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________________ होते हैं तथा सत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है? उसको जानने से क्या लाभ? असत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है? उसको जानने से क्या लाभ? ये चार भंग साथ मिलाने से कुल 67 भेद होते हैं। विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है।25 चूर्णिकार के अभिमत से विनयवादियों का सिद्धान्त है- सम्प्रदाय या गृहस्थ सबके प्रति विनम्र रहना। विनय करना उनका परम लक्ष्य है। विनय किसके प्रति हो, इसकी भेदरेखा नहीं। गधे से लेकर गाय तक, चण्डाल से ब्राह्मण तक, जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प आदि किसी भी जाति का प्राणी हो, उनके लिये वन्दनीय है। चूर्णिकार ने नियुक्ति गाथा 112 की व्याख्या में 'दाणामा' 'पाणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी कहा है। भगवती में इनका स्वरूप निम्नानुसार निर्दिष्ट है __ ताम्रलिप्ती नामक नगर में तामली गाथापति रहता था। उसने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसकी विधि है जहां कहीं इन्द्र, स्कंध, रुद्र, शिव, दुर्गा, वैश्रवण, चमुण्डा आदि देवी-देव, राजा, ईश्वर, कौटुम्बिक, सेनापति, श्रेष्ठी, कौआ, कुत्ता या चण्डाल जो भी मिले, सबको प्रणाम किया जाता था। तामली तापस ने यह प्रव्रज्या स्वीकार की थी।28 पूरण गाथापति ने 'दाणामा' प्रव्रज्या अंगीकार की। प्रव्रज्या के बाद वह चार फुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेमेल सन्निवेश' में भिक्षा लाने गया। भोजनपात्र के पहले पुट में जो गिरता उसे पथिकों को लुटा देता। दूसरे पुट का कौओ-कुत्तों को, तीसरे का मच्छकच्छों को और चौथे पुट का वह स्वयं खाता था। यह 'दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार था।29 वृत्तिकारशीलांकाचार्य ने विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है किन्तु यह अर्थ विमर्शनीय है। यहां विनय का अर्थ आचार अधिक संगत लगता है। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान को सिद्धि का हेतु मानते हैं वैसे आचारवादी आचार को | ज्ञानवादी और आचारवादी दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं। प्राचीन मतवादियों में एकांगी दृष्टिकोण अधिक परिलक्षित होता है। वे तात्त्विक चिन्तन की समग्रता से लगभग दूर रहते थे। किसी एक तत्त्व में ही अपने दर्शन की यथार्थता मान लेते थे। चिन्तनीय प्रश्न यह है कि जीवन एकमुखी नहीं होता। वह अनेकवृत्तियों, विचारों, चिन्तनों एवं क्रियाओं का समवाय होता है। उसे समग्र भाव से समझा जाये, यही अभिप्रेत है । एकांगी दृष्टिकोण से सत्य उपलब्ध नहीं होता। विनयवादी जो विनय को ही सर्वोपरि स्थान देते हैं उनका मिथ्याग्रह और व्यामोह है। विनय चारित्र का अंग है। किन्तु सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप विनय की आराधना ही लक्ष्य तक पहुंचाती है। विनय की अपनी उपादेयता है पर उसके साथ वे तत्त्व भी जुड़े हों, जो विनय को सत्योन्मुखी बना सके। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-जून, 2001 AMITITIO TN LY 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524606
Book TitleTulsi Prajna 2001 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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