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आगम सूत्रों में विभिन्न वादों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया है— (1) क्रियावाद, (2) अक्रियावाद, (3) विनयवाद, (4) अज्ञानवाद ।
आचारागं,' सूत्रकृतांग में भी इन चार वादों का उल्लेख है। नियुक्तिकार ने अस्ति (आस्तिकता) के आधार पर क्रियावाद, नास्ति (नास्तिकता) के आधार पर अक्रियावाद का निरूपण किया है। इसी प्रकार अज्ञानवाद का आधार अज्ञान और विनयवाद का आधार विनय है।
हमें किसी युग को समझना है तो उस युग का दर्शन समझना नितांत आवश्यक है। दर्शन के लिये तत्कालीन दार्शनिकों की विचारधारा का अध्ययन अपेक्षित है। मनुष्य की परिस्थितियों एवं दार्शनिक विचारों में एक प्रकार का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है। भ. महावीर के समय में इस देश में विचार-परम्पराओं का किस रूप में अस्तित्व था? जैन साहित्य एवं आगम इसका परिचय देते हैं।
सूत्रकृतांग', स्थानांग, भगवती में चार समवसरण की चर्चा है। समवसरण का अर्थ है-वादों का संगम | सूत्रकृतांग चूर्णि में समवसरण की व्याख्या इस प्रकार है-''समवसरन्ति जेसु दरिसणाणि दिट्टीओ वा ताणि समोसरणाणि'' अर्थात् जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का संगम है उसे समवसरण कहा जाता है। सवमसरण में इन्हीं चार वादों का निरूपण है। 1. क्रियावाद
क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुत स्कंध में मिलती है। जो आत्मा, लोक, गति, आगति, जन्म, मरण, शाश्वत-अशाश्वत, आश्रव-संवर आदि पर सघन आस्था रखता है, वह क्रियावादी है। भगवान महावीर से पूछा गया-भगवन् ! क्रियावादी कौन है?
उत्तर में भगवान ने कहा - जो आस्तिकवादी, आस्तिकप्रज्ञ, आस्तिकदृष्टि है वह क्रियावादी है। नियुक्तिकार ने आस्तिकता के आधार पर क्रियावाद की प्ररूपणा की। क्रियावाद में उन सभी धर्म-वादों को सम्मिलित किया गया जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते थे। आत्मा के कर्तृत्व को मानते थे।
क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं1. अस्तित्ववाद-आत्मा और लोक के अस्तित्व की स्वीकृति। 2. सम्यग्वाद् - नित्य-अनित्य दोनों धर्मों की स्वीकृति-स्याद्वाद । 3. पुनर्जन्मवाद। 4. आत्मकर्तृत्ववाद।
नियुक्तिकार एवं चूर्णिकार दोनों ने क्रियावाद के 180 प्रवादों का उल्लेख किया है किन्तु वह विकल्प की व्याख्या जैसा लगता है। उससे धर्म-प्रवादों की विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। विवरण इस प्रकार है6 AII
V तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112
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