beings and the flora & fauna of nature, the reckless spoliation and destruction of the life support systems and such other ugly phenomena owe their occurrence definitely to the degeneration of human nature. The golden rule of balancing the extremes of norms and behaviour which religions have been teaching and preaching since times immemorial has been violated non-chalantly. Man possessed of the super power of technology is riding roughshod over the universe of values. A poignant situation has been created; an impending apocalypse stares us in our face. It is religion alone that can provide a glimmer of hope in these hours of darkness and dismay. Without ushering in an ethicospiritual renaissance, there seems to be no other strategy available to man to address the nightmarish situation and education has a crucial role to play in this episodic affair.. All disciplines falling within the bailiwick of physical, biological and social sciences must have a value underpinning, Sciences' claim of axiological neutrality is no longer a tenable proposition at a time when the world is heading towards a precipice. The religious spirit must pervade all subiect-specific curricula. A value framework must be developed for all subjects within which their study should be pursued. Education is the most efficient and proficient medium that man has evolved for value creation, preservation, and transmission. It is only at the level of higher education that conscious assimilation of value is possible; however, the seeds can be implanted at the primary and secondary level. The world will look totally transformed when value-imbued youths inhabit it and influence the course of events. Religion has been the fountainhead of all moral values. Without intense practicing of moral values no spiritual headway is possible. That is why all religions have made morality as the sheetanchor of spiritual progress. However, it is high time to realise that morality is the pre-condition not only of a spiritual development but all kinds of development. DAN 4511 97227-1, 2001 AUW W 135 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Development in order to be enduring and sustainable must have a moral base. Development without a moral bedrock would only be lopsided, unjust and fraught with perilous possibilities. The engine of development is knowledge and technical skills which centres of higher learning generate and disseminate. It is incumbent that these centres undertake the same assiduous exercise in respect of ethical values also, for knowledge without value is content without form and value without knowledge is form without content. Therefore, our Institutes and Universities must be the creator and preserver of knowledge and value both and in the same measure also the destroyer of ignorance and disvalues. Our polity is secular in consonance with the spirit of our Constitution. Though ideally it purports to inculcate equal respect for all religions, scientific temper and rational mindset, in actual practice, it has somehow undermined the status and significance of religio-spiritual world-view. Life to be lived in all its splendour and richness must be guided by a holistic paradigm which is nothing but an integral synthesis of science and spirituality. It is the sacred obligation of education to work out this synthesis in a viable and effective manner. Religion and education have one very conspicuous and identical role i.e. the making of man. Religion has always enjoined that man must overcome his animal nature and become one with his human essence. It has always exhorted that human existence; even though bound by a chain of causal nexus is free, for, causation and freedom are not contradictory. Therefore, man is a free agent of his own self-transformation. Man's evolutionary journey is not yet finished; he is an eternal pilgrim on the path of spiritual evolution. In fact, all religious practices have been evolved and prescribed with this end in view i.e., to propel man in his upward movement. Any society or civilisation, that ignores this evolutionary dynamics, is unwillingly digging its own grave. Education in India has always meant vidya i.e., that which liberates, emancipates man from ignorance, bondage and all kinds of conditionings and sets him free to ascend to the empyrean heights. Education and religion, therefore, if they come together, fuse with each other, may become a mighty, magic force of human transmogrification. In order to accomplish this objective, however, it would be necessary to purge religion of all its excrescences, its narrow and sectarian features, and its crude and mythical trappings. Every religion has a denominational shell into which its followers are born. Man cannot remain cribbed and cabined in this shell forever. The evolutionary urge must impel him to cra shell and emerge into the sunshine of the spirit in order to have a dialogue with his own existential destiny. Man, thus, is a twice-born being, the first birth is by necessity and the second by choice, the first into the physical world, the second into the spiritual world. Religion, therefore, has helped education a great deal by positing before it the highest goal of life. If education, 136 AM WILDUN Á Fil 31c5 111-112 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ under compulsions of extraneous considerations becomes oblivious of these religious messages, it will not only forfeit its own raison de trebut may land the humankind into an irretrievable tragic situation. The modern man is going astray, has deviated from his natural orbit, disobeyed the commands of his conscience and indulging in pursuits which are alien and inimical to his nature. He is accomplishing the unimaginable, attempts to usurp the power and role of the almighty, is wallowing in plenty, has reached the acme of grandeur and glory but his being is languishing and seems to suffor ale persone gelirano Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ve. meaning and both have been and will be perennially inter-woven in the fabric of human history. Religion and science no longer stand as antithetical entities trying to oppose each other as sworn enemies as happened prior to the advent of the 20th century. Religion and science now display a strange convergence, which was unbelievable only decades back. Science has now entered into the realm of the ultimate, which has been the domain of religious quest since the very origins of religions. The search for the ultimate truths now seems to be a joint enterprise of science and religion. Therefore, it is imperative that education accords a place of as much honour to religion as to science in its universe of discourse. Any