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युद्ध करना अनुज से यह, धर्म-संकट स्पष्ट है, अनुज आज्ञा को न माने, क्या नहीं यह कष्ट है पाश दोनों ओर, इससे मुक्त होना श्रेय है, हित बड़ा है इस जगत में, प्रेय आखिर प्रेय है।
सर्ग 14, पृ. 225-227 सुवेग नाम्ना दूत मति-सम्मति प्राप्त कर बाहुबलि के राज्य बहली देश पहुंचा | पूर्णिमा की अमल ज्योत्स्ना से जैसे आप्लावित सारा प्रान्त सुख-समृद्धि से पूर्ण था। सबके मुँह पर बाहबली की यशोगाथा थी। प्रहरी ने दूत को बाहबली के समक्ष प्रस्तुत किया। मातृभूमि से आगत दूत को देखकर बाहुबली के स्मृति पटल पर बचपन उभर आया । अग्रज भरत के साथ की एक-एक बाल-क्रीड़ायें याद आईं। मन में शत-बंधुओं का सुखद वृत्त-चित्र उभरा। पिता की गोद में बिताये क्षणों को स्मरण कर उनका मन हर्ष विभोर हो गया।
अतीत के मोहपाश से मुक्त हो बाहबली वर्तमान में लौटे। अयोध्या, भरत एवं प्रजाजनों की कुशल-क्षेम पूछी। निपुण दूत ने यथाअवसर अपने आगमन के उद्देश्य को स्वर दिये
भरत ने की विजय यात्रा, देव ! सबको ज्ञात है, विजय-उत्सव बंधुजन को, हो रहा अज्ञात है। ज्ञात होता तो भरत से दूर सब रहते नहीं, क्या विनीता पहुँच कर, दो शब्द मधु कहते नहीं? अनुज का कर्तव्य अग्रज, के प्रति प्रणिपात है, हंत ! अविनय की प्रतिष्ठा में पुरोधा भ्रात है। नीति से प्रतिबद्ध होता नृपति, न च परिवार से, मुकुट में है पुष्प कोमल, कर निभृत असिधार से । नीतिमय संदेश नृप का, देव ! अतिशय स्पष्ट है, मानता हूँ स्पष्ट की श्रुति, अनकहा-सा कष्ट है। मुकुट-मणिवत शीश पर, श्री भरत की आज्ञा रहे, सार है वक्तव्य वह जो, स्वल्प में सब कुछ कहे। नृपति की तेजस्विता का, आवरण परिवार है, सुत स्वजन का मोह, मधु से लिप्त असि की धार है। चक्रवर्ती चक्रवर्ती, भूप आखिर भूप है, सिंधु का विस्तार अपना, कूप आखिर कूप है।
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INITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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