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'प्रसहनम्' विद्या के अर्थ में एवं 'हास्य' रस के अर्थ में। 'हास्यार्णव' अर्थात् हास्य का समुद्र। इस 'प्रहसनम्' में हास्य की विविध प्रकारों की लहरें उठ रही हैं। ऐसा लगता है 'हास्यार्णव' शब्द साभिप्रायः प्रयुक्त हुआ है। प्रहसन भेद एवं हास्य भेद एवं उनके लक्षण के संदर्भ में इस प्रहसन को देखा जा सकता है- यहां पर भी (नाद्यन्ते सूत्रधारः) 'अलमतिविस्तरेण, यस्य-" के बाद प्रहसन के मुख्य रस को सभेद बताया गया है
हास्यप्रस्फुटदन्तमौक्तिकचयच्छायामनोज्ञानना नानाऽलङकृति सत्कृता रसवतां चित्तप्रमोदस्थली। स्वच्छन्दं वरवर्णिनी रसवती सीमन्तिनीव स्वयं रम्या श्री जगदीश्वरस्य कविता सच्चित्तमानन्दमेत् ।।
अर्थात कवि श्री जगदीश्वर की कविता स्वयं स्त्री के समान रसिक पुरुषों के मनों को पूर्ण रूप से आनन्द पहंचायेगी। जिन जगदीश्वर कवि की कविता को सुनकर रसिक लोगों के दांत हंसी के कारण बाहर निकलने से प्रतीत होते हैं, उनकी कविता इत्यादि अलंकारों से सुशोभित है, रसिकों के मन को आनन्द पहुंचाने वाली है, व्याकरणादि की दृष्टि से शुद्ध है, हास्य आदि रसों से युक्त है तथा मनोहर है। यहां हास्य के दो भेदों का संकेत मिलता है, स्मित
और हसित । सच्चित्तमानन्दयेत् से स्मित एवं 'हास्य प्रस्फुटदत्तमौक्तिक' से हसित का। हास्य के इन भेदों को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है-----
हास्य
स्मित
हसित
विहसित उपहसित
अपहसित अतिहसित - कहने का तात्पर्य यह है कि स्मित के अतिरिक्त अन्यहसित के ही उपभेद हैं जिनमें हसित का शनै-शनै विस्तार होता गया है। 'हास्यार्णव प्रहसनम्' में स्मित कम मात्रा में एवं हसित अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। प्रहसन के अधिकांश पात्र चारित्रिक दृष्टि से भी मध्यम एवं अधम श्रेणी के हैं और इन दोनों प्रकार के व्यक्ति-पात्रों में हसित के ही उपभेद पाये जाते हैं। इस बात का समर्थन शीर्षक में आए 'अर्णव' अर्थात् समुद्र को रूपक बनाकर प्रस्तुत श्लोक के अर्थ-भाव के आधार पर रेखांकित करके दर्शाया भी जा सकता है
स्वैरं सस्मितमीक्षते क्षणमलं व्याजृम्भते वेपते रोमाञ्चं तनुते मुहस्तनतटे व्यालम्बते नाम्बरम् ।। आलिङ्गत्यपरां तनोति चिकुरं प्रत्युत्तरं याचते केयं कामकलाविलासवसतिर्लोलंक्षणा भाविनी ।। (1.25) अर्थात् सभी प्रकार के विलासों की आश्रयस्वरूपा, चंचल नेत्रों वाली, रस विशेष में
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NITV तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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