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________________ जिस हंसने में शब्द होता हो, जो मधुर हो, जिसकी पहंच शरीर के अन्य अवयवों में भी हो, जिसमें मुंह लाल हो जाए, आँखें कुछ मिच जावें और ध्वनि गंभीर हो तो उसे विहसित कहते हैं-'सशब्दं मधुरं कायगतं वदनरागवत, आकुञ्तिाक्षि मन्द च विदुर्विहसितं बुधाः ''। जिसमें कन्धे और सिर सिकुड़ जावें, टेढ़ी नजर से देखना पड़े और नाक भी फूल जावे तो उस हँसने का नाम 'उपहसित' है 'विदुञ्चितांस शीर्षश्च जिम्हदृष्टि विलोकनः, उत्फुल्लनामिको हासो नाम्नोपहसितं मतम् ।' जो हंसना बेमौके हो, जिसमें आंखों से आंसू आ जावे और कंधे एवं केश खूब हिलने लगे तो उस हँसने का 'अपहसित' नाम रखा है 'अस्थानजः साश्रुदृष्टि-राकम्पस्कन्धमूर्धजः, शाईदेवेन गदितो होसोऽपहसिताद्वय : ।' जिसमें बहत भारी और कानों को अप्रिय लगने वाला शब्द हो, नेत्र आंसुओं के कारण भर जावे और पसलियों को हाथों से पकड़ना पड़े तो वह हास्य 'अतिहसित' कहा जाता है 'स्थूलकर्णकटुध्वान्नो वाष्पपूरप्लुतेक्षणः । करोपगूढपाव॑श्च हासोऽतिहसितं मतम् ।' हास्य के भेदोपभेद सहित सूक्ष्म, स्पष्ट एवं वैज्ञानिक विवेचन से उसका महत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। हास्य का सर्वाधिक प्रयोग प्रहसन में ही होता है-'हास्यस्तु भूयसा कार्य: षट्प्रकारैस्ततस्ततः ।' प्रहसन में हास्य असंगति, विपरीतता, अनौचित्य एवं असम्बद्धता से उत्पन्न होने के कारण यह नहीं समझना चाहिए कि हास्य सदा अश्लील ही हो या प्रकृति के विपरीत बातें बतलाकर समाज का अहित करना चाहता है। वस्तुतः हास्य के आलम्बन में निहित विषमताएं, विकृतियां एवं असंगतियां अनिष्टकारी नहीं होती हैं। 'हास्यार्णव' का महावैद्य कहता है-'वैद्योऽहं व्याधिवर्गाणामाश्रयोऽप्ययशोनिधिः । मया चिकित्सितः सद्ये मार्कण्डेयो न जीवति ।।' (1.31) प्रसहन के उपर्युक्त लक्षण एवं भेद के आधार पर 'हास्यार्णव' प्रसहन को 'संकीर्ण' भेद के अन्तर्गत रखा जा सकता है, क्योंकि 'संकीर्ण' प्रहसन में ''संकीर्ण वेश्याविट नपुंसकादिभूषितंप्रतमं....'' (सपारनंदी) "संकराद्वीथ्या संकीर्ण धूर्तसकुलम् (द.स. 355) अर्थात वेश्या, चेटक, नपुसंक, विट, धूर्त, दुराचारिणी के अशिष्ट, वेश, भाषा तथा चेष्टाओं का अभिनय होता है। (हास्यार्णव 1.10) हास्यार्णव श्री जगदीश्वर की रचना है। जिसके रचना काल के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।' (Edited by C. Cappeller, Jue 883; also printed in India (Calcutta) 1835 and 1872.) History of Indian Literature, Winternitz Vol. III) 52 AIIIII II I तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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