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निर्मलतम परिणामों की धारा बही। प्रभु-दर्शन हेतु जैसे ही चरण उटे, सब दर्शन एक साथ पथ मे चले आए। बाहुबली ने शाश्वत पद को प्राप्त कर लिया।
युग बीते । संवत्सर बीते। काल कभी विश्राम नहीं लेता। क्या अपने स्वार्थ हेतु? नहीं। हर क्षण के साथ एक नया क्षण उगता है, इस आशा में कि जो बीते क्षण को नहीं थाम सके, वे इस क्षण को थामें, पहचानें । भरत के जीवन में ऐसा ही सार्थक क्षण उगा। स्नान करते समय अनामिका में पहनी मुद्रिका (अँगूठी) गिर पड़ी। अनामिका का सौन्दर्य तत्क्षण विलीन हो गया । स्नानागार ने भरत के समक्ष चिन्तन का एक विराट पट खोल दिया। उन्होंने अंगूठी फिर पहनी, अँगली की श्री लौट आई। फिर निकाली तो अँगुली जैसे पुनः मुरझा गई। सत्य की गाथा संकेतों की भाषा में मुखर होती है। जो नेत्र-गम्य नहीं, बोधि ने उसे देख लिया
पुनः निकाली, पुनरपि पहनी, हुआ सत्य का साक्षात्कार, पर-पुद्गल से तन की शोभा, तन भी पुद्गल का आकार । आत्मा हूँ मैं, आत्मा में ही होगा मेरा अविचल धाम, आत्मा की अनुभूति अनुत्तर, सुन्दर सुन्दरतम अभिराम । मूल्य बिम्ब का नैसर्गिक है, क्या है मूल्यहीन प्रतिबिम्ब? सबकी अपनी-अपनी महिमा, कटुक, किन्तु हितकर है निम्ब । देख रहा है दर्पण को नृप, दिखा सहज अपना प्रतिबिम्ब, प्रेक्षा करते-करते उज्ज्वल, प्रगटा परम पुरुष का बिम्ब । आत्मा का साक्षात् हुआ है, उदित हुआ है केवलज्ञान, सहज साधना सिद्ध हुई, अनासक्ति का यह अवदान ।
छूट गया साम्राज्य सकल अब, नहीं रहा जन का सम्राट् ! टूट गए सीमा के बंधन, प्रगट हुआ है रूप विराट।
सर्ग 18, पृ. 300-301 भरत ने केवलज्ञान प्राप्त किया और प्रभुवर ऋषभ की सन्निधि में पहुंचे।
क्षण अस्त होते रहे, उगते रहे। एक क्षण आया। नया नभोमणि, नया प्रभात । प्रभु ऋषभ देह से विदेह की ओर प्रस्थित हुए। अष्टापद की पावन भूमि, छह दिन का अनशन, पर्यंकासन की मुद्रा-ऋषभ सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए।
नित्य नहीं कोई भी देही, है सारा संयोग अनित्य, स्वामी का निर्वाण हुआ है, कौन बनेगा अब आदित्य?
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तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 ANI
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