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________________ सामान्यतः 25 क्रियाएं प्रसिद्ध हैं लेकिन आगम में अन्य क्रियाओं का भी यत्र-तत्र वर्णन मिलता है। टीकाकार अभयदेव सूरि ने एजनादि क्रियाओं का वर्णन करते हए लिखा है-इस प्रकार अन्य क्रियाएं भी होती हैं। जीव और पुद्गल के सहयोग से जीव जितनी प्रकार की क्रियाएं कर सकता है, उतने प्रकार की कियाएं हो सकती हैं। संक्षेप में क्रिया के सदनुष्ठान-असदनुष्ठान रूप से दो प्रकार होते हैं सदनुष्ठान क्रिया से निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है। पुण्यबंध दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों प्रकार का माना है। दो समय की अल्पकालिक स्थिति वाला पुण्य-बंध ईर्यापथिक क्रिया के साथ होता है। सदनुष्ठान क्रियाओं में उत्कृष्ट क्रिया है। शुक्ल ध्यान के चौथे चरण में होने वाली समुच्छिन्न-क्रिया अप्रतिपाति ध्यान ही चरम सदनुष्ठान क्रिया है। उसके बाद जीव की क्रिया पर विराम लग जाता है। इसी से अक्रिया सिद्ध होती है। समच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति ध्यान से काययोग तथा अन्यान्य सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध हो जाता है। जीव की अंतिम क्रिया, जिससे भव का व्यवच्छेद हो जाता है, कर्मों का सम्पूर्ण उन्मूलन ही अंतक्रिया है। अंतक्रिया विविध प्रकार से विभिन्न अवस्थाओं में जीव प्रारम्भ करता है। जब संसारपरीत (सीमित) हो जाता है। देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन रूप मोक्ष की सीमा निश्चित हो जाती है। एक दृष्टि से उसी समय से अंतक्रिया शुरू हो जाती है। दूसरी दृष्टि है, जीव जब किसी भव में मोक्ष जाने की सीमा कर लेता है तब से अंतक्रिया का प्रारम्भ हो जाता है। तीसरी दृष्टि में जीव जिस भव में मोक्ष जाता है पहले अनगार बनता है, तब से अंतक्रिया का आरम्भ हो जाता है। अंतक्रिया में कर्म क्षय किस प्रकार होता है ? इसका निरूपण भगवती सूत्र में कुछ उपमानों के द्वारा किया है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति सूखी घास राशि को अग्नि में प्रक्षिप्त करता है। जल की बूंदों को तप्त तवे पर डालता है तो उसके जलने और नष्ट होने में विलम्ब नहीं होता। इसी प्रकार यदि कोई एजनादि क्रिया नहीं करता है उसके सकल कर्म अग्नि में निक्षिप्त घास के पूले तथा तप्त कड़ाही में निक्षिप्त जल बूंदों की तरह नष्ट हो जाते हैं, उस जीव की अंतक्रिया होती है। कर्म को बांधने में जैसे क्रिया–वीर्य की अपेक्षा है वैसे कर्मों को तोड़ने में भी इसकी अनिवार्यता है। क्रिया का एक रूप कर्म बांधने का है, दूसरा कर्म काटने का है। क्रिया के बिना कर्म क्षय संभव नहीं । भगवान महावीर ने नियतिवाद का निरसन करने के लिये क्रियावाद का प्रतिपादन किया। शकडाल कुम्हार की घटना नियतिवाद के विपक्ष भूत क्रियावाद की प्रतिष्ठा की प्रतीक है। महावीर क्रियावादी के रूप में सुप्रसिद्ध थे। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AIMILI ATI NINR 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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