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है? इतिहास के इस पृष्ठ ने ऋषभ-वंश के पहले पौत्र सूर्ययशा को अपने चाचा बाहुबली के समक्ष ला खड़ा किया। रणभूमि में वात्सल्य और पितृत्व के इस मिलन ने युद्ध को नया मोड़ दिया। सूर्ययशा ने कहा
चाचाजी ! ये सैनिक सारे, बेचारे करुणा के पात्र, हम सब रहते सदा सुरक्षित और अरक्षित इनका गात्र ।
विनयकांक्षी पूज्य पिताश्री ! अहं अश्व आरोही आप, अन्य सभी निर्दोष अहेतुक, सहते हैं इस रण का ताप । सर्ग 16, पृ. 266-67
सूर्ययशा की युक्ति भरत और बाहुबली दोनों के गले उतरी । युद्ध दोनों भ्राताओं तक सीमित हुआ । उभय पक्ष की सेनाओं ने दर्शक बनकर अपने-अपने राजाओं की विजय कामना की। मगर विजयश्री ने जो अब तक संशय- संकुल थी, अब संशय-मुक्त होकर बाहुबली को वरमाला पहना दी। दृष्टि-युद्ध से मल्ल - युद्ध तक अस्त्र-शस्त्र रहित पाँचों विकल्पों में भरत पराजित हुए। पराजय की लज्जा ने क्रोधाग्नि को ऊर्जा दी। अन्तःस्थल में जग प्रतिशोध की आग ने भरत की समग्र चेतना को आच्छन्न कर दिया । आवेशाकुल हो उन्होंने अनुज की ओर चक्र फेंका। देवों में भय व्यापा और धरती पर कोलाहल । मगर नियति के अगम-अगोचर छोर की कथा अकथ है। चक्र ने प्रणत भाव से बाहुबली की प्रदक्षिणा की और उनके दक्षिण हाथ में विराजित हो गया। अब क्या होगा ? भरत चिन्तित हुए । मगर बाहुबली प्रति-प्रहार किया तो चक्र ने उसी तरह विनय - -नत होकर भरत की प्रदक्षिणा की और उनके हाथों में पूर्ववत आरूढ़ हो गया ।
मर्यादा के अतिक्रमण से कुपित बाहुबली हाथ उठाए, मुष्ठि ताने भरत की ओर दौड़े। मगर उनके मन में बैठे देवों ने उनकी राह रोक ली। बाहुबली के अन्तर्चक्षु खुले
हंत ! हंत ! आवेश, क्लेश के आवरणों का सरजनहार । बंधु-बंधु के बीच कलह का यही बीज है, यही प्रसार ॥
सर्ग 18, पृ. 288 उनका मानस बदला, चिन्तन बदला और संसार बदल गया। अब उनके तरकश में त्याग के तीर थे और दृष्टि में थी संन्यास की समरभूमि ।
मुनि बाहुबलि । सुस्थिर गात्र, मौन वाणी, आजानु - स्पर्शी भुज-युगल । अ-मन-मन और अ-तन तन । केवल ऋषभ के पार्श्व से आते संदेश कंपनों की अनुभूति । ध्यान मुद्रा में अवस्थित मुनि बाहुबली के समक्ष भरत प्रणत हुए । मूक लेकिन मनोभाव चेहरे पर अंकित थे—
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है किया अपराध मैंने, युद्ध भाई से लड़ा है,
विजय का वरदान लेकर, यह हिमालय- सा खड़ा है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 AV
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