curriculum inspired and constructed exclusively by the spirit of classical science and showing apathy and indifference to the authentic spirit of religion is likely to be skewed and counterproductive. The intellectual arrogance of science has turned into an intellectual diffidence before the inscrutable nature of reality. For science also reality has become indescribable and imponderable. Science too has learnt to wonder at the mysterious nature of the universe. This wonder in the case of religion had always been the parent of adoration; it is becoming so now in the case of science also. The questions concerned with the ultima thule such as 'how' and 'why' of the universe, death and destiny of man, life hereafter, infinity of space and time are equally baffling to science as well as religion. It is only through a cooperative endeavour that their answers could ever be discovered hopefully. Scientific epistemology is no longer considered capable of unraveling the paradoxical nature of reality, it must be complemented by mystic intuition and revelation of religion. Albert Einstein was aware of the cardinal role of religion in attempting to comprehend the nature of reality. He used to say that science without religion is lame and religion without science is blind. It is, therefore, essential that a creative synthesis of religion and science be evolved to provide a proper guidance to the bewildered humanity and no area of human striving is more appropriate and competent than education to accomplish this task and in this task lies the succour and salvation of man. Conclusion Religion is an expression of man's existential urge which cannot be banished through the use of force or the propagation of a materialist ideology. It is an answer to man's fundamental problems that emanate from his position in the universe. In its spiritual essence, religion is a question of being & becoming and not believing as Vivekanand proclaimed. Its mission is to transform man into a spiritual being by imbuing him with the truths of the spirit, by making life conform to its laws and rhythms. Religious truths are not the effusions of a neurotic psyche but the discovery of a most sublime 138 AM||||||||||||||| W met 451 310 111-112 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ adventure of the homo sapiens. Religion is an experimentation with truth, an exploration and realisation of the highest reality. As such, it is a science par excellence in its own way. It is a mighty struggle of the human spirit to have a tryst with the unknown and the unknowable which modern science is repeating for the second time. This is illustrated by the intellectual modesty expressed by Einstein in his statement that the universe is an unopenable watch whose hands we observe moving but whose inside we can never comprehend. Education, therefore, cannot afford to give a cavalier treatment to religion. Our institutions of learning must be suffused with the aroma of religion and spirituality. It is not only in the subject-matter curriculum that religious values should be built into, but the whole educational environs should be surcharged with a spiritual vibration. It is, therefore, necessary that our students be exposed to the influences of divine personages past and present. The need of the hour is that our academia must recapture the spirit and ethos of our ancient ashrams where Parā and Aparā vidyas, the secular and the sacred learnings both went pari passu in a most harmonious manner. Science and religion are not exclusive of each other; in the present day scenario of chaos and disorder it is essential that a dialogue between them should be encouraged and their convergence internalised in thought and behaviour both. The world has been viewed as a large family by the Indians since the very origins of their culture. Our thinking and message have always been global. The today's process of globalisation can be beneficial to mankind only when it is free from a mindset of domination and exploitation i.e., when it is grounded not solely in selfish material considerations but in a philosophy of good and welfare of all (shreyas). There can be no 'justiceful' exchange between parties of unequal strength. Globalisation as it operates today may prove to be a dangerous proposition, if it is not guided by moral principles. It is, therefore, the duty of the centres of higher learning to fully spell-out its implications and issue a caveat about it, if called for. The preparation for world-wide placement must not mean development of technological expertise at the expense of values in the realm of higher education. In fact, globalisation postulates the need for a value-based education even more puissantly designed than ever before. Man cannot survive by the technology of human progress alone, his survival and salvation both rather depend on the development of a technology of human perfection also and the role of religion cannot be over - emphasised in this venture. * Musafir Singh, Professor & Head, Department of Social Work and Sh. Asutosh Pradhan, Asstt. Professor of Social Work, Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306 (Raj.) get l 4921-77, 2001 M W WV 139 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनम्र निवेदन किन्हीं अपरिहार्य कारणों से तुलसी प्रज्ञा का जनवरी से मार्च, 2001 अंक (पूर्णांक 111) यथासमय प्रकाशित नहीं हो सका । अतः इस अंक को संयुक्तांक के रूप में प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचाते हुए विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हैं । अगला अंक जुलाई से सिम्तबर, 2001 अनेकान्त विषय पर शीघ्र ही आप तक पहुंचाने का प्रयत्न करेंगे। साथ ही प्रबुद्ध पाठकों की विशेष मांग पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा लिखित आचारांग भाष्य (अंग्रेजी) को भी तुलसी प्रज्ञा के अगले अंक से क्रमशः प्रकाशित किया जायेगा। -सम्पादक 140AINTINITIN IIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Postal Department : NUR 08 R.N.I.No.28340/75 बुराई करने वाला अवश्य ही बुरा होता है पर बहुत अच्छा तो वह भी नहीं जो बुराई के भार से दब जाए। बुराई को पैरों से रौंदकर चलने वाला ही अपने मन को मजबूती से पकड़ सकता है। With Best Compliments From : AMIT - SYNTHETICS Shop: W-3207. Surat Textile Market Office: 402. Anand Market, Ring Road, SURAT-395 002 Phone : 622076,625680,622027 * Fax: 0261-636651 PEMCHAND CHOPRA CHARITABLE TRUST W-3207. Surat Textile Market, Ring Road SURAT THAMKUDEVI CHOPRA CHARITABLE TRUST 11-A, B, Sai Ashish Society Udhaua Magdalla Road SURAT प्रकाशक - सम्पादक - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन द्वारा जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के लिए प्रकाशित एवं जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर द्वारा मुद्रित Sain Education International