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काव्य में रस का बड़ा महत्त्व है-'न हि रसाहते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।' (ना.शा.अ.6) 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' (स.द.) अग्निपुराण में चार-शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स प्रधान रसों के उल्लेख के साथ क्रमशः हास्य, करुण, अद्भुत और भयानक को गौण रूप में स्वीकार किया है। आचार्य भरत ने मूलभूत आठ रस माने हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत। काव्य से निष्पन्न आनन्द का ही दूसरा नाम रस है
अक्षरं ब्रह्म परमं सनातनमजं विभुम् । वेदान्तेषु वदात्येकं चैतन्यं ज्योतिरीश्वरम् ॥ आनन्दः सहजस्तस्य व्यञ्जयते स कदाचन । व्यक्तिः सा तस्य चैतन्य चमत्कार रसाद्दया ।। (अ. पुराण 339/1,2)
अन्य रसों के आधारभूत अनुभव हो सकते हैं किन्तु हास्य का लौकिक और साहित्यिक अनुभव साक्षात् आनन्द ही होता है। मनोनुकूल होने के कारण ही उसे श्रृंगार का सखा कहा गया है। भरत ने तो हास्य को श्रृंगार की अनुकृति कहा है-'शृंगारानुकृतिर्यस्तु स हास्य इति संज्ञितः।'
संस्कृत रूपकों में रूपककार अपनी कल्पना शक्ति से आधिकारिक कथावस्तु की आत्मा के अनुरूप हास्यात्मक प्रासंगिक कथावृत्त की सृष्टि करके उसेआधिकारिक कथानक के अन्तर्गत स्थान देते थे। जो अधिकाधिक विदूषक के पात्र द्वारा सम्पन्न होता रहा । संस्कृत साहित्य में स्वतंत्र रूप से हास्य-प्रधान एकांकी लेखन की परम्परा प्रचलित रही है। इस प्रकार का एकांकी रूपक 'प्रहसन' कहलाता है, जिसके नाट्य शास्त्रकार भरत ने शुद्ध तथा संकीर्ण दो भेद बताये हैं-'प्रहसनमपि विज्ञेयं द्विविधं शुद्धं तथा च संकीर्णम् ।' (ना.शा.18) शुद्ध प्रहसन में पाखण्डी, संन्यासी, तपस्वी अथवा पुरोहित नामक की योजना होती है। इसमें चेटक, चेटी, विट आदि निम्नकोटि के पात्र (ना.शा. 0/103-106) भी आते हैं । इसका बहुत कुछ प्रभाव वेशभूषा और बोलने के ढंग से ही पैदा किया जाता है। भाषा एवं कथानक को आद्योपान्त समान रूप से ढ़ोंगी लोगों के यथार्थ-जीवन के अनुरूप नियोजित किया जाता है। इसके दूसरे भेद संकीर्ण प्रहसन में वेश्या, चेटक, नपुंसक, विट, धूर्त, दुराचारिणी के अशिष्ट वेश, भाषा तथा चेष्टाओं का अभिनय प्रदर्शित होता है। इसमें हंसी, दिल्लगी की बहुत प्रधानता रहती है। नायक धूर्त होता है।
धनञ्जय ने भी 'प्रहसन' का सही लक्षण बताकर वैकृत एवं शंकर नाम से दो भेद बताकर तीन रूप कहे हैं। (दशरूपक 3/54-55) विश्वनाथ ने भी साहित्यदर्पण में (सा.द. 6/264-65) साम्य रखने वाले इस प्रसहनात्मक एकांकी के तीन भेदों के लक्षण किये हैं। (सा.द. 6/266) भरत के समान नाट्यदर्पणकार ने भी प्रहसन के दो ही रूप माने हैं
वैमुख्यकार्यं वीथ्यङ्गिख्यात-कौलीन दम्भवत् ।
हास्यांगि-भाण संध्यङ्कः वृत्तिः प्रहसनं द्विधा ।। (23) 50 AITI NY
MINI TIW तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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