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________________ जीव आदि नौ तत्त्व हैं । स्वतः और परत: की अपेक्षा इन नौ तत्वों के अठारह भेद हुए। इन अठारह भेदों के नित्य- अनित्य की अपेक्षा से छत्तीस भेद हुए । इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि कारणों की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने पर 180 भेद होते हैं । यह धारणा इस प्रकार है-जीव स्वरूप से काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा की अपेक्षा नित्य है । नित्यपद के 5 भेद हुए । अनित्य पद के भी पांच । ये दस भेद जीव के स्वरूप से नित्य - अनित्य की अपेक्षा किये गये हैं। इसी प्रकार दस भेद जीव के पर रूप से नित्य - अनित्य की अपेक्षा से होते हैं। शेष तत्त्वों के भी इसी प्रकार भेद होते हैं। कुल मिलाकर 180 प्रकार हैं, जैसे 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आश्रव, 6. संवर, 7. निर्जरा, 8. बंध, 9. मोक्ष स्वतः नित्य अनित्य नित्य अनित्य क्रियावाद के अनुसार पुण्य-पापादि क्रियाएं बिना कर्ता के नहीं होती, क्योंकि आत्मा के साथ उनका समवाय सम्बन्ध है । क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं किन्तु स्वरूप के विषय में एकमत नहीं है। अलग-अलग अवधारणाएं हैं। कुछ मूर्त मानते हैं तो कुछ अमूर्त मानते हैं। कुछ उसे अंगुष्ठप्रमाण मानते हैं तो कुछ श्यामाक तंदुल जितना । कुछ सर्वव्यापी स्वीकार करते हैं तो कुछ असर्वव्यापी । कुछ हृदय में प्रतिष्ठित प्रदीप की शिखा जैसे मानते हैं । क्रियावादी को कर्म फल भी स्वीकृत है। आचार्य अकलंक ने क्रियावाद के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख किया है- मरीचिकुमार, उलुक, कपिल, व्याघ्रभूवि, गार्ग्य, वावलि, माठर, मौदगल्यायन आदि । अक्रियावाद परतः नियुक्तिकार ने नास्तिकता के आधार पर अक्रियावाद की व्याख्या की। जिस दर्शन जीवादि पदार्थों का निषेध है। जिसका क्रिया, आत्मा, कर्मबंध, कर्मफल आदि में विश्वास नहीं, वह अक्रियावाद है ।' अक्रियावादी के अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी है । क्षणिक धर्मा वस्तु में क्रिया संभव नहीं । यह सिद्धान्त बौद्धों के क्षणिकवाद के अतिनिकट है। भूत-भविष्य के साथ वर्तमान का कोई सम्बन्ध नहीं, इसीलिये क्रिया और तज्जनित कर्म बंध नहीं होता । शून्यवादी बौद्ध आत्मा आदि के अस्तित्व एवं नास्तित्व के प्रश्न पर मौन हैं। वे किसी कर्म को द्विपाक्षिक और किसी को एकपाक्षिक तथा छः आयतनों से होने वाला मानते हैं। ऐसी स्थिति आत्मा को अक्रिय मानना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है। अक्रियावाद के चार फलित हैं 1. आत्मा का अस्वीकार 3. कर्म का अस्वीकार तुलसी प्रज्ञा जनवरी- जून, 2001 Jain Education International 2. आत्मा के कर्तृत्व का स्वीकार । 4. पुनर्जन्म का अस्वीकार । ' 10 For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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