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'हास्यार्णव' प्रसहन की कथावस्तु इस प्रकार है- अनन्य सिन्धु राजा भोगलिप्सा में लिप्त रहने के कारण राजकार्य को देर तक नहीं संभाल सका है। अयथार्थवादी नामक नौकर को वह राजकार्य की गतिविधियों का पता लगाने के लिए भेजता है। वह आकर राजा को सूचना देता है कि उनकी स्वेच्छाचारिता के फलस्वरूप जनता ने सब प्रकार की बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों को ग्रहण कर लिया है। नौकर के मुख से यह समाचार सुनकर राजा का क्रुध हो जाना और इसके लिए नागरिकों को दण्ड देने के लिए उद्यत हो जाना आदि हास्यमूलक बातें हैं।
इस प्रकार अनौचित्य एवं प्रकृतिविपरीत कथनों के द्वारा हास्य-सर्जन का प्रयास किया है। तदन्तर वह मंत्री कुमतिवर्मा को बुलवाकर उसे मन्त्रणार्थ उचित स्थान निर्धारित करने की आज्ञा देता है। मंत्री मंत्रणा के लिए शहर की वसुन्धरा नामक कुहिनी वेश्या के मकान को इस कार्य के लिए उपयुक्त बताता है। राजा उसका समर्थन करता हुआ सबके साथ नियत स्थान पर पहुंचता है। वसुन्धरा भी उन्हें अपने यहां आया देख प्रसन्न होती है और अपनी पुत्री मृगांकलेखा नामक वेश्या से राजा का परिचय करवाती है। कामुक राजा उसके सौन्दर्य को देख मोहित हो जाता है। वहीं मृगांकलेख को कामशास्त्र पढ़ाने वाले गुरु महामहोपाध्याय श्रीविश्वभण्डजी अपने शिष्य कलहांकुर के साथ पहुंच जाते हैं। उन्हें टूटे आसन पर बिठा कर स्वागत किया जाता है। विश्वभण्डजी वसुन्धरा को प्रणाम कर उससे 'मृगांकलेखा तुम पर प्रसन्न हो'' यह आशीष ग्रहण करते हैं। इसी बीच राजा भी विश्वभण्ड को प्रणाम करता है और विश्वभण्ड की आज्ञानुसार कलहांकुर उन्हें अमंगलकारी शब्दों में आशीर्वाद प्रदान करता है, जिसे सुनकर हंसी आए बिना नहीं रहती।
कलहांकुर (साहहासं शक्राशनमृक्षितं दुर्गऽक्षतमादाय संस्कृत माश्रित्य उच्चैः) नेत्रे पुष्पोदयो भवतु भवताम्। अपि चशत्रोवृद्धिर्भियो वृद्धिवृद्धिव्याधेर्ऋणैनसाम् । दुर्गते१र्मतेर्वृद्धिः सन्तु ते सप्त वृद्धयः ।। 2 ।।
अर्थात् अट्टहास करता हुआ और भङ्गमिश्रित दूर्वा एवं चावल लेकर तथा संस्कृत भाषा के माध्यम से, जोर से आपके नेत्रों में पुष्पों अर्थात् अश्रुओं का उदय हो। और भी हे राजन् ! तुम्हारे शत्रुओं की वृद्धि हो, भय की वृद्धि हो, रोगों की वृद्धि हो, ऋणों और पापों की वृद्धि हो, दुर्गति और दुर्मति की वृद्धि हो, इस प्रकार ये सात प्रकार की वृद्धियां तुम्हें प्राप्त हों।
'हास्यार्णक' में राजा रानी शिक्षक कुलपुरोहित, वैद्य (डाक्टर) ब्राह्मण, सेनापति, ज्योतिषी, विद्वान् एवं वेश्यादि पर गहरा व्यंग्य किया गया है। हास्य की प्रधानता के कारण गंभीर शास्त्रीय काव्य के दर्शन यहां नहीं होते। वस्तु प्रकृति-विपरीत कथन-वर्णन शैली के हास्य से निष्पन्न व्यंग्य व्यवस्था पर चोट करता है। 'हास्यार्णव' के अर्णव की व्युत्पत्ति अर्णासि सन्ति अस्मिन्-समुद्र । 'हास्यार्णव-प्रहसनम्' में हास्यार्थ दो शब्द प्रयुक्त हुए है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001
MIT
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