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धैर्य है सम्राट का जो, सह रहा है आपको, सह न सकता शक्ति-विकलित, नर हुताशन ताप को ।
देव ! प्रार्थी हूँ क्षमा का, कर्णकटु यदि कह गया, विनय की अनुशासना में, पृष्ठगामी रह गया ।
बाहुबली ने उत्तर दिया—
दूत ! वाक्पटुता तुम्हारी, दे रही आहह्लाद है, ज्येष्ठ भ्राता के अहं का, अलग ही आस्वाद है।
ज्येष्ठ में यदि ज्येष्ठता हो, विनय बहुत प्रशस्य है, ज्येष्ठ गुरु-गुणविहीन हो तो, विनय में वैरस्य है। तात से हमने पढ़ा है, पाठ निज अस्तित्व का, और स्मृति पर उभरता है, पाठ वह कर्तृत्व का ।
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सर्ग 14, पृ. 237-240
बढ़ रहे हैं चरण पथ पर, दूत ! वे कैसे रुकें? नय - परिष्कृत सिर अनय के सामने कैसे झुके ?
सर्ग 14, पृ. 240-241 दूत सुवेग ने अयोध्या लौट कर सम्राट भरत के समक्ष बहली के मानस को रखाहै जागरूक जन, श्रम में गहरी निष्ठा, स्वातंत्र्य प्रेम की प्रतिमा प्राप्त प्रतिष्ठा । स्वाधीन चेतना का पलड़ा है भारी, परतंत्र शब्द से चिढ़ता हर नर-नारी ॥ जैसा शासक जनता भी वैसी होती, दीपक से दीपक की प्रगटी है ज्योति । मोती में पानी स्वामी ! दीख रहा है, हर शिक्षु गौरव की गाथा सीख रहा है ।
संकेत साफ है अनुज नहीं आएगा, अभिमान व्यूह को भेद नहीं पाएगा । दोनों के सम्मुख एक विकल्प बचा है, इस अहंकार ने समर निवेश रचा है । संशय से दोनों ग्रस्त हुए हैं भाई, प्रायः होती है संशय-जन्य लड़ाई। श्रद्धा ने हिम के कण-कण को जोड़ा है, संशय ने मन
कण-कण को तोड़ा है ।
सर्ग 15, पृ. 245
भरत को एक क्षण के लिये अपनी भूल का भान हुआ - मैं अगर वात्सल्य सलिल की धारा बहा देता तो विनय - बेल का स्वयं ही अभिसिंचन हो जाता। सौहार्द भाव से बँधा बन्धु दौड़ा-दौड़ा चला आता । मगर अब ? ऋषभ ज्ञान - रश्मियों ने तिमिरावृत्त जन को पथ - आलोक दिया है। क्या उसी का यशस्वी वंश आज युद्ध के तमस को निमन्त्रण देगा? और फिर
तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001
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