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________________ ऋषभायण भारतीय संस्कृति के आदि सर्ग की दिव्य परिक्रमा है। ऋषभ-वृत्त प्रागैतिहासिक काल के ऐतिहासिक काल में रूपान्तरण का इतिहास है। ऋषभ अकर्मयुग से कर्मयुग में प्रवेश की संधि-बेला के संवाहक बने । साथ ही उन्होंने आत्म-दर्शन के द्वार खोले। इतिहास में ऐसा घटना-बहुल जीवनवृत्त विरल है। मगर उनका जीवन-चरित्र ऋषभायण का पार्श्वभाग है। उसके केन्द्र में ऋषभ की चेतना है। यह महाकाव्य अन्तरंगतः ऋषभ की ऊर्जा के अलौकिक स्पंदनों का अनुवाद है। _इतिहास में दर्शन होता है, दर्शन कभी इतिहास नहीं होता, अतीत नहीं होता | दर्शन चिरंतन है और इस पद्यकृति में उस चिरंतन दर्शन का निदर्शन है। इस ग्रन्थ को पढ़ते समय मेरी मनःस्थिति खिलौनों की दुकान में खड़े बालक की-सी रही। बाँहों में जितने समा सके उतने खिलौने ले लिए। माँ अब हाथ थामे लौट चलने का आग्रह कर रही है। पैर घर की ओर उठ रहे हैं, पर आँखें पीछे की ओर देखती दुकान में सजे खिलौनों पर टिकी हैं। ऋषभायण का जो कुछ इन पंक्तियों में आया है केवल वही उसका नवनीत नहीं। नवनीत उसका हर पृष्ठ है, हर पद्य है। जिन पृष्ठों को मैं इन पंक्तियों में नहीं सजा सका उस सीमा तक मैंने आपको साहित्य के उस लालित्य से वंचित रखा है जिसे हर लेखनी कागज पर नहीं उगा सकती। उन दिव्य संदेशों से भी वंचित रखा है जो क्षितिज के उस पार से आते हैं और उस दर्शन से भी वंचित रखा है जिसे सुरक्षित रखने के कारण अतीत शाश्वत है। पद्य का गद्य में अविकल रूपान्तरण संभव नहीं। कहना मुझे यह चाहिए कि पद्य का गद्य में रेखानुवाद अवरोहण की क्रिया है। मगर अवरोहण में भी आरोहण का कोई-कोई क्षण होता है। ऋषभायण की इस अनुकृति में अगर आपको वह क्षण दिख पाया तो यह क्षण मेरे लिए आरोहण का क्षण होगा। पुस्तक - ऋषभायण लेखक - आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन - आदर्श साहित्य संघ 15 नूरमल लोहिया लेन कलकत्ता-700007 90 IIIIIIII I NDI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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