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________________ और विहारों की तरह जैनों के चैत्य असंख्यात नहीं थे। साथ ही, जैन अपने परम्परासाहित्य की सुरक्षा के कार्य में जागरूक होते हए भी पूर्वाग्रही थे। इसलिए सीमित क्षेत्रीयता के कारण अर्द्धमागधी साहित्य अत्यन्त मिश्रित नहीं बन सका । अतः यह सामान्य दृष्टि से पालि की अपेक्षा अधिक आधारभूत है। इस प्रकार, ऊपर के विवेचन से यह प्रमाणित है कि मूल प्राकृत साहित्य के विश्लेषण और व्यालोचन के साथ ही विकास और विस्तार में बिहार को, खासकर मगध को अधिक महत्ता प्राप्त है। अनुमान है कि भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर प्रायः एक ही काल में बिहार में धर्मोपदेश करते थे, इसलिए इन दोनों की भाषा एक ही होगी। कहा जाता है कि भगवान् बुद्ध की धर्मोपदेश भाषा पालि अर्थात् मागधी और भगवान् महावीर की धर्मप्रवचन की भाषा प्राकृत अर्थात् अर्द्धमागधी थी। ये दोनों भाषाएं प्राचीन मगध के उच्चकुल की भाषाएं थी। यद्यपि आज बुद्ध और महावीर के उपदेश उनकी ही भाषा में मिलना सम्प्रति सम्भव नहीं। किन्तु यथाप्राप्य बौद्धों की पालि (मागधी) और जैनों की प्राकृत (अर्द्धमागधी) मूल उपदेश की ही संवर्धित, परिवर्द्धित एवं संशोधित आवृत्तियाँ हो सकती हैं। जो भी हो, अधुना समग्र आर्य भारतीय भाषा प्रदेश में प्राकृत का जो उत्तरकालीन विविध विकास परिलक्षित होता है, उसका मूल उद्गम-केन्द्र बनने का श्रेयोभागी एकमात्र बिहार का मगध क्षेत्र ही है। प्राकृत के विकास में बिहार की देन के व्यालोचन क्रम में बुद्ध और महावीर के समय की भाषा-परिस्थिति को भी समझना अप्रासंगिक न होगा। इसके लिए यदि हम धार्मिक साहित्य को छोड़कर शिलालेखों की प्राकृतों का निरीक्षण करेंगे, तो अधिक आधारभूत सामग्री प्राप्त हो सकेगी। अर्द्धमागधी में निबन्धित, जो आगम साहित्य हमारे दृष्टिपथ में आता है, वह कालक्रम से ठीक-ठीक परिवर्तित स्वरूप लेकर उपस्थित होता है। यद्यपि पूर्व की बोली के कुछ लक्षण उसमें है। पालि साहित्य में भी प्राचीन तत्त्वों की रक्षा होती है, किन्तु पूर्व की अपेक्षा उसमें मध्यदेश' का अधिक प्रभाव है। इसलिए, इस साहित्य से प्राचीन बोलियों की आधारभूत सामग्री ढूँढ़ना दुष्कर हो जाता है। तब, इसमें हमको अधिक सहायता सम्राट अशोक के शिलालेखों से मिलती है। ये शिलालेख ई.पू. 270-250 के लगभग लिखे गये हैं। भाषा की दृष्टि से अशोक के लेख चार रूपों में विभक्त हो सकते हैं। उत्तर पश्चिम के लेख, गिरनार के लेख, यमुना से महानदी तक के लेख तथा दक्षिण के लेख। गिरनार के लेख की भाषा पश्चिमोत्तर और पूर्व से भिन्न भाषा-प्रदेश सूचित करती है। इस भाषा की कुछ विशेषताएं इसे साहित्यिक पालि के निकट ले जाती है। पश्चिमोत्तर का कुछ प्रभाव तो गिरनार में प्रतीत होता है और वह गुजरात-सौराष्ट्र की भाषा-स्थिति के अनुकूल ही है। 42 AIIIII MINS तुलसी प्रज्ञा अंक 111-112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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