________________
जैन दर्शन में क्रियावाद का दार्शनिक स्वरूप
--- साध्वी गवेषणा
जिज्ञासा मानव मन की सहज प्रवृत्ति है। जिज्ञासु मन जानना चाहता है कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? किस दिशा-विदिशा से आया हूं? कहां जाऊंगा? मृत्यु के बाद क्या होगा? यही दर्शन का उद्गम है।
कोऽहं और सोऽहं, ये दो सूत्र आत्मवादी दर्शन के नेत्र रूप हैं। कोऽहं अस्तित्वमूलक जिज्ञासा का सूचक है, सोऽहं अस्तित्व या स्व स्वरूप की सत्ता का प्रत्यक्ष बोध है। जिसके द्वारा वस्तु के वास्तविक स्वरूप का निर्णय किया जाता है वह दर्शनशास्त्र है। 'दृश्यते निर्णीयते वस्तु तत्त्वमनेनेति दर्शनम्' तत्त्वों के निर्णय में दर्शन प्रयोजक है।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मानव-जिज्ञासावृत्ति यौवन की देहलीज पर पहंच चुकी थी। विश्व की मूल सत्ता, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता और शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल आदि प्रश्नों पर विचारक अपने-अपने मन्तव्यों की पुनर्स्थापना कर रहे थे। अनेक स्वतंत्र दार्शनिक अवधारणाएं अस्तित्व में आ रही थी। दार्शनिक विवाद भी बढ़ रहा था।
प्राचीन भारतीय विचारक चिन्तन के लिये किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुसरण करने को बाध्य नहीं थे। यही कारण है कि उनके मन्तव्यों में एकरूपता नहीं आ सकी। विभिन्न वादों की धाराएं प्रवाहित होती रही। चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त शेष समस्त भारतीय अध्यात्मवादियों का केन्द्र आत्मा रही है। आत्मा के अस्तित्व का जहां तक प्रश्न है, भारतीय दार्शनिक एवं पाश्चात्य दार्शनिक जैसे प्लेटो, अरस्तु, सुकरात, देकार्त, लॉक, वर्कले, मेक्समूलर, शोपेनहावर आदि सभी एक मत हैं। मत वैभिन्य है आत्मा के स्वरूप और नित्यत्व-अनित्यत्व के
सम्बन्ध में। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITI
5
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org