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________________ हे क्षमासिंधो ! क्षमा दो, अब क्षमा की ही शरण है, किस दिशा के छंद लय में, बढ़ रहा आगे चरण है। सर्ग 18, पृ. 291 बाहुबली के चरण प्रभु ऋषभ की सन्निधि में पहँचने को उद्यत हए । मन के एक कोने में नृप-पद जनित अहं का अंश अवशेष था-वहाँ अठावने पूर्व दीक्षित अनुजों को वंदन करना होगा। कैसे कर पाऊंगा? क्षेत्र दूर सही, मन में तो प्रभु हैं-सोचा और उनके चरण मुड़े । जंगल के एकान्तवास में बाहुबली अब निस्पन्द होकर ध्यान-मग्न हो गये। अचल-अडोल देह हरीतिमा से ढ़क गई। कंधों पर खग-कुल ने अपने नीड़ बना लिए । कर-पद वल्ली का आलम्बन हुए। भगवान ऋषभ ने ब्राह्मी और सुन्दरी से कहा-एक वर्ष से सघन साधना में लीन, सर्वज्ञ-पद का सहज अधिकारी तुम्हारा भाई बाहुबली अहंकार के तट पर अटका है। उसे जागृत करो, बोधि दो। भगिनि-युगल निर्दिष्ट जगह पर पहुँची मगर वहाँ उन्हें केवल वृक्ष दिखा। दूसरे ही क्षण उनकी दृष्टि लता-आच्छादित अपने भाई के आभामंडल पर पड़ी। आलोक रश्मियों का अनुपम वलय जैसे विद्युल्लेखा ! यही तो है ऋषभ-तनुज ! ऐसा तेजपुंज और किसे सुलभ है? परिपार्श्व में आकर भगिनी-द्वय ने अपने भाई को संबोधित कियाचैतन्य अनश्वर है, अहंकार नश्वर । तुम अहंकार के हाथी पर आरूढ़ हो। उतरो वहाँ से । बाहुबली के कानों में साध्वी-बहिनों के स्वरों की अनुगूंज होती रही बंधो! उतरो, गज से उतरो, उतरो अब, भूमि की मिट्टी का अनुभव होगा तब । गज-आरोही प्रभु-सम्मुख पहुँच न पाता, आदीश्वर ईश्वर समतल का उद्गाता ।। इस अहंभाव ने भाई ! पथ रोका है, इस भवसागर में मार्दव ही नौका है। क्या शिला शिला को पार लगा पाएगी? चट्टान नहीं अंकुर उगा पाएगी । सर्ग 18, पृ. 294 मुनि बाहुबली की अन्तःचेतना कम्पित हुईमैं जंगम हँ फिर कैसे अचल बना हूँ, मैं आत्मा हूँ फिर कैसे स्तंभ बना हूँ? मैंने अन्तर में रची स्तंभ की माया, फिर बाह्य जगत में स्तंभ बनी यह काया ।। मैं उस दुनिया का जिसमें स्तंभ नहीं है, मैं उस दुनिया का जिसमें दंभ नहीं है। आत्मा का दर्शन पहले ही हो जाता, अभिमान नहीं यह पथ में आड़े आता ।। सर्ग 18, पृ. 295 अचानक जैसे मलयज का एक झोंका आया और बाहबली के अन्तस्तल में दिव्य सुरभि फैल गई। अहं-मुक्ति के साथ अन्तिम अवरोध विलीन हुआ। निर्मल, निर्मलतर, 88 AII TIMI तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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