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नाट्शास्त्रकार के द्विविध प्रहसन और अन्य आचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस रूपक - विशेष के त्रैविध्य पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता है। शारदातनय ने भाव प्रकाश में प्रहसन एकांकी का विशद विवेचन किया है - " तद् द्विविधं शुद्धं संकीर्णं च
अस्य च द्वावङ्कौ भवतः मुखनिर्वहणसंधी च । ... सैरन्ध्रिका स्यात्संकीर्णा शुद्धा सागर कौमुदी | कलिकेलि प्रहसनं मत्तद्-वैकृतिमीरितम् ॥ ( भाव प्रकाश, अष्टम अधिकार) उनके अनुसार एक ही अंक होता है और मुख एवं निर्वहण संधियां होती हैं। उन्होंने सागर कौमुदी को शुद्ध प्रसहन तथा सैरान्ध्रिका (सौमद्रिक) को संकीर्ण एवं शशिकला को विकृत प्रहसन के दृष्टान्त स्वरूप प्रस्तुत किया है ।"
इस दृश्य काव्य के नाम से ही इसमें हास्य की प्रधानता सूचित होती है। प्रश्न उपस्थित होता है कि हास्य एक ही प्रकार का है या एकाधिक? पंडितराज जगन्नाथ ने हास्य को दो प्रकार का माना है- प्रथम आत्मस्थ और दूसरा परस्थ,
आत्मस्थः परसंस्थश्चेत्यस्य भेदद्वयं - मतम् ।
आत्मस्थो-द्रष्टुरुत्पन्नो विभावक्षेपमात्रतः ॥ (रसगंगाधर)
जो हास्य विभाव (हास्य के विषय) के दर्शन मात्र से उत्पन्न होता है वह आत्मस्थ और जो दूसरों को हंसता हुआ देखने से फूट पड़ता है तथा जिसका विभाव भी हास्य होता है अर्थात् दूसरों के हंसने के कारण ही होता है, उसे परस्थ हास्य कहते हैं। यह उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार के व्यक्तियों में उत्पन्न होता है, अतः इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं और उसके भी छः भेद होते हैं - उत्तम पुरुष में स्मित और हसित, मध्यम पुरुष में विहसित और उपहसित तथा नीच पुरुष में अपहसित तथा अतििहसित होते हैं
हसन्तमपरं दृष्ट्वा विभावश्चोपजायते ।
योऽसौ हास्यरसस्तज्ज्ञैः परस्थः परिकीर्तितः ॥ उत्तमानां मध्यमानां नीचानामप्यसौ भवेत् । व्यवस्थः कथितस्तस्य षड् भेदाः सन्ति चापरे । स्मितं च हसितं प्रोक्तमुत्तमे पुरुषे बुधैः,
भवेद्विहसितं चोपहसितं मध्यमे नरे ।
नीचेऽपहसितं चातिहसितं परिकीर्तितम् ॥
स्मित का लक्षण ‘ईषत्फुल्लकपोलाभ्यां कटाक्षैरप्यनुल्बणै | अदृश्यदशन्नो हासो मधुरः स्मितमुच्यते' अर्थात् जिसमें कपोल थोड़े विकसित हों, नेत्रों के प्रान्त अधिक प्रकाशित न हों, दांत दिखलाई न दें और जो मधुर हो, किया है।
जिस हंसने में मुख, नेत्र और कपोल विकसित हो जावें और दांत भी दिखलाई दें तो उसे 'हसित' कहा जाता है
‘‘वस्त्रनेत्रकपोलैश्चेदुत्फुल्लैरुपलक्षितः । किञ्चिल्लक्षितदन्तश्च तदा हसितमिष्यते ।”
तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 1
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